हाल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस -5, 2019-2020) जारी किया और यह सर्वे बताता है कि बीते पाँच वर्षों में देश के पाँच साल से कम आयु के बच्चों में कुपोषण का स्तर सुधरने की बजाय खराब हुआ है। एनएफएचएस-5 सर्वे के पहले चरण में 17 राज्यों और पाँच केंद्र शासित राज्यों के आँकड़े जारी किये गये हैं। कोविड-19 महामारी के कारण दूसरे चरण का काम नवंबर में शुरू हुआ और सम्भावना है कि मई, 2021 में इसके आँकड़े जारी हो जाएँगे। इसके तहत शेष राज्यों व केंद्र शासित राज्यों में सर्वे का काम जारी है। भारत में एनएफएचएस सर्वे 1992-93 से शुरू किया गया है और इस सर्वेक्षण के तहत जनसंख्या, परिवार नियोजन और पोषण से जुड़े सूचकांक के लिए जानकारी इकट्ठी करने को लोगों के घर जाया जाता है। 2019-2020 का एनएफएचएस-5 के पहले चरण के आधिकारिक आँकड़े खुलासा करते हैं कि देश में पाँच साल पहले कुपोषित बच्चों का फीसद आज की अपेक्षा कम था।
कई प्रदेशों की स्थिति चिन्ताजनक
चिन्ता की बात यह भी है कि अमीर सूबों, जैसे केरल, गोवा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात व महाराष्ट्र में भी इस सन्दर्भ में उलट स्थिति सामने आयी है। 17 राज्यों में से 11 राज्यों में बच्चों में नाटापन यानी आयु के अनुपात में कम लम्बाई वाले बच्चों का फीसद बढ़ा है। नाटापन अक्सर बच्चों में तब होता है, जब वे चिरकालिक तौर पर पर्याप्त पौष्टिक आहार से वंचित रहते हैं। अगर बच्चे की माता भी कुपोषित है, तो बच्चे के कुपोषित होने की सम्भावना बढ़ जाती है। नवीनतम सर्वे के अनुसार, त्रिपुरा व तेलगांना में बच्चों में नाटापन आठ से छ: फीसदी बढ़ गया है। केरल व हिमाचल प्रदेश में चार फीसदी बढ़ गया है। गुजरात और महाराष्ट्र में भी यह आँकड़ा बढ़ा हुआ बताया गया है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व असम में हालात लगभग पहले वाले ही हैं। बिहार, सिक्किम व मणिपुर अपवाद के तौर पर देखे जा सकते हैं, जहाँ कुपोषण में गिरावट दर्ज की गयी है। यह सर्वे इस पर भी रोशनी डालता है कि दक्षिण राज्य भी खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों की सूची में शमिल हो गये हैं। उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा जहाँ नाटेपन की समस्या अति गम्भीर रही है, जिनके आँकड़े आने बाकी हैं। कुपोषण के चलते बच्चे महज़ नाटे ही नहीं होते, बल्कि उनका वज़न भी लम्बाई के अनुपात में कम हो जाता है, जिसे वेस्टेड बच्चे कहा जाता है। यह रिपोर्ट इस तथ्य पर भी रोशनी डालती है कि 18 राज्यों में से 14 राज्यों में ऐसे बच्चों की संख्या कम होने की बजाय बढ़ी है। यह संख्या 4 से लेकर करीब 10 फीसदी तक बढ़ी है। यही नहीं, अधिकतर राज्यों में खून की कमी वाले बच्चों की तादाद में भी बढ़ोतरी पायी गयी है। असम में पाँच साल से कम आयु वाले एनेमिक बच्चों में 33 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई है, यानी असम में इस आयु के दो-तिहाई से अधिक बच्चे तकरीबन 68 फीसदी एनेमिक हैं। गुजरात जहाँ भाजपा की सरकार बीते कई दशक से सत्ता में है; वहाँ के एनेमिक बच्चों की संख्या में भी वृद्धि दर्ज की गयी है। वहाँ ऐसे बच्चों की संख्या 80 फीसदी है, जो कि पिछले एनएफएचएस 2015-16 में 63 फीसदी थी। नवीनतम रिपोर्ट यह तथ्य भी सामने लाती है कि पिछली बार जिन राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया था, वहाँ हालात आज खराब हैं।
दिन-ब-दिन स्थिति हो रही खराब
ध्यान देने वाली बात यह है कि 2005-6 एनएफएचएस-3 और 2015-16 एनएफएचएस-4 के बीच भारत ने नाटेपन को कम करने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की और नाटापन 48 फीसदी से 38.4 फीसदी तक पहुँच गया। लेकिन बीते चार वर्षों में इस दिशा में प्रगति करने की बजाय पीछे खिसकना एक बहुत बड़ा धक्का है। पर भारत की केंद्र सरकार ने देश की अवाम को यह बताने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा कि देश विकास की राह पर आगे बढ़ रहा है। इन चार वर्षों में विकास इतना हुआ कि भारत जीडीपी में दुनिया में 5वें स्थान पर पहुँच गया और अगले चार वर्षों में 2.93 खरब से पाँच खरब डॉलर तक पहुँच जाएगा। पर रफॉल वाले भारत और विकास की ऐसी तस्वीर में कुपोषित बच्चों के आँकड़ें बताते हैं कि सरकार इस दिशा में ज़मीनी स्तर पर कितनी गम्भीर है! अगर दुनिया में वेस्टेड (निहित) बच्चों की संख्या 4.95 करोड़ हैं, तो इसमें से 2.55 करोड़ वेस्टेड बच्चे भारत के हैं। यह फिक्र वाला बिन्दु है, और सवाल खड़ा करता है, सरकार, योजनाओं को अमलीजामा पहनाने वालों पर और ऐसी व्यवस्था पर जो कुपोषित बच्चों की संख्या कम करने में ज़मीनी स्तर पर अपेक्षित नतीजे देने में नाकामयाब हो रही है। एक बात और ध्यान देने वाली है कि 2015-16 की तुलना में 2019-2020 में भारत में सेनिटेशन, स्वच्छ रसोई ईंधन व स्वच्छ पेयजल की सुविधा का विस्तार हुआ है यानी अधिक लोगों तक इसकी पहुँच बढ़ी है, तो कुपोषण के आँकड़ों में वृद्धि सवाल खड़े करती है। भारत की अर्थ-व्यवस्था सन् 1991 से आज दोगुनी हो गयी है और बाल कुपोषण को दूर करने का विश्व का सबसे बड़ा समेकित बाल विकास कार्यक्रम देश में सन् 1975 से काम कर रहा है। सन् 2017 में देश में पाँच साल से कम आयु के तकरीबन 14 लाख बच्चों की मौत हो गयी, जिसमें से 68 फीसदी से अधिक की मौत कुपोषण के कारण हुई। भारत में बाल कुपोषण एक ऐसी समस्या है, जिसे दूर करने के लिए भारत सरकार पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बराबर बना रहता है। चीन ने बाल कुपोषण में सुधार को लेकर बेहतर प्रदर्शन किया है। भारत के सन्दर्भ में कई अनुभवी विशेषज्ञ भारत व चीन का इस सन्दर्भ में तुलनात्मक सवाल करने पर समझाते हैं कि भारत में अकाल का गहरा इतिहास रहा है और उसका खामियाज़ा कई पीढिय़ों को भुगतना पड़ता है। बहरहाल एनडीए सरकार ने अपने पहले शासनकाल में बाल कुपोषण चुनौती से निपटने के लिए 2018 में पोषण अभियान की शुरुआत की और इसके तहत हर साल कुपोषण को कम करने का लक्ष्य रखा गया। यही नहीं, सरकार ने अपनी इस महत्त्वाकांक्षी योजना के तहत 2022 तक भारत को कुपोषण मुक्त करने का लक्ष्य भी रख दिया। लेकिन क्या भारत अपने इस लक्ष्य को हासिल कर पाएगा? एनएफएचएस-5, 2019-20 के इस बाबत आँकड़े तो निराशाजनक ही तस्वीर पेश करते हैं। कोविड-19 महामारी ने विश्व की अर्थ-व्यवस्था को बहुत कमज़ोर कर दिया है, इसकी सबसे अधिक मार गरीब, हाशिये पर रहने वाली आबादी पर पड़ी है और बच्चे व महिलाएँ बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं।
महामारी में स्थिति और बिगड़ी
इस महामारी का आने वाले वर्षों में क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अंदाज़ लगना शुरू हो गया है। भारत में तो इस महामारी से पहले के ही वर्षों में कुपोषण के मामलों में वृद्धि के आँकड़े सरकार अपने सर्वे के ज़रिये सार्वजनिक कर रही है, महामारी के दौरान व बाद में बच्चों के जो आँकड़े आएँगे, सम्भावना है कि उसमें भी वृद्धि नज़र आये। हंगर वॉच के एक ताज़ा सर्वे में गरीब घरों के वयस्कों ने बताया कि वे लॉकडाउन से पहले की तुलना में आज कम पौष्टिक आहार ले रहे हैं। ज़ाहिर है असंख्य लोगों की नौकरी छिन गयी, असंख्य लोगों के वेतन में कटौती कर दी गयी है। असंख्य लोगों का बीमारियों के इलाज का खर्चा बढ़ गया है, ऐसे माहौल में लोग खासकर गरीब, निम्न मध्य वर्ग अपने खान-पान के खर्चों में कटौती कर रहा है, जिससे वयस्क व बच्चे दोनों प्रभावित हो रहे हैं। यही नहीं, लॉकडाउन के दौरान मिड-डे मील व्यवस्था स्कूलों व आँगनबाड़ी केंद्रों में रोक दी गयी थी, जो कि आज तक फिर से हर जगह शुरू नहीं हुई है; उसका खामियाज़ा भी आने वाले वर्षों में सामने आयेगा।
ज़मीनी स्तर पर सुधार ज़रूरी
बेशक सरकार ने लाभार्थी बच्चों के घर राशन पहुँचाने वाली वैकल्पिक व्यवस्था की हुई है, मगर वह ज़रूरत के हिसाब से कारगर साबित नहीं हो रही है। बाल कुपोषण को लेकर भारत की केंद्र व राज्य सरकारों को अति गम्भीर रुख अिख्तयार करना होगा। बाल कुपोषण को दूर करने वाली योजनाओं, कार्यक्रमों को ज़मीनी स्तर पर अमलीजामा पहनाने के लिए तमाम बाधाओं को दूर करने के वास्ते मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ-साथ सालाना बजट में भी पर्याप्त राशि का आवंटन भी ज़रूरी है। यह सही है कि बाल कुपोषण भारत में ऐसा राजनीतिक व सामाजिक मुद्दा नहीं है, जिसके बल पर सरकारें गिर जाएँ। ऐसे मुद्दे चुनावी रैलियों के एजेंडे का हिस्सा भी नहीं बनते, मगर चुनाव लडऩे वाले जन प्रतिनिधियों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज व देश का भविष्य बच्चे ही हैं। अगर बच्चे ही कुपोषित, बीमार होंगे, तो देश का भविष्य कैसे उज्ज्वल हो सकता है? किसी खास पर्व पर सिर्फ लाखों दीये जलाकर, भारत में उजियारा नहीं बिखेरा जा सकता, अगर वास्तव में भारत का वर्तमान, भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो बाल कुपोषण को कम करने की दिशा में गम्भीरता बरतने के साथ कार्यों में तेज़ी लानी होगी।
एनएफएचएस-5 के बाल कुपोषण के जो निराशाजनक आँकड़े अभी तक सामने आये हैं, उम्मीद है कि सरकार उनके कारणों की पड़ताल करेगी व उन सब छिद्रों को बन्द करेगी, जिसके चलते देश में बाल कुपोषण कम होने की बजाय बढ़ रहा है। इस दिशा में हासिल की गयी उपलब्धियों को और आगे ले जाने की बजाय पीछे की ओर लौटना किसी भी बड़ी अर्थ-व्यवस्था और लोकतंत्र, दोनों के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। बाल कुपोषण की मौज़ूदा तस्वीर से एनडीए-2 की सरकार भी पसोपेश में होगी। प्रधानमंत्री मोदी की महत्त्वाकांक्षी योजना कुपोषण मुक्त भारत-2022 क्या हकीकत में अपना लक्ष्य हासिल कर पायेगी।