अमेरिका के चुनावी वर्ष में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हाल की दो दिवसीय भारत यात्रा कई मायनों में महत्त्वपूर्ण थी। दौरे के दौरान एक-दूसरे को लेकर व्यक्त प्रशंसा और अभिव्यक्तियों से परे इस यात्रा को एक अलग परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है। किसी को भी यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी अमेरिकी नेता भारत के हितों के बारे में उस सीमा तक ही चिन्ता करेगा, जहाँ तक वाशिंगटन के अपने हित को चोट न पहुँचती हो।
उनकी यात्रा का पहला दिन प्रदर्शन से भरा था, जिसे वे अपने देश के लोगों को दिखाने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे कि कैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनका स्वागत किया गया। उन्होंने मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम (सरदार बल्लबभाई पटेल स्टेडियम) में एक लाख से अधिक लोगों की एक सभा को सम्बोधित किया था। इससे उन्हें आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भारतीय-अमेरिकियों, खासकर अति-राष्ट्रवादी विचारों वाले भारतीयों का समर्थन हासिल करने में मदद मिल सकती है।
सच्चाई यह है कि दोनों देशों को उभरते भू-राजनीतिक वैश्विक परिदृश्य में एक-दूसरे की ज़रूरत है, विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में। अमेरिका नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच अपनी भारत-प्रशांत नीति के एक आवश्यक घटक के रूप में अहम सहयोगी मानता है; खासकर तब जब क्षेत्र में चीनी उपस्थिति तेज़ी से बढ़ रही है। जिस गति के साथ चीन एक विशाल वैश्विक उपस्थिति की योजना के साथ तकनीकी, आर्थिक और सैन्य क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है, वह न केवल भारत, बल्कि अमेरिका के लिए भी चिन्ता का विषय है। भविष्य में एक महाशक्ति के रूप में उभरने के अपने सपने को साकार करने के उद्देश्य से शक्ति बढ़ाने के लिए चीन के कार्यक्रम के प्रति चौकन्ना होने के लिए अमेरिका बाध्य है। भारत और अमेरिका के बीच घनिष्ठ रणनीतिक और समुद्री सहयोग बीजिंग को एक कड़ा संदेश दे सकता है कि उसे क्षेत्र और दुनिया में शक्ति संतुलन को बदलने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। अमेरिका इस बात से खुुश होगा, यदि वह चीन को यह अहसास दिला सके कि क्षेत्र में उसके प्रभुत्व को चुनौती देने में भारत सक्षम है। चीन के विस्तारवादी डिजाइन में भारत की मज़बूती अमेरिका के सुपर पॉवर स्टेटस को बनाये रखने के लिए एक उच्च-स्तरीय भारत-अमेरिकी रणनीतिक सहयोग प्रभावी साबित हो सकती है।
चीन की बड़ी सैन्य ताकत और अर्थ-व्यवस्था दोनों विश्व स्तर पर, विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अमेरिकी वर्चस्व के लिए खतरा मानी जाती हैं। साल 2017 के आधार पर चीन की अर्थ-व्यवस्था 3 ट्रिलियन डॉलर की है; जो क्रय शक्ति समानता में दुनिया में सबसे ज़्यादा और जीडीपी के मामले में दूसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था है। बाज़ार केंद्रित अर्थ-व्यवस्था में अपनी केंद्र-नियोजित प्रणाली को बदलने के बाद चीन अधिक-से-अधिक आर्थिक शक्ति का अधिग्रहण कर रहा है।
भारत-प्रशांत क्षेत्र में भारत को चीन से मिलने वाली चुनौती अमेरिका की समस्या के रूप में भी देखा जाता है। इसलिए, यदि अमेरिका चीन को भारत के पड़ोसियों- नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक सीमित रखने के उपाय करता है, तो इससे वह भारत के हितों की भी पूर्ति करता है। अगर वाशिंगटन इस पर गम्भीरता से काम करे, तो अमेरिका भारत के चारों ओर एक मज़बूत घेरा बनाने की चीन की रणनीति को कमज़ोर कर सकता है। नई दिल्ली से किसी भी तरह की मदद के लिए भारत के पड़ोसियों को कम दिलचस्पी लेने की चीन की नीति के बारे में एक विचार सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) देशों में बीजिंग से बड़े पैमाने पर निवेश से हो सकता है। चीन इन देशों को ऋण जाल में फँसाये रखने की कोशिश कर रहा है, ताकि उनकी नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से प्रभावित कर सके।
स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के एक अनुमान के अनुसार, बांग्लादेश में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (चीन प्रायोजित एक योजना, जिसमें पुराने सिल्क रोड के आधार पर एशिया, अफ्रीका और यूरोप के देशों को सड़कों और रेल मार्गों से जोड़ा जाना है) से सम्बन्धित चीनी निवेश जुलाई, 2019 तक लगभग 38 बिलियन डॉलर था। चीन ने बांग्लादेश में विभिन्न प्रकार के निवेश किये हैं। बिजली क्षेत्र में यह सबसे अधिक हैं, जिसके कारण कई विदेशी मामलों के विशेषज्ञ ढाका को धीरे-धीरे चीनी ऋण जाल में फँसता देख रहे हैं। जहाँ तक श्रीलंका का सम्बन्ध है, वह भी विदेशी ऋण करीब 66 बिलियन डॉलर में बहुत गहरा फँसा है और वित्त मंत्रालय के जारी आँकड़ों के अनुसार इस कर्ज़ में से अकेले चीन का 12 फीसदी है, जो सबसे बड़ा हिस्सा है।
यह बात नेपाल और म्यांमार के बारे में भी सच है। नेपाल और म्यांमार में कुल एफडीआई का 90 फीसदी चीन से आता है। चीन म्यांमार के विदेशी निवेश का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत और उसका शीर्ष व्यापार भागीदार है। वहाँ साल 1988 से 2019 तक स्वीकृत चीन का निवेश 20 अरब डॉलर से अधिक था, जो उस देश के कुल एफडीआई का करीब 26 फीसदी है। पाकिस्तान तो वस्तुत: चीन का उपनिवेश ही बन गया है, क्योंकि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में बीजिंग ने बड़ा निवेश किया है। यह पाकिस्तान के एक छोर से शुरू होकर चीन (शिनजियांग प्रान्त) तक जाता है और दूसरे छोर पर अरब सागर को छूता है, जहाँ पाकिस्तान की ग्वादर बंदरगाह स्थित है।
मौज़ूदा वैश्विक स्थिति भारत को विभिन्न क्षेत्रों में अमेरिकी साझेदारी के लिए एक आकर्षक गंतव्य बनाती है। यह स्पष्ट था कि राष्ट्रपति ट्रंप नयी दिल्ली में 2.6 बिलियन डॉलर कीमत के 24 सैन्य हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति में तेज़ी लाने के लिए भारत-अमेरिकी सौदों पर हस्ताक्षर करने से क्यों खुश थे। अगर भारत में छ: परमाणु रिएक्टरों के निर्माण के लिए तकनीकी-वाणिज्यिक अमेरिकी प्रस्ताव के साथ हेलीकॉप्टरों की खरीद नई दिल्ली के लिए आवश्यक थी, तो ये सुस्त अमेरिकी रक्षा उद्योग में भी नये प्राण फूँकने के लिए मददगार थी। इसके कोई ज़्यादा मायने नहीं हैं कि इस साल के अन्त तक दोनों पक्षों के बीच बहुप्रतीक्षित व्यापार सौदे को अंतिम रूप दिया जाना है। इसके लिए रास्ता साफ हो चुका है।
हालाँकि, राष्ट्रपति ट्रंप ने अफगानिस्तान में चल रही शान्ति प्रक्रिया के मामले में भारत के रोल पर ज़्यादा भरोसा नहीं दिया, सिवाय इसके कि नई दिल्ली और वॉशिंगटन ने यह सुनिश्चित करने के लिए अपने संकल्प को दोहराया कि यह शान्ति प्रक्रिया अफगान के नेतृत्व वाली और अफगान-स्वामित्व वाली होगी। ट्रंप की भारत यात्रा के समापन के बाद जारी साझे बयान में इस बात का कोई उल्लेख या प्रावधान नहीं है कि पाकिस्तान को इस्लामाबाद समर्थित तालिबान गुटों के माध्यम से अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से रोका जाए, जो कि कुछ ही महीनों में अमेरिका सेना की वापसी के बाद योजनाबद्ध तरीके से काबुल में सत्ता संरचना का हिस्सा होगा। भारत स्पष्ट रूप से दक्षिण एशिया और अन्य जगहों से सीमा पार आतंकवाद को रोकने के लिए नयी अमेरिकी प्रतिबद्धताओं से खुश है। हालाँकि, इसमें कोई नई बात नहीं है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रधान मंत्री मोदी और भारत के कुछ मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के किये इन वादों का स्वागत किया कि वे इस काम में जुटे हैं कि चीनी दूरसंचार दिग्गज हुआ वे को जल्द ही भारतीय 5जी नेटवर्क से बाहर किया जा सके, जिसका नतीजा अमेरिका में कौशल विकास के लिए किया गया भारतीय निवेश है। संयुक्त बयान के करीबी अध्ययन से पता चलता है कि दोनों पक्षों के बीच कोई बड़ी बात नहीं थी; क्योंकि यह नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच असैनिक परमाणु सहयोग समझौते के मामले में भी हुआ था, जब भारत में मनमोहन सिंह सरकार थी और अमेरिकी प्रशासन का नेतृत्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने किया था।
फिर भी ट्रंप की यात्रा भारत के लिए संतोषजनक थी। इसके प्रमुख लाभ में से एक राष्ट्रपति ट्रम्प का रणनीतिक रूप से यह महत्वपूर्ण आश्वासन था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का एक स्थायी सदस्य बनने के भारत के सपने को साकार करने के लिए अमेरिका पूर्ण समर्थन देगा, क्योंकि बदले वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए कई देशों की इस (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्) के विस्तार की माँग है।