भाजपा से आगे नई चुनौती

भाजपा के अंदर और बाहर साल के समापन के साथ ही खुशी और गम दोनों ही हैं। खुशी इसलिए क्योंकि देश की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हालत में है। स्थायित्व है और विकास की दर भी खासी प्रभावशाली है। विदेश नीति के मोर्चे पर भी अब हालात खास सुधरे हैं। पहली बार भारत में किसी अंतरराष्ट्रीय मंच का मुख्यालय बना वह भी गुरूग्राम (गुडगांव) में वह भी इंटर नेशनल सोलर एलायंस का।

पिछले साल पहली जुलाई को देश में जीएसटी की शुरूआत हुई थी। यह सरकार का क्रांतिकारी आर्थिक सुधार कार्यक्रम था जो पिछले साल के अंत तक खासा प्रभावी कदम साबित हुआ। एक और क्रांतिकारी सामाजिक सुधार ‘लैंगिक न्याय के लिए तीन तलाक’ का हुआ जो इस साल सितंबर से आर्डिनेंस के रूप में देश में अमल में आया। अब साल के अंत में लोकसभा में पास होने के बाद इसे राज्यसभा से मंजूरी लेनी है उसके बाद यह एक कानून की शक्ल ले लेगा।

इस साल राजनीतिक तौर पर ‘यह साल पिछले साल की तरह नहीं गुजरा।’ पिछले साल यानी 2017 में हुए चुनावों में भाजपा सात राज्यों में से छह राज्यों में जीत हासिल कर गई थी। जब 2018 की शुरूआत हुई तो फरवरी में उत्तरपूर्वी राज्यों में तीन में इसे अच्छी जीत हासिल हुई। खास तौर पर त्रिपुरा और नगालैंड में। त्रिपुरा में तो भाजपा के नेतृत्व में लड़े मोर्च ने दो तिहाई बहुमत हासिल कर लिया था। त्रिपुरा में 25 साल से सत्ता में बैठी वाम मोर्चा सरकार को परास्त किया गया। नगालैंड में पहली बार 20 सीटों में से 17 पर भाजपा समर्थक जीते और एनडीपीपी के साथ सरकार बनाई।

मार्च में पार्टी की चुनावी जीत में कुछ परेशानियां हुई। उत्तरप्रदेश में लोकसभा की दो महत्वपूर्ण सीटों व गोरखपुर में हमारी हार हुई। मई में कर्नाटक विधानसभा में पार्टी ने काफी बेहतर तरीके से चुनाव लड़ा लेकिन एक दर्जन सीटों के कम होने के कारण राज्य में सरकार न बना पाई। साल के अंत में पांच राज्यों में भी पार्टी को अच्छी खबर नही मिल सकी। अब चार महीने बाद देश में आम चुनाव है। पार्टी को चुनावी गुणा भाग अब बेहतर तरीके से करना है। उसे विपक्ष से हर हाल में जबरदस्त मुकाबला करके अपनी पहल को जीत में बदलना है।

पार्टी ने 2014 में मतदाताओं से जो संपर्क बनाया था उसके तीन आधार थे- नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और तब की सत्ता चला रही व्यवस्था की असफलताएं। सत्ता में पांच साल रहने के बावजूद पार्टी की साख दोनों ही चीजों में आज भी जमीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी जनता में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। इससे जाहिर है कि पारंपरिक तौर पर ‘इंकबैंसी’ का मामला यहां उठता ही नहीं। अभी हाल बीते साल में कई राज्यों में अपने दम पर अकेले उन्होंने चुनाव प्रचार किया हार के बाद भी पार्टी ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में जबरदस्त मुकाबला किया। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि उन्होंने बिना थके जबरदस्त चुनाव प्रचार किया। उत्तरपूर्व के दो राज्यों में जो दो महत्वपूर्ण विजय हासिल हुई। वह उनकी सूझबूझ और नेतृत्व के चलते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी जनता में उम्मीद की लौ है और पार्टी की जबरदस्त पूंजी।

दरअसल पिछले दिनों जो झटका पार्टी को लगा है उसकी वजह यह नही है कि जनता यह मानने लगी है कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि विपक्ष में भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है या कोई एक पार्टी नहीं है जो मादी की दृष्टि और समर्पण का मुकाबला कर सके। जनता के सामने दुविधा है कि वे विचार शून्य गठजोड को चुने या मोदी को। गठजोड़ का एक ही सिद्धांत है कि किस तरह प्रगतिशील नज़रिए पर रोक लगे।

ऐसे मुद्दे ज़रूर हैं जिन पर मोदी और पार्टी के लोगों को मिल बैठकर विचार करना चाहिए। लोगों के एक वर्ग में थोड़ी बहुत नाराज़गी होगी क्योंकि उनकी उम्मीदें कहीं ज़्यादा की रही होगी। लोग तो हमेशा जल्दबाजी में होते हैं। पर दुर्भाग्य से सरकार के पास सिर्फ पांच साल की समय सीमा होती है जिसमें सबकी अपेक्षाएं पूरी नहीं की जा सकती। इसी कारण जो हार्डकोर राजनीतिक होते हैं उनकी नजऱ हमेशा अगले चुनावों पर होती है और उसी तरह वे योजनाएं भी बनाते हैं। लोकप्रियता के आधार पर वे चुनाव तो जीत जाते हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं इसके नतीजे क्या होंगे।

एक राजनीतिक की नजऱ अगले चुनाव पर होती है लेकिन एक राजनेता की नजऱ अगली पीढ़ी पर होती है। अमेरिकी धर्मशास्त्री जेम्स फ्रीमैन कलार्क ने यह कहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीतिक कम मगर राजनेता ज़रूर है। सुधार करने का जो बीड़ा उन्होंने उठाया है चाहे वह भ्रष्टाचार के खिलाफ हो या फिर भारत की आर्थिक स्थिति मजबूत करने की बात हो, विमुद्रीकरण (नोटबंदी) से काला धन दूर करना हो या फिर बेमतलब के कानून और व्यवस्थाएं हटा कर व्यापार को बढ़ावा देने की बात हो या फिर खेती उत्पादों की अच्छी कीमत किसानों को दिलाना हो, फसल बीमा का मामला हो या मिट्टी के स्वास्थ्य की चिंता हो या और बड़े मुद्दे जिन पर उन्होंने हमेशा ध्यान दिया और जुटे रहे। यह सब उन्होंने लोकप्रियता के लिए नहीं बल्कि मूलभूत समस्या के हल के लिए किया।

नए साल की नई चुनौतियां अब पार्टी और सरकार के सामने हैं। जो किंही वजहों से दुखी भी हैं वे भी मोदी के खिलाफ नहीं है। भाजपा की यह खासियत है कि यह स्वंय सेवियों का अपना संगठन है। जो राष्ट्रहित में हमेशा सक्रिय रहता है। यह पेशेवर सगठन नहीं है। इसे केंद्रीय उत्साह और भरोसे की ज़रूरत ज़रूर पड़ती है लेकिन यह विकेंद्रित होकर जनता के बीच सक्रिय हो जाता है।