राजस्थान में दोनों मुख्य राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस फिलहाल 7 दिसम्बर को होने वाले चुनाव के निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं। कांग्रेस तो टिकट वितरण को लेकर अंदेशों की सरहद पर खड़ी है। हालांकि सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस ने 120 सीटों पर सहमति बना ली है। लेकिन फिलहाल सूची इस मंथन पर अटकी हुई है कि मध्यप्रदेश की तर्ज पर प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट और अशोक गहलोत चुनाव लड़ें या फिर कांग्रेस को जीत दिलाने के लिए हर सीट पर प्रचार करने पर फोकस करें? अगर दोनों को टिकट मिलता है तो गहलोत जोधपुर की सरदारपुरा ओर पायलट दोसा या अजमेर की सीट पर चुनाव लड़ सकते हैं? उधर भाजपा की 131 उम्मीदवारों की सूची जारी होते ही पार्टी में बगावत की आग भड़क उठी है और धरने प्रदर्शन का दोर शुरू हो गया है। टिकट कटने से नाराज मंत्री सुरेन्द्र गोयल ने पद और पार्टी से इस्तीफा देे दिया है और निर्दलीय चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी है। इसी तर्ज पर भाजपा के नागोर विधायक हबीबुर्रहमान ने भी भाजपा से किनारा कर लिया है। उनका कहना है, ‘निर्दलीय लड़ूंगा या किसी और पार्टी से नाता जोड़ूंगा, जल्दी ही फैसला करूंगा? देवस्थान मंत्री राजकुमार रिणवा के रतनगढ़ से टिकट कटने के अंदेशों को लेकर उनके समर्थक भाजपा मुख्यालय पर प्रदर्शन के लिए उलट पड़े हैं। रामगंजमंडी की भाजपा विधायक चंद्रकांता मेघवाल ने टिकट कटने पर हालांकि खुलकर कुछ नहीं कहा है लेकिन समझा जाता है कि वे दो सीटों को खासा नुकसान पहुंचा सकती है। अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अपना टिकट कटने के लिए उनका खौलता गुस्सा पार्टी के ही विधायक प्रहलाद गुंजल पर निकलेगा। ऐसे में गुंजल के निर्वाचन क्षेत्र में सेंध लगा सकती है। अब जबकि पार्टी ने रामगंजमंडी से संघनिष्ठ मदन दिलावर को टिकट दिया है तो चंद्रकांता मेघवाल उनके वोटों में बारूद की सुरंगे बिछा सकती है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा इस सीट पर मचे घमासान को रोकने के लिए डेमेज कंट्रोल की कोशिश में है, लिहाजा संभावना है कि चंद्रकांता को डग अथवा केशवरायपाटन की आरक्षित सीट से टिकट मिल जाए? बहरहाल चंद्रकांता मेघवाल का टिकट काटे जाने से नाराज रामगंजमंडी मंडल अध्यक्ष नरेन्द्र काला और अन्य पदाधिकारी भाजपा से इस्तीफा दे चुके हैं। बहरहाल टिकट वितरण में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और आरएसएस का बखूबी दखल रहा है।
भाजपा में बगावत की आग छह मंत्रियों समेत 46 विधायकों के टिकट कटने को लेकर है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने पहले ही दो टूक शब्दों में इनको ‘ड्रॉपÓ करने की मंशा जता दी थी। शाह का कहना था, ‘जो नहीं जीतेगा, उसका टिकट काटो …..। उन्होंने बड़ी बेबाकी से जता दिया था कि,’राजस्थान में सरकार फिर से बनानी है, तो किसी को ‘कृतार्थÓ नहीं करना है। इधर वसुंधरा इस बात पर अड़ गई है कि, जो लोग पार्टी और उनके साथ लंबे समय से जुड़े हैं, उनकी अनदेखी करना उचित नहीं होगा। लेकिन फिर भी कमोबेश अनदेखी होकर रही। सूत्रों का कहना है कि शाह की मंशा सिर्फ जिताऊ उम्मीदवार को ही टिकट देने की थी। शाह इस मामले में कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। सूत्रों का कहना है कि सिर्फ इसी आधार पर किसी को टिकट नहीं दिया जा सकता कि, वो वरिष्ठ नेता या मंत्री है? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना कि,’टिकट वितरण में भाजपा नेतृत्व वसुंधरा राजे को खुली छूट देने को कतई तैयार नहीं था। पार्टी अध्यक्ष शाह के निकटतम सूत्रों का कहना है कि,’हमने जो सूचियां तैयार की उसका आधार पार्टी द्वारा करवाया गया सर्वे है। टिकट वितरण में अपनी अवहेलना से राजे के तल्ख तेवर साफ नजर तो आए लेकिन स्पष्ट रूप से कुछ भी कहने से बचती रही। हालांकि नाराज़गी का नजारा छिपा भी नहीं रह सका, जब वे पहली नवम्बर को केन्द्रीय चुनाव समिति की बैठक से किनारा कर गई।
इस बीच मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के टिकट वितरण में जिस तरह भाजपा के मुख्यमंत्रियों की पसंद को तवज्जो दी गई उससे वसुंधरा राजे को भी अपनी मन की करने का मौका मिल गया था। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से जो सूचियां जारी हुई, उनमें बड़ी संख्या में मौजूदा विधायक टिकट पाने में सफल रहे। लेकिन फिर भी वसुंधरा राजे इस तर्क को भुना पाने की कोशिश में तो कामयाब नहीं हुई।
राजनीतिक रणनीतिकारों का कहना है कि शाह और वसुंधरा ‘दोनों का मकसद राज्य में भाजपा की सत्ता को बरकरार रखना है। फर्क बस इतना है कि, शाह ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर प्रत्याशी तय करने का सुझाव दे रहे थे और वसुंधरा राजे प्रदेश इकाई के पैनल में आए सभी प्रत्याशियों की हिमायत में खड़ी थी। राजे की हठधर्मी के पीछे विश्लेषक उनका दोहरा दांव भांप रहे हैं। जीतने पर तो उनका छत्र हिलने का सवाल ही नहीं। पराजय हुई तो उनके ‘निष्ठावानÓ विपक्षी नेता का ताज किसी गैर के सिर पर नहीं रखने देंगे। बावजूद इसके सार्वजनिक निर्माण मंत्री यूनुस खान, उद्योग मंत्री राजपाल सिंह शेखावत, आपूर्ति मंत्री बाबूलाल वर्मा, चिकित्सा मंत्री कालीचरण सर्राफ , श्रम मंत्री जसवंत सिंह और पीएचडी मंत्री हेमसिंह भडाना के टिकट कट कर ही रहे। सूत्रों का कहना है कि यूनुस खान की गतिविधियों से संघ बुरी तरह खफा था, राजपाल शेखावत की सीट से आरएसएस अपने खेमे के प्रचारक को टिकट दिलवाना चाहता है, जबकि बाबूलाल वर्मा के प्रति स्थानीय नाराज़गी ही उन्हें ले डूबी। कालीचरण सर्राफ मौजूदा सरकार के सबसे चर्चित मंत्रियों में गिने जाते हैं, लेकिन तबादलों में उनके बेटों की संदिग्ध गतिविधियों ने सर्राफ की लुटिया डुबो दी। हेमसिंह भडाना और जसवंत सिंह यादव अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों की नाराजगी से ही टिकट से वंचित कर दिए गए।
सूत्रों का कहना है कि राजपाल सिंह शेखावत और कालीचरण सर्राफ की सर्वे रिपोर्ट ही उनको ले डूबी। राजपाल सिंह का नाम तो एन वक्त पर काट दिया गया। सूत्रों का कहना है कि समूचे मामले में भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अपनी बात पर अड़ा रहा कि,’इस बार चाहे किसी का भी टिकट काटना पड़े, लेकिन निर्वाचन क्षेत्र में तब्दीली नहीं की जाएगी। अभी भाजपा की दूसरी सूची जारी नहीं हुई है। लेकिन श्रीगंगानगर से भाजपा के मंत्री सुरेन्द्र पाल सिंह टीटी की सीट भी खतरे में बताई जाती है। पंचायत राजमंत्री धनसिंह रावत के सिर पर भी तलवार लटक रही है। सूत्रों का कहना है कि, रावत सांप्रदायिक मामलों में गलत बयानबाजी देकर फंस गए। हालांकि इससे पहले भी वे गलत बयानबाजी के कारण कई मौकों पर पार्टी को मुश्किल में डाल चुके हैं।
कांग्रेस की केन्द्रीय चुनाव समिति ने राजस्थान के 120 विधानसभा क्षेत्रों के प्रत्याशियों के नामों पर अंतिम मुहर लगा दी है। इनमें राज्य के दो पूर्व सांसदों समेत ज्यादातर मौजूदा विधायकों के नाम शामिल है। हालांकि स्क्रीनिंग कमेटी की अध्यक्ष शैलजा का कहना है कि, चुनाव समिति ने अभी सिर्फ प्रत्याशियों के नामों की चर्चा की है। अभी सूची को अंतिम रूप नहीं दिया है। अलबत्ता जिन नामों पर सहमति बनी है उनमें अशोक गहलोत, शांति धारीवाल, रघुवीर मीणा, आदि शामिल हैं। पार्टी सूत्रों का कहना है कि राजस्थान की स्क्रीनिंग कमेटी ने दो दिनों की मैराथन बैठक के बाद केन्द्रीय चुनाव समिति को 120 नामों की सूची भेजी थी। केन्द्रीय चुनाव समिति की राहुल गांधी की अध्यक्षता में ढाई घंटे लंबी चली बैठक में एकल पैनल वाली 120 सीटों पर मुहर लगा दी गई। लेकिन बीस सीटों ने कांग्रेस आलाकमान को दुविधा में डाल दिया है। यह नौबत स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट और कांग्रेस के सहप्रभारियों की रिपोर्ट में भारी अंतर से आई है। दुविधा की वजह सहप्रभारियों की ग्राउंड रिपोर्ट में कई पैराशूट प्रत्याशियों के अलावा आपराधिक आरोपों में फंसे लोगों की सिफारिश थी। सूत्रों के अनुसार ऐसे लोगों की संख्या 20 बताई गई थी। कांग्रेस नेतृत्व का मानना है कि, ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सहप्रभारी सचिवों से कराया गया आकलन का प्रयोग सफल नहीं रहा। इन्हें पहले तो बाहर का रास्ता दिखा दिया गया लेकिन बाद में विवाद के अंदेशे में वापस साथ ले लिया गया। राहुल गांधी ने एक बात पूरी तरह साफ कर दी है- युवाओं को तरजीह और हर जिले से एक महिला को टिकट।
उधर विश्लेषक सन्नी सेबेस्टियन का कहना है कि, सत्तारूढ पार्टी के उम्मीदवारों की पहली सूची साफ इशारा कर रही हे कि वह पूरी तरह वसुंधरा राजे के नेतृत्व पर निर्भर है और इसीलिए अपने सहयोगी रहे मौजूदा विधायकों पर ही दांव खेल रही है। जारी हुई 131 उम्मीदवारों की पहली सूची में 85 विधायकों को फिर से टिकट देना इस तर्क को और ताकत देता है कि केन्द्रीय नेतृत्व को वसुंधरा राजे पर भरोसा रखना पड़ रहा है। प्रश्न उठता है कि पार्टी अगर ऐसा नहीं करती तो क्या उसके पास उनके अतिरिक्त कोई विकल्प भी शेष था? सन्नी कहते हैं, सूची की महत्वपूर्ण बात यह रही कि इसके आरएसएस का खास दखल रहा नतीजतन संघ के 25 नए चेहरों को टिकट दिया गया। इनमें केवल तेरह महिलाएं हैं और मुस्लिम एक भी नहीं है। एक मुस्लिम विधायक हबीबुर्रहमान का तो टिकट ही काट दिया गया। सन्नी कहते हैं, ‘क्या भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने बिल्कुल ही आशा छोड़ दी है, अन्यथा खराब आचरण और भ्रष्टाचार में लिप्त वर्तमान विधायकों और मंत्रियों को फिर से टिकट देने का फैसला क्यों किया गया? विश्लेषक कहते हैं कि,’हो सकता है कुछ लोगों को लगे कि राजे और संघ परिवार मिल कर जीत दिला सकते हैं।
सियासी विरासत की चर्चा
मारवाड़ से एक बहुचर्चित मानी जाने वाली ओसियां विधानसभा क्षेत्र से पूर्व मंत्री भंवरी सेक्स प्रकरण में यहां की जेल में बंद महिपाल मदेरणा की पत्नी लीला मदेरणा इस बार विधानसभा चुनाव लडऩे की कोश्शि में है। इनकी पुत्री दिव्या मदेरणा ने इसकी पुष्टि की है।ं पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का पुत्र वैभव गहलोत भी राजनीति की राह पर चलने को आतुर है, पर उनका जनाधार नहीं बन पा रहा है। अभी वह प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री पद पर है। अगर पूरे राजस्थान के कई प्रतिष्ठित राजनेताओं के परिवार पर नजर डालें तो राजनीति की फिसलन भरी रपटीली राह पर इनके वंशज कुछ उभरे तो कुछ फिसल कर शून्य हो गए। कुछ गिने-चुने राजनीतिक परिवार ऐसे हैं जिनमें बेटियो ंने अपना दमखम दिखाया।
कांग्रेस ने अपने समय के कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे व प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके रामनारायण चौधरी की बेटी रीटा मंडाया विधानसभा क्षेत्र में पिता की विरासत संभाल चुकी है। जमींदारा पार्टी की विधायिका कामिनी जिंदल अपनी पार्टी का अलग परचम लहरा रही है। ऐसे कुछ नेता पुत्र भी है जो अपने पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए विधानसभा चुनाव में टिकट हासिल करने की कोशिशों में जुटे हैं। रतनगढ़ से विधायक व उपमुख्यमंत्री रहे हरिशंकर भाभड़ा के पुत्र सुरेन्द्र भाभड़ा भी टिकट के दावेदार हैं? जयपुर से छह बार सांसद रहे और जनजन के लाल गिरधारी लाल के नाम से अपनी पहचान रखने वाले गिरधारी लाल भार्गव के पुत्र मनोज भार्गव भी टिकट की दावेदारी में है। भाजपा के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष रघुवीर सिंह कोैशल के पुत्र अतुल कौशल, ललित किशोर चतुर्वेदी के पुत्र लोकेश भी टिकट की कतार में है। भैरोसिंह शेखावत के नाती भी विद्याधर नगर से टिकट के दावेदार हैं। कुछ राजनीतिक परिवार ऐसे हैं जिन्होंने प्रदेश की राजनति में वर्चस्व तो रखा लेकिन उनकी दूसरी पीढ़ी राजनीति में सफल नहीं हो पाई। नागौर जिले के खौबरार क्षेत्र से लोकदल और जनता दल से विधायक रहे चैधरी गंगाराम के पुत्र हनुमान बेनीवाल अपनी पारिवारिक राजनैतिक विरासत को संभाले हुए है। भानू प्रकाश शास्त्री, गुलाबचंद कटारिया, शिव किशोर सनाढय सहित अनेक ऐसे दिग्गज है जिनकी दूसरी पीढ़ी राजनीति से कोसों दूर हेै। पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाडिय़ा के पुत्र ने राजनीति में आने की कोशिश की पर पार नहीं पड़ी। ऐसे ही राज्य की राजनीति में वर्षों तक अपना परचम लहराने वाले मोहनलाल सुखाडिय़ा, टीकाराम पालीवाल, रामकिशोर व्यास, बरकतुल्ला खां का परिवार राजनीति में आगे नहीं बढ़ पाया। जोधपुर में तो इनके नाम पर भव्य स्टेडियम तक बना हुआ है।
कुछ उभरे, कुछ दो-चार कदम बढ़े पर फिसल गए। प्रदेश कांगेस अध्यक्ष सचिन पायलट के माता-पिता सांसद रह चुके हैं। इसी प्रकार भरतपुर राजघराने के विश्वेन्द्र सिंह के पिता भी सांसद रह चुके हैं। नटवर सिंह के पुत्र जगतसिंह राजनीति में फिट हो गए। एक बार कांग्रेस से तो दूसरी बार भाजपा से विधायक बन चुके। ऐसे ही बाड़मेर से गंगाराम चैधरी की पोैत्री भी राजनीति में दांव लगा चुकी पर सफलता नहीं मिल पाई। जबकि दूसरी और प्रताप सिंघवी ने अपने पिता चन्द्र प्रकाश सिंघवी की राजनीतिक विरासत को संभाला है। सिंघवी छबड़ा से विधायक चह चुके हैं। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के समय भैरोसिंह शेखावत राज्य विधानसभा के सदस्य नहीं थे। उनके लिए चंद्रप्रकाश सिंघवी ने ही छबड़ा की सीट खाली की थी। बात करें गंगानगर की तो बेगाराम के पुत्र निहालचंद मेघवाल भी पिता की विरासत संभाले हुए है। बेगाराम लोकदल और जनता दल से सांसद बने पुत्र निहालचंद सांसद भी बने, विधायक बने, भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेशाध्यक्ष बनने के साथ-साथ मोदी सरकार के मंत्री भी बने। ऐसे ही कई नेता पुत्र अपने पिता की विरासत संभालने को आतुर है।
लगभग सभी बड़े दलों की सीढिय़ां चढ़कर उतर चुके चन्द्रराज सिंघवी की राजनीतिक विरासत को संभालने में इनके परिवार को दिलचस्पी नहीं है। सांसद तथा इंदिरा गांधी के विश्वस्त रहे भुवनेश चतुर्वेदी, कृष्ण कुमार गोयल, रामकिशन वर्मा, शांती धारीवाल, हरिकुमार ओदिच्य, भैरवलाल काला बादल सहित करीब 37 पूर्व मंत्री, पार्टियों, स्वायत्त शासी निगमों आदि के अध्यक्षों की राजनीतिक विरासत में कोई चेहरा दमदारी से नहीं उभरा।
इस बार के विधानसभा चुनावों में कुछ ऐसे दावेदार निपट सकते हेैं जो राजनीति में सिर्फ हवाई उड़ाने भरते हैं तो कुछ की किस्मत साथ दे सकती है। जोधपुर में ओसियां विधानसभा क्षेत्र में धाक जमाये मंत्री रहे नरेन्द्र सिंह भाटी का परिवार राजनीति में शून्य है तो यहां के पूर्व राजघराने के परिवार में कोई सक्रियता, कोई राजनीतिक दावेदारी नजर नहीं आती। अशोक गहलोत के करीबी जुगल काबरा, मानसिंह देवड़ा दिवंगत हो चुके हैं। जवाहर सुराणा गहलोत के विश्वस्त रहकर भी कोई विशेष पद, लाभ हासिल किये बगैर ही चल बसे। अब देखना यह है कि कौनसा युवा नेता अपने खानदान की राजनैतिक विरासत की मशाल को जलाए रख सकेगा।