भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में इन दिनों अंदरख़ाने बड़ी खलबली मची हुई है। दरअसल यह खलबली अपने ही नेताओं को किनारे लगाने की कोशिश को लेकर मची हुई है। आमतौर पर इन दिनों यह चर्चा हर जगह छिड़ी हुई है कि भाजपा की सबसे जोड़ी और केंद्र की सत्ता की भी सबसे मज़बूत जोड़ी यानी प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह विपक्षी नेताओं को जेल में डालना चाहते हैं। लेकिन एक और बड़ी जानकारी कथित तौर पर भाजपा और संघ के ही लोगों के बीच से छनकर बाहर आ रही है और वो यह है कि भाजपा और देश की सत्ता में सबसे ऊपर बैठी यह सबसे ताक़तवर जोड़ी अपनी ही पार्टी के उन नेताओं को नहीं पनपने देना चाहती, जिनका रुतबा बढ़ रहा है। यह बात भले ही चौंकाने वाली लग रही होगी; लेकिन इसकी सच्चाई भाजपा के अंदर पड़ी दरारों को ध्यान से देखने और भाजपा नेताओं के बीच की कड़वाहट का गहनता से अध्ययन करने करने बाद साफ़-साफ़ नज़र आने लगती है।
दरअसल यहाँ मेरा इशारा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ओर है, जिनका क़द और रुतबा रात-दिन बढ़ता जा रहा है। भाजपा और संघ के कथित सूत्रों की मानें, तो 3 दिसंबर को पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आने के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पर कतरे जा सकते हैं। हैरत की बात यह है कि गुजरात के बाद भाजपा का सबसे मज़बूत गढ़ उत्तर प्रदेश है, जिसके दम पर केंद्र की सत्ता किसी भी पार्टी को हासिल होती है। भाजपा भी उत्तर प्रदेश के दम पर केंद्र है। ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जब लोकसभा चुनाव लडक़र केंद्र की सत्ता में आना चाहते थे, तब उन्होंने उत्तर प्रदेश के पौराणिक शहर वाराणसी को अपना चुनाव क्षेत्र चुना, जिससे केंद्र की सत्ता तक पहुँच सकें; और वह पहुँचे भी। लेकिन ऐसी चर्चा कहीं-न-कहीं अंदरख़ाने कानाफूसी के तौर पर चल रही है कि आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी पहले से लोकसभा के सदस्य हैं; गुजरात की जोड़ी को किसी काँटे की तरह खटकने लगे हैं। यह तब हो रहा है, जब योगी आदित्यनाथ के कंधे पर उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव जिताने का दारोमदार रखा गया है और वह इसके लिए भरपूर मेहनत भी कर रहे हैं।
सूत्र बता रहे हैं कि मोदी-शाह को योगी आदित्यनाथ न सिर्फ़ एक ख़तरे के तौर पर दिख रहे हैं, बल्कि उनका यक़ीन योगी आदित्यनाथ पर से ख़त्म हो गया है और नियंत्रण भी कम होता जा रहा है। आपको याद दिला दें कि गुजरात की इस बड़ी जोड़ी, जिसकी वजह से कहीं-न-कहीं भाजपा केंद्र की सत्ता में आ सकी है; उसके और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच पहले भी अंदरख़ाने टकराव होता रहा है और इसके बाद कई बार सुलह-समझौते भी हुए हैं। लेकिन मुझे लगता है कि मोदी-शाह को योगी आदित्यनाथ से वैसे कोई दिक्क़त नहीं है; लेकिन उनके बढ़ते क़द को लेकर कहीं-न-कहीं दिक्क़त है। क्योंकि यह बात पिछले कई साल से हो रही है कि योगी आदित्यनाथ भविष्य में प्रधानमंत्री बनेंगे। शायद यही बात मोदी-शाह को परेशान कर रही हो? हालाँकि यह बात योगी के समर्थकों की ओर से आगे बढ़ी है; क्योंकि अभी तक उन्होंने इस बारे में न तो कुछ कहा है और न ही ऐसी कोई इच्छा अभी तक ज़ाहिर की है। लेकिन इसके बावजूद अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के निशाने पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, तो इसका मतलब यह भी है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए आने वाले समय में मुश्किलें खड़ी होंगी।
बिहार में नीतीश कुमार की मास्टर स्ट्रोक कही जाने वाली जातीय जनगणना के आधार पर माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भी पिछड़ों और दलितों की संख्या तक़रीबन 60 से 65 फ़ीसदी ही है। ऐसे में आलाकमान ने पिछड़ी जाति से आने वाले केशव मौर्य को इशारा कर दिया है कि वह प्रदेश में ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ के आधार पर माहौल बनाकर माँग उठाएँ कि मुख्यमंत्री भी पिछड़ा होना चाहिए। जानकारों का मानना है कि इसी रणनीति के तहत पिछले दिनों मुख्यमंत्री योगी द्वारा अयोध्या में बुलायी गयी मंत्रिमंडल की बैठक से केशव प्रसाद मौर्य नदारद रहे। इसके अलावा कई कार्यक्रमों और बैठकों से भी केशव मौर्य का नदारद रहना जताता है कि उन्हें कहीं-न-कहीं दिल्ली से इशारा कर दिया गया है।
सवाल यह है कि क्या मोदी-शाह की जोड़ी योगी आदित्यनाथ को किनारे लगाकर 2024 में वो लक्ष्य हासिल कर सकेगी, जो ख़ुद भाजपा के दिग्गज नेता ऐलान कर चुके हैं? यानी क्या भाजपा 2024 में 400 से ज़्यादा लोकसभा सीटें जीतने का लक्ष्य हासिल कर सकेगी? क्या योगी को किनारे करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश फ़तह कर पाएँगे? क्या वह ख़ुद भी 2024 में अपनी वाराणसी सीट से जीत हासिल कर सकेंगे? क्या योगी आदित्यनाथ से भी क़द्दावर और चर्चित कोई दूसरा चेहरा ऐसा है उत्तर प्रदेश में, जो योगी आदित्यनाथ की जगह ले सके? ऐसे ही कई सवाल अब उठने लगे हैं।
दरअसल कहा यह जा रहा है कि 3 दिसंबर के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद से हटाने की तैयारी दिल्ली दरबार यानी मोदी-शाह के द्वारा की जा रही है। अगर यह बात सच है, तो सवाल उठता है कि योगी आदित्यनाथ की भूमिका क्या रहेगी? दरअसल ऐसी चर्चा है कि अगर पाँच राज्यों यानी राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं आये या जैसा कि आमतौर पर कहा जाने लगा है कि भाजपा के हाथ राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना तो आने वाले ही नहीं हैं, बल्कि भाजपा के हाथ से मध्य प्रदेश, मिजोरम भी खिसक रहे हैं। माना जा रहा है कि अगर भाजपा की इन पाँचों राज्यों में हार होती है, तो फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी अपनी ताक़त बढ़ाने की कोशिश उत्तर प्रदेश में और उत्तर प्रदेश के बाहर करेंगे, और वह प्रदेश में अपने मनपसंद अधिकारियों को बड़े पदों पर नियुक्त करेंगे और अपने मनपसंद विधायकों को प्रदेश मंत्रिमंडल में जगह देंगे। और यही मोदी-शाह यानी केंद्रीय सत्ता की ताक़तवर जोड़ी नहीं चाहती। हो सकता है कि मुख्यमंत्री योगी के अपनी ताक़त का इस्तेमाल करने पर उन्हें कमज़ोर करने की कोशिश होने लगे, जिसके लिए सबसे पहला लक्ष्य उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर कमज़ोर करना हो सकता है।
राजनीति के कुछ जानकार मानते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हिन्दुओं के सबसे पसंदीदा यानी ब्रांड नेता बन चुके हैं, और उनके समर्थक उन्हें हिन्दू सम्राट कहने लगे हैं और उनकी यही छवि उनके लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन रही है। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी के बाद योगी के नाम के नारे दूसरे प्रदेशों में भी लोग लगाने लगे हैं और यह बात भी कहीं-न-कहीं केंद्रीय जोड़ी को खटकने लगी है। कहा जा रहा है कि भले ही पिछले छ: वर्षों से योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हुए हैं; लेकिन वहाँ नियुक्तियाँ और तबादले अमूमन मोदी-शाह की जोड़ी के मन मुताबिक ही होते रहे हैं। चाहे वो अधिकारियों की नियुक्ति का मामला हो या फिर उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में मंत्रियों के गठन का मामला हो।
ग़ौरतलब है कि कई अधिकारियों की तैनाती में योगी और केंद्रीय जोड़ी में तनातनी भी बनी रही, क्योंकि जिस अधिकारी को योगी पसंद करते थे, उसे केंद्र की तरफ़ रिजेक्ट कर दिया जाता था और जिसे केंद्र सरकार नियुक्त करना चाहती थी, उसे योगी आदित्यनाथ पसंद नहीं करते थे, जिसके चलते काफ़ी समय तक अंदरख़ाने तनातनी का दौर चला है। और ये वाक़िया कोई एक बार नहीं, कई-कई बार सामने आया है; लेकिन इसकी चर्चा मीडिया में नहीं हुई। ज़ाहिर है मामला यहीं नहीं थमा, बात इतनी बढ़ी कि केंद्रीय जोड़ी ने उन लोगों को भी एनडीए का हिस्सा बनाया, जिन्हें योगी आदित्यनाथ पसंद नहीं करते थे, और शायद आज भी नहीं करते हैं।
बहरहाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से केंद्रीय नेताओं यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की नाराज़गी उत्तर प्रदेश की घोसी विधानसभा के उपचुनाव में मिली करारी हार के बाद और बढ़ गयी है। क्योंकि इस सीट को जीतने के लिए भाजपा ने साम, दाम, दंड और भेद के सारे हथकंडे अपनाये। इस एक सीट को जीतने के लिए केंद्र और उत्तर प्रदेश के दर्ज़नों मंत्री डेरा डाले पड़े रहे। हज़ार से ज़्यादा कार्यकर्ता चुनाव की जीत के लिए लगाये गये और हैरत की बात है कि कथित तौर पर इस एक सीट के लिए 25 से 30 करोड़ रुपये ख़र्च किये गये। सपा नेता को तोडक़र टिकट दिया गया। लेकिन बावजूद इसके भाजपा को इस सीट से हार का मुँह देखना पड़ा और इस बड़ी हार से भाजपा की केंद्रीय जोड़ी को दोहरा झटका लगा है। वहीं योगी आदित्यनाथ अब अपने मंत्रिमंडल के विस्तार को रोके हुए हैं और इस विस्तार में केंद्रीय जोड़ी के हिसाब से जिन लोगों को शामिल किये जाने का लक्ष्य था, उन्हें यह कहकर मुख्यमंत्री योगी ने रोक दिया है कि वे दा$गी चेहरों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करेंगे। इसका असर केंद्रीय जोड़ी पर जितना पड़ा, उतना ही उन विधायकों पर पड़ा, जो मंत्री बनने का सपना लिये बैठे हैं; ख़ासतौर पर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर पर पड़ा और उन्होंने एनडीए को छोडऩे की इशारे-इशारे में धमकी दे डाली। उन्होंने योगी आदित्यनाथ को इशारे-इशारे में निशाना बना डाला।
बहरहाल देखना यह है कि क्या इंडिया गठबंधन में फूट की बात करके मज़ाक़ उड़ाने वाली भाजपा अपने नेताओं की आपसी फूट पर परदा डाल पाएगी? क्या भाजपा के सबसे मज़बूत नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह एनडीए के गठबंधन में आ रही दरारों को समय रहते भर पाएँगे? क्या वह अपने मज़बूत नेताओं, ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भरोसा दिखाते हुए 2024 के लोकसभा चुनावों में उन्हें पूरी छूट देकर चुनाव प्रचार करने का मौ$का देंगे? क्या योगी आदित्यनाथ के बढ़ते क़द का यह केंद्रीय जोड़ी 2024 के लोकसभा चुनावों में लाभ लेने का प्रयास करेगी? या फिर उनके पर कतरकर अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम करेगी? साथ ही भाजपा में अंदरख़ाने पड़ी इस फूट का 2024 के लोकसभा चुनावों पर क्या कुछ असर होगा? इन सब सवालों का जवाब आने वाले 3 दिसंबर के बाद ही मिल सकेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)