पश्चिम बंगाल (बंगाल) की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता के परेड ग्राउंड मैदान में अपनी ताकत एक महारैली में प्रदर्शित की थी। इसमें 20 राजनीतिक दल ने भाग लिया था। फिर जब वे धरने पर बैठीं तो भी विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने उनका साथ दिया। इससे यह संदेह तो पूरे देश में गया कि वे राजनीति में सक्रिय ज़रूर हैं। सवाल यह है कि क्या वे नरेंद्र मोदी को शिकस्त दे सकेंगी। जिनके बारे में चुनाव पूर्व आएं सर्वे-क्षणों में बताया गया है कि विपक्ष के तमाम नेताओं में मोदी ही देश में सबसे बड़े जिताऊ नेता हैं। कोई भी महागठबंधन उन्हेें या भाजपा नेतृत्व के गठबंधन को परास्त नहीं कर सकता।
दूसरी सोच है कि देश में राजनीतिक तौर पर सक्रिय ममता बनर्जी, बसपा सुप्रीमो मायावती और कांग्रेस की ओर से प्रियंका गांधी वाड्रा मिल कर देश का राजनीतिक परिदृश्य बदल सकती हैं। ये तीनों यदि एक साथ हुई तो नरेंद्र मोदी को अप्रैल मई में होने वाले लोकसभा चुनाव में विजय श्री सहज हासिल नहीं होगी। ममता बनर्जी को यह श्रेय हासिल है कि उन्होंने पश्चिम बंगाल में 35 साल से चल रहे वाममोर्चा राज को समाप्त किया था। उन्हें राजनीति में देश में धर्मनिरपेक्ष नेता और राजनीतिक तौर पर मंजा हुआ खिलाड़ी माना जाता है।
उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती को 2014 के आम चुनाव में कोई कामयाबी तो नहीं मिली लेकिन अभी हाल ही में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उन्होंने खुद को ऐसे नेता के सपने ज़रूर जताया जिसे नकारा नहीं जा सकता। कहा जाता है कि मायावती प्रधानमंत्री पद की दावेदार हो सकती हैं। उनकी पार्टी बसपा का प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से गठजोड़ भी हो गया है। जिससे भाजपा संशय में है लेकिन उसे राहत इस बात से है कि चुनाव मैदान में कांग्रेस अलग है तो उसकी जीत की संभावना बढ़ती है। फिर समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उपयुक्त नहीं मानते। उत्तरप्रदेश के चुनाव मैदान में अब राहुल, प्रियंका और ज्योतिआदित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस अलग से उतर रही है। इससे उत्तरप्रदेश में चुनावी जंग काफी दिलचस्प है।
मायावती की पार्टी बसपा ने अपने दम पर मध्यप्रदेश, राजस्थान में चुनावी जंग में हिस्सा लिया जबकि छत्तीसगढ़ में उन्होंने अजित जोगी के साथ सहयोग किया। मायावती ने कर्नाटक में गौंडा और हरियाणा में चौटाला की इंडिया नेशनल लोकदल से गठजोड़ किया। इसी तरह उत्तरप्रदेश में दो सीटें कांगे्रस और दो सीटें अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के लिए छोडऩे की सहमति बनाई। इससे कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में अकेले ही चुनाव लडऩे का संकल्प किया। यानी उत्तरप्रदेश में भाजपा का मुकाबला अब राहुल बनाम मोदी नहीं बल्कि अखिलेश-मायावती और राहुल-प्रियंका से है। भाजपा ने अपनी जीत के इरादे से ऊँची जातियों के गरीब युवाओं जिनकी सालाना आमदनी आठ लाख रु पए हो। उनके लिए नौकरीयों में दस फीसद आरक्षण की व्यवस्था की है। साथ ही गरीब युवाओं की शिक्षा में कजऱ् की व्यवस्था की है। इस बंदोबस्त का विरोध एक भी विपक्षी पार्टी भी नहीं कर सकी। चुनाव में इससे इनमें बेचैनी भी है।
मायावती जब 2007 में सत्ता में आई थीं तो उन्होंने ऊँची जातियों के गरीब युवाओं के लिए अरक्षण की मांग की थी। तब वे सर्ववर्ग सर्वधर्म सहयोग से जीती भी थीं। अब राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि यदि उत्तरप्रदेश चुनाव में सपा-बसपा गठजोड़ कामयाब रहता है तो दिल्ली में प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम पर सपा सहयोग दे सकती हैं। अखिलेश तब उत्तरप्रदेश में कमान संभालेंगे। इस गठबंधन की विधानसभा सीटें 2017 में एनडीए के मुकाबले में अस्सी संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में 57 तक होती हैं।
प्रियंका गांधी वाड्रा ने जनवरी में उत्तरप्रदेश में भूमिका निभाने पर सहमति तब दी जब कांगे्रस ने उन्हें जिम्मेदारी का पद दिया। ‘तहलका’ ने अपने संपादकीय में तब राजनीतिक क्षेत्र में उनकी सक्रियता के बारे में लिखा था और राहुल गांधी की इस बात को भी अहमियत दी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि राज्य में कांग्रेस कहीं भी पीछे नहीं रहेंगी। खुद कांगे्रस काफी पुरानी पार्टी है लेकिन इंदिरा गांधी से प्रियंका गांधी के चेहरे की साम्यता का उपयाग कांग्रेस इस चुनाव में करेगी। राहुल ने पिछले दिनों अपनी स्थिति में खासा सुधार कर लिया लेकिन पार्टी में अभी भी वह क्षमता नहीं दिखती जिसके बल पर वह पिछले चुनावों में जीत हासिल करती थी। उस कमी को दूर करने में प्रियंका भी अब कांग्रेस को मजबूत करेंगी।
उत्तरप्रदेश में कांग्रेस द्वारा प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तरप्रदेश में सचिव बनाने और पश्चिम उत्तरप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के सचिव बनाने पर भाजपा के नेताओं में खासी घबराहट हुई। विभिन्न नेताओं ने तरह-तरह की टिप्पणियां करके अपनी बेचैनी का इजहार किया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह ने सेवानिवृत फौजियों की ओआर, ओपी यानी वन टैंक, वन पेंशन की मांग को ‘ओनली मोदी, ओन्ली प्रियंका’ बता कर अपनी खीझ मिटाई। उनकी इस मनोदशा पर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला ने टिप्पणी की कि यह ‘ओनली मोदी, ओनली शाह’ का ओडोमस ओवरडोज का असर है।
अब यह साफ हो गया है कि उत्तरप्रदेश चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस सचिव प्रियंका को खासा मुकाबला करना है। एक तरफ तो मोदी-शाह-योगी से और दूसरी ओर सपा-बसपा-रालोद से। एक तरह से प्रियंका को राजनीति की अग्निपरीक्षा से गुज़रना पड़ेगा। हालांकि उनके आने की खबर से भाजपा में नेताओं और कार्यकर्ताओं की हवाइयां उड़ रही हैं और दूसरी तरफ मायावती-अखिलेश शिविरों में भी सन्नाटा पसारा हुआ है।
प्रियंका के सामने सबसे बड़ी परेशानी है कि उत्तरप्रदेश में अर्से से कांग्रेस संगठन और उसके स्थानीय नेताओं में आराम करने की आदत पड़ गई है। अब उन्हें सक्रिय करना और उत्साही कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलना प्रियंका की जिम्मेदारी में आ गया है। कार्यकर्ताओं में खुशी बढ़ी है। उन्हें लगता है कि कांगे्रस मजबूत होगी तो उन्हें भी उसका समुचित लाभ मिलेगा। प्रियंका का ब्राह्रमण कुल से होना भी कांग्रेस के लिए एक वरदान है। वे इस तबके को साथ लेकर चलेंगी। ठाकुरों का भी वोट उन्हें मिल सकता है। अल्पसंख्यक और दलित जो भाजपा राज में खासे परेशान रहे हैं उनका भी उन्हें साथ मिल सकता है। खुद महिला होने के नाते वे बड़ी तादाद में महिलाओं और नौजवानों को कांग्रेस के प्रति आकर्षित कर सकती हैं। पहले भी अमेठी, रायबरेली में वे अपने भाई और मां के लिए राजनीतिक तौर पर सक्रिय रही हैं।
कांग्रेस की राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा में विजय से साधारण पार्टी कार्यकर्त का उत्साह बहुत बढ़ा है जिसका लाभ प्रियंका लेे सकती हैं। राजनीति विचारकों का मानना है कि कांगे्रस को लोकसभा में कम से कम 120 से 150 सीट मिल सकती हैं। इसका मतलब यह हुआ कि विपक्षी दलों मे कांगे्रस प्रमुख विपक्षी दल तो रहेगा। भाजपा छोड़ चुके पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का मानना है कि एनडीए की तुलतना में विपक्ष के पास एक से एक समर्थ और ताकतवर महिला राजनेता हैं। वे सीधे मतदाताओं को भरोसे में लेते हुए देश की तस्वीर बदल सकती हैं। भाजपा की तो सत्ता में अब तीन राज्यों में पराज्य के बाद उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है।
राजनीति में सक्रिय नेता के रूप मे प्रियंका गांधी वाड्रा का आगमन मीडिया पर भी खासा असर डाल रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उनका नाक-नक्श मिलना भी 43 साल की युवा महिला की संभावनाओं का नया आकाश बनाता है। जमीनी स्तर पर अमेठी-रायबरेली में उनकी मतदाताओं के साथ संपर्क की तस्वीरें अब भी पूर्वी उत्तरप्रदेश में युवाओं और महिलाओं के मन में हैं जिसका लाभ उन्हें मिलेगा। राहुल गांधी का एक अच्छे प्रभावशाली वक्ता और रणनीति पर सबसे राय-मश्विरा करके अपना फैसला लेने की क्षमता की भी सराहना कांग्रेस में हो रही है। देखना है कि भाई बहन और बुआ-भतीजा आपस में मिल कर उत्तर प्रदेश आम चुनाव 2019 में क्या गुल खिलाते हैं।
मायावती के बारे में कहा जाता है कि उनके मतदाता उनसे हमसे जुड़े हुए हैं कि उनके इशारों पर इधर से उधर जाते हैं। पश्चिम बंगाल में तृणमूल की सुप्रीमो ममता बनर्जी के बारे में भी यहीं बात प्रचलित है। दोनों को ही महागठबंधन की सरकार बनने की स्थिति में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताया जा रहा है। मायावती इस इस समय 64 साल की है। राजनीति में सक्रिय होने के पहले वे अध्यापक भी। जबकि ममता बनर्जी भी लगभग उसी उम्र की हैं वे किशोर उम्र में ही लड़ाकू और राजनीति समझने वाली प्रतिभा बतौर उभरी। उन्होंने बंगाल की राजनीति में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। फिलहाल वे मुख्यमंत्री हैं।
बसपा प्रवक्ता सुधींद्र भदोरिया का कहना है कि मायावती अध्यापन छोडऩे के बाद जब राजनीति में आई तो उन्होंने पार्टी को धीरे-धीरे विकसित किया। पंजाब, दिल्ली और उत्तरप्रदेश में उन्होंने इसे एक पहचान दी। उन्होंने दलित महिलाओं और पुरु षों को एक जुट किया। उनके बड़े-बड़े शिविर लगाए। उन्हें उनके अधिकार बताए। दूसरी जातियों को भी उन्होंने साथ लिया जिनमें गरीब और अल्पसंख्यक थे। मायावती आज राष्ट्रीय नेता हैं।
ममता, मायावती और प्रियंका आज विपक्ष में हैं लेकिन मतदाताओं ने बहुत बड़े तबके पर इनका असर है। कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि 2019 के आम चुनाव में सत्ता किसे मिलेगी?