भाजपा की ऐतिहासिक जीत के क्या रहे कारण? जानना-समझना आसान नहीं!

जनता का फैसला जब आम चुनाव-2019 में कुछ साफ हुआ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, 'हम साथ बढ़ेंगे। हम साथ-साथ कामयाब होंगे। हम मिलकर एक साथ बनाएंगे एक मजबूत समावेशित भारत। फिर जीत रहा है भारत। विजयी भारत।’ इस ट्वीट से जाहिर था कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हार गए हैं और ब्रांड मोदी को मिली है बड़ी उछाल। कैसे हुआ यह सब? बता रहे हैं भारत हितैषी

ब्रांड मोदी की यह बड़ी कामयाबी है। अपने दम पर भाजपा ने इस बार फिर बहुमत से भी कहीं ज्य़ादा जनादेश हासिल किया। उधर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की हालत कुछ बेहतर ज़रूर जान पड़ती है। लेकिन भाजपा को मिली है अभूतपूर्व जीत। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और तृणमूल कांग्रेस की ओर से शासित पश्चिम बंगाल में अब कांग्र्रेस के खिलाफ हो रहे हैं कार्यकर्ता और नेता। ये उस पार्टी को छोडऩे के लिए बेताब हैं। ‘लापता है सांसद प्रचार तंत्र छेड़ा था स्मृति ईरानी ने और अमेठी की जनता ने उनकी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाई और वहां से सांसद रहे राहुल गांधी हार गए।

‘टाइम’ मैगज़ीन ने अपने मुखपृष्ठ पर मोदी को मुख्य विभाजनकर्ता (‘डिवाइडर इन चीफ’ ) कहा था। उसका कांग्रेस ने प्रचार किया। लेकिन वह असरदायक नहीं रहा। भाजपा का चुनाव आख्यान मुख्य तौर पर देश की सुरक्षा पर ही केंद्रित था। जनता को यही भाया भी दूसरी ओर विपक्ष बेरोज़गारी, महंगाई, राफेल विमान अािद मुद्दे उठा रहा था। उस पर जनता ने ध्यान नहीं दिया। ‘चौकीदार चोर है’ नारा जनता को रास नहीं आया।

वामपंथियों और कांग्रेसियों के बीच तालमेल का न हो पाना भाजपा के लिए बेहद मुफीद रहा। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने खूब लाभ कमाया। उधर केरल मेें सबरीमाला प्रकरण से कांग्रेस को लाभ हुआ। वाडनाड से राहुल गांधी जीत गए। कांग्रेस विजयी रही। लोकसभा की 542 सीट पर सात चरणों के चुनाव हुए। आठ हजार उम्मीदवारों ने अपना भाग्य आजमाया। पहली बार ईवीएम मशीनों से मिले मतों की पड़ताल वीवीपीएटी मशीनों से की गई। महीनों चले इस चुनाव प्रचार में राजनीतिक विरोधियों ने परस्पर खूब आरोप-प्रत्यारोप लगाए। भाजपा ने आक्रामक तरीके से राष्ट्रवाद की भावनाएं जनमानस में तेज कीं और पाकिस्तान के खिलाफ बालाकोट हवाई हमले का जम कर प्रचार प्रसार किया गया। उधर विपक्ष में राहुल गांधी जनता की निजी ज़रूरतें मसलन नौकरियों, कृषि मौतों, अर्थव्यवस्था पर मतदाता का ध्यान खींचते रहे। लेकिन ज्य़ादा लाभ नहीं हुआ।

पिछले दिसंबर में भाजपा के कब्जे से तीन राज्यों को कांग्रेस के छीन लेने पर भाजपा ने भरपूर तैयारी कर कांगे्रेस की मुश्किलें बढ़ा दीं। अब तो राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान लग गया हैं। जबकि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमितशाह उन गलतियो से सीख लेते हुए अपनी चुनावी रणनीति बनाने में जुटे रहे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में जो भूलें हुई थीं उन्होंने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विजय को देख कर 2004 में लोकसभा चुनाव ही समय से पहले करा लिए थे। वह बड़ी भूल थी। इस बार मोदी ने तीनों राज्यों में हुई भाजपा की पराजय का बदला सूद समेत ले लिया।

भाजपा में बैठे विचारकों ने ढेरों उपाय सुझाए मसलन किसानों को आमदनी पर समर्थन, आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को करों में राहत और जहां भी गड़बडिय़ां हैं उन्हें ठीक करने या ढांपे रखने की कवायद खूब प्रचार किया गया क्योंकि सरकार अपनी थी। किसानों के खाते में पैसे पहुंच गए। इसका खासा असर दिखा। किसानों में खुशी आई।

मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में जीत का कांग्रेस प्रमुख और शायद उनके संगठन में दूसरों ने गलत संदेश लिया कि उनकी लोकप्रियता बढ़ी है और वे कामयाब होते रहेंगे। हालांकि राहुल ने अपने राजनीतिक दौर में ज्य़ादातर समय कांग्रेस के धुंधले होते गए पदचिन्ह ही देखे हैं। आप भले इसके लिए उसके परिवार वंशवाद की नीतियों और उसके इर्द-गिर्द मौजूद लोगों को जिम्मेदार ठहराएं जो उसके कंधों पर नाकामी का ठीकरा फूटने नहीं देते। लेकिन उनकी राजनीतिक समझ पर हमेशा सवालिया निशान लगते रहे हैं। हालांकि जब नतीजे आने लगे तो पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने कहा कि राहुल गांधी को पार्टी की हार का जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए। बतौर नेता राहुल गांधी कितने राजनीतिक हैं इस पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुल कर बोलती रही हैं। उनकी छवि तीन राज्यों में जीत और गुजरात में थोड़ा बेहतर स्थिति बनने पर कुछ बनी। उन्हें लेकर बने भ्रम भी टूटे। लेकिन बाद में राहुल को यह भरोसा हो गया था कि वे मोदी को प्रधानमंत्री पद से मुक्त करा ले जाएगे। यही सोच कांग्रेस का नुकसान करा गई।

अपने पांच साल के कार्यकाल में मोदी ने कुछ खास क्षेत्रों में अपनी जबर्दस्त काबिलियत दिखाई है। उपभोक्ताओं को राहत दी। फसल के वाजिब दाम दिलवाने की घोषणा की। ग्रामीणों में जो खासा असंतोष था उसे कम किया। बेरोज़गारी के मुद्दे को विपक्ष उठाता ज़रूर रहा लेकिन इस पर कांग्रेस को वोट नहीं मिले। लड़ाकू राफेल जेट विमानों की खरीद में घपलों का मुद्दा दबाए रखने में पूरी भाजपा पार्टी, उसके सारे नेता और सरकार कामयाब रही। राहुल गांधी ने तो सुप्रीम कोर्ट में ही साबित किया कि वे पूरे मामले को नहीं समझ पाए हैं। एपेक्स कोर्ट में तो उन्होंने ‘चौकीदार चोर है’ पर माफी भी मांगी।

तुरूप के पत्ते बतौर कांग्रेस अध्यक्ष ने काफी देर में प्रियंका गांधी को चुनावी प्रचार में महासचिव बना कर उतारा। लेकन यह भी काम न आया। अपनी चुनावी रणनीति में कांगे्रस ने दो मूलभूत गड़बडिय़ां की। इसने मोदी की ताकत का आंकलन गलत किया। जिसका असर मतदाताओं पर नकारात्मक पड़ा। इसने जितनी ज्य़ादा मोदी की रणनीति की आलोचना की उतना ही भाजपा को लाभ हुआ।

कांगे्रस अपने मतदाताओं को लुभाने के लिए जो विचार बांट रही थी वह महज एक सपना था न्यूनतम आमदनी की गारंटी का। एक तो यह सपना लोगों तक देर में पहुंचा और फिर इसका तौर-तरीका ठीक से समझाया नहीं गया। ‘न्याय’ नाम से जो प्रचार किया वह भी लोगों तक नहीं पहुंचा। इसकी तुलना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता मैदान से शिखर तक पहुंचती रही।

राहुल गांधी के सलाहकार या उनके इर्दगिर्द के लोगों ने शायद यह समझाया कि भ्रष्ट मोदी नहीं है। राहुल को लगा कि यही बात उछाली जाए कि ‘चौकीदार चोर है।’ इसके बाद तो पूरी भाजपा ही चौकीदार बन गई। राहुल का प्रयोग इसलिए कामयाब नहीं हुआ क्योंकि राजनीति में जो ब्रांड मोदी गढ़ा गया था उसमें इस आरोप के ठहरने की गुंजाइश नहीं थी। मतदाता ब्रांड मोदी को 2014 से अपने सिर माथे लिए हुए हैं और यह कामयाब रहा। राहुल राफेल सौदे पर हुए घपले पर लगातार बोलते रहे लेकिन सुनने वालों नेकान नहीं दिया।

इतना ही नहीं, कांग्रेस और उसके नेताओं ने लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभों को भाजपा द्वारा ध्वस्त करने की बात तो कही लेकिन उसे भी मतदाताओं तक ठीक से समझा नहीं पाए। जनता ने उन्हें इस पर अपना समर्थन नहीं दिया। इसके बाद राहुल की यह नसमझी ही थी कि वे मानते रहे कि गांधी के नाम का जनता में आज कोई महत्व है। मोदी ने लगातार इसे खत्म किया। उन्होंने उसकी जगह ‘नामदार’ कहा। राहुल शायद यह नहीं समझे कि साढ़े चालीस करोड़ मतदाता जो पहली बार इस लोकसभा चुनाव में मतदान कर रहे हैं उन्हें उस वंश की शायद जानकारी भी नहीं है जिसने आज़ादी की कभी लड़ाई लड़ी और देश को दूसरे देशों के मुकाबले विभिन्न क्षेत्रों में खड़ा किया। खैर, वंश के चलते जीत की परंपरा इस बार टूटती दिखी हैं। इसमें अमेठी में राहुल की हार, मुलायम सिंह परिवार, पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा, अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल और हरियाणा के चौटाला। इससे यह ज़रूर साफ हुआ कि कठिन परिश्रम और सोच और सपनों से ही राजनीति में कामयाबी संभव है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में राजीव गांधी को ‘भ्रष्टाचारी नंबर वन’ कहा। कांग्रेस ने इसका विरोध किया। राहुल और प्रियंका ने राजीव गांधी के आत्मबलिदान की याद जनता को कराई। लेकिन यह सब मतदाताओं तक नहीं पहुंचा। भाजपा के विचारकों ने गांधी परिवार को भ्रष्ट करार देने में कामयाबी पाई। कांग्रेस ज़मीनी सच्चाई, जमींदारी सोच और लापरवाही से उबर नहीं पाई। जबकि भाजपा ने जता दिया कि वह जमीनी पार्टी है। इसका और संघ परिवार का देश में जन-जन के घर में पहुंच है। इसका विशाल कार्यकर्ता गठन है। इस सारी बात को कांग्रेस और सहयोगी विपक्ष को जानना समझना होगा। अब लफ्फाजी नहीं।