झारखंड में भाजपा नेतृत्व का गठबंधन ज़्यादा कारगर हो सकता है। यहां पर तिकोनी चुनावी मुकाबले की दश उभर रही है। इससे भाजपा को लाभ होने के आसार हैं।
हालांकि कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड विकास मोर्चा और राष्ट्रीय जनता दल का गठबंधन मोटे तौर पर बना लग रहा है। इनमे यहां राज्य की 14 सीटों पर खींचतान है, लेकिन नेताओं को भरोसा है कि वे इसे सुलझा लेंगे। कांग्रेस के नेतृत्व वाले इस गठबंधन को 2004 में 14 में से 13 सीटें मिली थीं। सवाल आज यही है कि क्या वैसा चमत्कार 2019 में संभव है?
तब से अब में फर्क यह है कि तब बाबू लाल मिरांडी भाजपा में थे और वे ही तब जीते भी थे। इस बार उनके ही कारण पेंच आया है। उनकी मांग दो सीटों की है। इनमें एक सीट है गोड्डा की । उनकी पार्टी के दूसरे नंबर के नेता प्रदीप यादव वहां से विधायक हैं। वे लंबे समय से वहां जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। अडानी पावर प्रोजेक्ट के खिलाफ आंदोलन में वह छह महीने जेल में भी रहे। दूसरी ओर कांग्रेस के पास पूरे प्रदेश में यही एक सीट है जहंा से किसी मुस्लिम उम्मीदवार को लड़ाया जा सकता है। कांग्रेस के पूर्व सांसद फुरकाम अंसारी को इस सीट से लड़ाना चाहती है। लेकिन मरांडी का तर्क है कि ध्रुवीकरण में अंसारी चुनाव हार जाएंगे इसलिए उन्हें राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव बेहतर होगा। उधर राजद की भी दो सीटों की मांग है। पर आसार यही है कि एक सीट पर सहमति बन जाए। गठबंधन में विवाद संथाल परगना के दो कद्दावर नेताओं को उनके अंह को लेकर भी है। दोनों में ही एक दूसरे को नेता मानना सहज नहीं है। गठबंधन में खीचतान की एक वजह यह भी है।
चुनावी विश्लेषणों का मानना है कि यदि गठबंधन में तनातनी बदली बिखराव में तो इसका असर खासा व्यापक होगा। यदि जेएमएम अलग होती है तो उसके साथ ही राजद भी चली जाएगी। इसके पीछे यह तर्क है कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद जेएमएम के साथ अच्छे संबंधों को बनाए रखना चाहते हैं। क्योंकि फिलहाल वे जेल में हैं और यदि सत्ता में जेएमएम किसी भी तौर रहे तो उससे लाभ हो सकता है।
ऐसे में यदि जेएमएम और राजद एक साथ हुए तो भाजपा को छोड़कर आजसू का तालमेल कांग्रेस और जेवीएम से हो सकता है। राज्य में लड़ाई तब तिकोनी होगी। इसका लाभ भाजपा को होगा। तिकोनी लड़ाई में उसका फायदा ही फायदा है।