भाजपा-कांग्रेसः आवाज 2 हम 1

 

स्वीडन के पूर्व पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्टोर्म ने बोफोर्स मामले में तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को पत्र लिखकर फरवरी, 2004 में ही सब कुछ बता दिया था. मगर उनके हालिया बयान पर हो-हल्ला करने वाली भाजपा ने तब इस पर कुछ नहीं किया. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट

स्वीडन में बोफोर्स मामले की जांच करने वाले और स्वीडन पुलिस के प्रमुख रहे स्टेन लिंडस्टोर्म ने बीते दिनों जब एक साक्षात्कार दिया तो बोफोर्स का मसला एक बार फिर संसद और मीडिया में जोर-शोर से उठा. मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने संसद में इस मामले को बड़ी मजबूती से उठाया और नए सिरे से पूरे मामले की जांच कराने की मांग की. लेकिन कम लोगों को पता है कि लिंडस्टोर्म ने जो बात अपने साक्षात्कार में कही हैं, वही बात उन्होंने देश के रक्षा मंत्री रहे जॉर्ज फर्नांडिस को फरवरी, 2004 में ही पत्र लिखकर बताई थीं. इसके बावजूद इस मसले पर कोई कार्रवाई नहीं की गई.

इस मामले की जांच से संबंधित तथ्य और घटनाक्रम बताते हैं कि देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस मामले की तह तक जाकर दूध का दूध और पानी का पानी करने की बजाए अपनी सुविधानुसार इसके सियासी इस्तेमाल को तरजीह दी. इस मसले के सियासी इस्तेमाल को समझने के लिए 4 फरवरी, 2004 के बाद के घटनाक्रम को जानना और समझना जरूरी है. यह वही तारीख है जिस दिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने बोफोर्स मामले में आरोपित सभी अभियुक्तों को घूस और भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त कर दिया था. इनमें इस घोटाले का मुख्य किरदार माना जाने वाला ओतावियो क्वात्रोकी भी शामिल था.

जिस दिन दिल्ली उच्च न्यायालय का बोफोर्स के अभियुक्तों को आरोपों से बरी करने का फैसला आया, उसके हफ्ते भर के अंदर ही उस समय के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस के पास एक पत्र आया. यह पत्र लिखा था स्टेन लिंडस्टोर्म ने. लिंडस्टोर्म स्वीडन पुलिस के प्रमुख रहे हैं और उनकी अगुवाई में ही स्वीडन में बोफोर्स मामले की जांच हुई थी. लिंडस्टोर्म ने फर्नांडिस को भेजे अपने पत्र में साफ-साफ और काफी विस्तार में लिखा कि बोफोर्स मामले की जांच में किस तरह से उनके साथ असहयोग किया गया और किस तरह से बड़े-बड़े नामों पर इस मामले में शामिल होने के संदेह की सुई घूमती है.

उस वक्त जॉर्ज फर्नांडिस एक ऐसे गठबंधन वाली केंद्र सरकार के रक्षा मंत्री थे जिसकी सियासत का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के विरोध पर टिका था. इसलिए लिंडस्टोर्म को उम्मीद थी कि वे और उनकी सरकार इस मामले से रहस्य का पर्दा उठाना चाहेंगे ही. लेकिन इस पत्र के बावजूद उस वक्त जॉर्ज फर्नांडिस ने इस मामले में कुछ नहीं किया और चुप्पी साध ली. बोफोर्स मामले में कांग्रेस कुछ नहीं करे, यह तो सबकी समझ में आता है क्योंकि इस घोटाले के आरोपों के छींटे उसके प्रथम परिवार के दामन पर भी हैं. लेकिन इस पर भाजपा की अगुवाई वाली सरकार की चुप्पी हैरान करने वाली थी.

सवाल यह उठता है कि आखिर फर्नांडिस ने रक्षा मंत्री रहते हुए उस वक्त कुछ क्यों नहीं किया? इसका जवाब आया तीन साल बाद. 11 मार्च, 2007 को दिए एक साक्षात्कार में फर्नांडिस ने कहा कि वाजपेयी ने उन्हें बोफोर्स मामले को छूने से मना किया था. फर्नांडिस के करीबी सहयोगी रहे एक सज्जन इसके आगे-पीछे की बात को समझाते हुए बताते हैं, ‘जब फर्नांडिस ने इस पत्र के बाद रक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी को बोफोर्स की फाइल लाने का निर्देश दिया तो उसने पहले तो काफी टालमटोल की. इसके बाद एक दिन फर्नांडिस के पास प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनात एक बड़े ताकतवर व्यक्ति का फोन आया. इस व्यक्ति ने फर्नांडिस को कहा कि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि बोफोर्स की फाइल से आप दूर ही रहें.’

यहां से दो बातें साफ हैं. पहली बात तो यह कि भाजपा की अगुवाई वाली उस वक्त की केंद्र सरकार भी यह नहीं चाहती थी कि बोफोर्स मामले की सच्चाई दुनिया के सामने आए. दूसरी यह कि देश के रक्षा मंत्री ने प्रधानमंत्री कार्यालय के ‘ताकतवर व्यक्ति’ की बात मानकर इस मामले में चुप्पी साध ली.

बोफोर्स का सच सामने लाने को लेकर भाजपा की अनिच्छा का एक और प्रमाण इसके बाद के घटनाक्रम से मिलता है. फरवरी, 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद केंद्र की भाजपानीत सरकार के पास करीब 60 दिन का समय था मगर उसने इस फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील करवाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली. मई में भाजपा की सरकार चली गई और कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार आ गई. इसके बाद सीबीआई ने अपील ही नहीं की.

लिंडस्टोर्म के हालिया साक्षात्कार के बाद जब नए सिरे से बोफोर्स का मामला गरमाया तो राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली ने इस मामले की फिर से जांच कराने की मांग की. जब 2004 में अदालत का फैसला आया था तब जेतली देश के कानून मंत्री थे और अगर वे चाहते तो ऊपरी अदालत में फैसले के खिलाफ समय रहते अपील की जा सकती थी. इस बारे में पूछे जाने पर जेटली का एक साक्षात्कार में कहना था, ‘सीबीआई ने अपील करने की पूरी तैयारी कर ली थी. लेकिन अदालत की छुट्टियों और लोकसभा चुनावों की वजह से हमारी सरकार समय रहते अपील नहीं कर पाई. इसके बाद नई सरकार आ गई और उसने पुरानी सरकार के फैसले को बदलते हुए कहा कि अपील नहीं की जानी चाहिए.’

मगर सच यह है कि उच्च न्यायालय के फैसले की कॉपी मिलने के बाद अपील करने की 90 दिन की समय सीमा 20 जून, 2004 के आसपास पूरी हो रही थी. सरकार को कॉपी मिलने से पहले भी अदालत के फैसले की जानकारी तो थी ही. इसका मतलब जेतली जिस सरकार के कानून मंत्री थे उसके पास अपील करने के लिए तकरीबन तीन महीने का वक्त था. 13 मई, 2004 को लोकसभा चुनावों के परिणाम आए और जनादेश वाजपेयी सरकार के खिलाफ था. इसके बाद 21 मई, 2004 को मनमोहन सिंह की अगुवाई में केंद्र में कांग्रेस की गठबंधन सरकार बनी. इसके बाद सीबीआई ने फैसले के खिलाफ अपील न करने का फैसला किया. यानी अपील करने की मियाद के दौरान केंद्र में दोनों प्रमुख दलों की सरकार रही लेकिन दोनों की दिलचस्पी बोफोर्स के रहस्य से पर्दा उठाने में थी ही नहीं.

एक तरफ भारत के दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं जो बोफोर्स घोटाले को रहस्य बनाकर ही रखना चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ स्वीडन के एक पुलिस अधिकारी हैं जो पत्रों और साक्षात्कारों के जरिए इस मामले की पूरी जांच कराने और इसमें अपना पूरा सहयोग देने का प्रस्ताव दे रहे हैं. लिंडस्टोर्म के पत्र और साक्षात्कार को पढ़ने से पता चलता है कि उन्हें भारत के विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रमुख लोगों ने आश्वासन तो खूब दिए लेकिन किया कुछ नहीं. चित्रा सुब्रमण्यम को दिए साक्षात्कार में लिंडस्टोर्म कहते हैं कि आज उनका देश कई मामलों में दुनिया में शीर्ष पर है लेकिन सैद्घांतिक भटकाव भी आया है और इस वजह से भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां बढ़ी हैं. एक तरफ लिंडस्टोर्म एक दूसरे देश से संबंधित मामले में हुए भ्रष्टाचार को लेकर इस कदर चिंतित हैं और सच्चाई को सामने लाना चाहते हैं लेकिन दूसरी तरफ भारत का राजनीतिक वर्ग है जो हो-हल्ला तो खूब मचाता है लेकिन जब कार्रवाई करने की बात आती है तो तकनीकी बहानों का आवरण ओढ़ लेता है.

लिंडस्टोर्म द्वारा जॉर्ज फर्नांडिस को लिखे पत्र के अंश

फरवरी, 2004

… बोफोर्स मामले का मैं प्रमुख जांच अधिकारी था. मुझे नहीं पता कि क्यों मैं भूत काल का प्रयोग कर रहा हूं क्योंकि अब तक मामले की जांच पूरी नहीं हुई. लगता है जांच कभी पूरी भी नहीं होगी. ऐसा इसलिए कि स्वीडन और भारत के लोग ऐसा ही चाहते हैं…..

… इस मामले की जांच का जिम्मा मुझे 18 साल पहले सौंपा गया था. पुलिस अधिकारी होने के नाते मुझे इस बात का भरोसा है कि सच एक दिन जरूर सामने आएगा. क्योंकि सच्चाई के साथ बुरी बात यह है कि जब हम बिल्कुल नाउम्मीद हो जाते हैं तो सच सामने आ जाता है….

… बोफोर्स मामले की जांच के दौरान हर तरह से मेरे काम को मुश्किल बनाने की कोशिश की गई. भारत से बने दबाव का नतीजा यह हुआ कि स्वीडन में एक जांच बंद हो गई. फिर जब दबाव बना तो स्वीडिश नैशनल ऑडिट ब्यूरो ने आधी-अधूरी रिपोर्ट भारत भेजी. मूल रिपोर्ट के वे महत्वपूर्ण हिस्से हटा दिए गए जिनमें पैसों के लेन-देन का ब्योरा था. मेरे पास पूरी रिपोर्ट थी और यह देखकर मुझे बड़ा दुख हुआ कि किस तरह से अधूरी रिपोर्ट के आधार पर राजनीतिज्ञ यह दावा कर रहे थे कि पैसे का कोई लेन-देन नहीं हुआ….

… बोफोर्स के वरिष्ठ अधिकारियों की टीम जब भारत की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के सामने अपना पक्ष रखने आई तो उन्हें ऐसा करने से रोका गया. उनकी मुलाकात अधिकारियों के एक छोटे समूह से कराई गई जिसे उन लोगों ने कोई नाम नहीं दिया. मुझे बताया गया कि वहां अगर नाम बताया भी जाता तो उन पर कोई यकीन नहीं करता….

…इतालवी बिचौलिए ओतावियो क्वात्रोकी से पूछताछ होनी चाहिए क्योंकि उसी ने एई सर्विसेज के जरिए राजनीतिक रिश्वत तय की थी. सोनिया गांधी से अवश्य पूछताछ होनी चाहिए….

… बोफोर्स सौदे के मुख्य मध्यस्थ मार्टिन अर्डबो ने मुझसे कहा था कि रिश्वत की सच्चाई उसके साथ ही कब्र में दफन हो जाएगी. वह आखिरी वक्त पर एई सर्विसेज के साथ हुए करार पर बिलकुल शांत था जो उसने खुद अपनी देख-रेख में किया था. स्पष्ट था कि यह राजनीतिक रिश्वत थी….

… अर्डबो इस बात को लेकर बेहद चिंतित था कि लोगों को इस बात का पता चल रहा था कि ‘क्यू’ और ‘आर’ कौन है और उनके आपसी संबंध क्या हैं. ‘क्यू’ क्वात्रोकी के लिए और ‘आर’ राजीव गांधी के लिए लिखा गया था. अर्डबो ने मुझे बताया कि बड़े लोगों को बचाने के लिए मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है. …

… जिन आपराधिक मामलों में राजनीतिक रिश्वत चुकाई जाती है उनमें पूरी कहानी किसी के पास नहीं होती. लोग आते हैं, अपनी भूमिका निभाते हैं और चले जाते हैं. यह कभी कोई समस्या पैदा होने पर बचाव के लिहाज से किया जाता है. बोफोर्स मामले में ऐसा ही हुआ है. इस पूरे मामले के सारे रहस्यों को जानने वाला सिर्फ एक ही आदमी है और वह है मार्टिन अर्डबो….

… इस घोटाले में शामिल भारतीय राजनीतिज्ञों ने हमेशा इससे इनकार किया, नोट्स भेजे, अधिकारियों को भेजा और वहां भ्रम पैदा किया जहां इसकी कोई जरूरत ही नहीं थी. पुलिस अधिकारी आपको बताएंगे कि किसी मामले की लीपापोती का यह पुराना तरीका है. जहां आरोप से ज्यादा जोरदार ढंग से उनका विरोध किया जा रहा हो वहां आप यकीन के साथ कह सकते हैं कि बोलने वाला ही अपराधी है. उस समय के भारत के प्रधानमंत्री ने भारतीय संसद में यह कहा कि न ही वे और न ही उनके परिवार के किसी सदस्य ने इस मामले में रिश्वत ली है. मेरी समझ से यह उनकी पहली सबसे बड़ी गलती थी जिसने हमें कई सुराग दिए. उन्हें यह पता नहीं था कि जिस वक्त वे बोल रहे थे उसी वक्त स्वीडन की एक एजेंसी कई दस्तावेजों को खंगाल रही थी. इनमें इस बात का प्रमाण था कि कैसे आखिरी वक्त में क्वात्रोकी की एजेंसी एई सर्विसेज को रिश्वत दी गई. अर्डबो की चुप्पी और राजीव गांधी का इनकार साथ-साथ चल रहे थे….

… यह कहना भी गलत नहीं होगा कि मैं उन गिने-चुने लोगों में से एक हूं जिसने इस मामले से संबंधित सारे दस्तावेजों को देखा है. सोनिया गांधी से अनिवार्य तौर पर पूछताछ होनी चाहिए. मुझे पता है कि मैं क्या बोल रहा हूं.