दोनों पुरानी पार्टियाँ उत्तराखण्ड की सत्ता में वापसी को बेचैन
पिछले कुछ समय से प्राकृतिक आपदाओं की ज़द में आये उत्तराखण्ड राज्य की जनता भी वर्तमान में राजनीतिक अस्थिरता के घनघोर बादलों से गिरी हुई है। राज्य के पर्वतीय अंचलों में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं से राजनीतिक दल और नेता भी अछूते नहीं रहे और जैसे-जैसे 2022 के विधानसभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे अवसरवादी और दलबदलू नेताओं के चेहरे भी बेनक़ाब हो रहे हैं।
कई दशकों से उत्तराखण्ड के विकास में लगातार बाधक रहीं यहाँ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों से मुक़ाबला करने के लिए लम्बे आन्दोलन के बाद बना पृथक राज्य आज राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार का चारागाह बनकर रह गया है। अपने आँचल में चार धामों, हेमकुण्ड साहिब, पिरान कलियर सहित विश्व स्तरीय पर्यटन स्थलों को सँजोये देवभूमि उत्तराखण्ड की जनता स्वयं को इस वजह से ठगा-सा महसूस कर रही है। राज्य आन्दोलनकारी और शहीदों के परिजन भी लाचार और बेबस होकर नेताओं की करतूतों के सामने मूकदर्शक बने रहने को मजबूर हैं।
राजनीतिक अस्थिरता का इससे बड़ा और क्या मख़ौल होगा कि 21 वर्षों में 13 मुख्यमंत्री और 8 राज्यपाल राज्य को मिल चुके हैं। छ: माह बाद राज्य का 14वाँ मुख्यमंत्री शपथ लेगा। क़ायदें से देखा जाए, तो महज़ 16 वर्षों में राज्य को 12 मुख्यमंत्री मिले हैं; क्योंकि पाँच साल का कार्यकाल पूर्ण करने का गौरव भी केवल कांग्रेस के दिग्गज नेता स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी को ही हासिल रहा।
उत्तराखण्ड की पहाड़ी वादियों के राजनीतिक हवा के झोंके ही कुछ ऐसे रहे कि इन 21 वर्षों में प्रमुख राजनीतिक दलों, कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही बराबर-बराबर शासन करने का समय मिला। नये राज्य में भ्रष्टाचार के उपजाऊ अवसरों और महत्त्वाकांक्षाओं से न तो भगवा ही अछूते रहे और न ही खादी यानी कांग्रेसी। जिसको जैसे और जहाँ लूट-खसोट करने का मौक़ा मिला, वह चुका नहीं; चाहे वह विधायक रहा हो या मंत्री। और नौकरशाही से लेकर हर क्षेत्र में दलालों ने भ्रष्टाचार के कीचड़ से तो देवभूमि को कलंकित करके रख ही दिया।
70 सदस्यीय उत्तराखण्ड की विधानसभा में 36 विधायकों वाली पार्टी सरकार बनाने का दावा पेश कर देती है। सन् 2017 से पूर्व किसी भी दल के पास ऐसा प्रचण्ड बहुमत नहीं था, जैसा इस मर्तबा 57 विधायकों का बहुमत भाजपा को मिला था। अब इसे राज्य का दुर्भाग्य कहा जाए या जनता द्वारा दिये गये जनादेश का अनादर कि ख़ुद उत्तराखण्ड राज्य बनाने वाली भाजपा, 57 विधायकों के बहुमत के बावजूद राज्य को स्थायित्व वाली सरकार देने में नाकाम रही और पाँच साल के अन्दर उसने मुख्यमंत्री ऐसे बदले, जैसे किसी ड्राइंग रूम के परदे। भाजपा ने चार साल में तीन मुख्यमंत्री बदल डाले। त्रिवेंद्र सिंह रावत को विधानसभा के बजट सत्र के बीच से बुलाकर इस्तीफ़ा ले लिया गया और सांसद तीर्थ सिंह रावत को बाग़डोर सौंप दी गयी। सांसद तीर्थ सिंह के साथ तो पार्टी ने ऐसा किया, जैसे राशन की लम्बी लाइन में थोड़ी देर के लिए पड़ोस के बच्चे को खड़ा कर देते हैं। चार माह से कम समय में तीर्थ सिंह रावत को भी पार्टी हाईकमान ने पूर्व मुख्यमंत्रियों की क़तार में खड़ा कर दिया और कुर्सी पर बिठा दिया युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को, जो पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोशियारी के शिष्य हैं।
राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का सबसे बड़ा विस्फोट तब हुआ जब मार्च, 2016 में कांग्रेस से बग़ावत करके 10 विधायक तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत को छोडक़र भाजपा के पाले में कूद गये। लेकिन आज हालात ये हैं कि इन 10 कांग्रेसी गौत्र के भाजपा विधायकों का स्वयं भाजपा में भी दम घुट रहा है और इनमें से जो कांग्रेस में वापसी का मन बना रहे हैं, उन्हें वहाँ भी पहले वाली इज़्जत मिलना मुश्किल है। राज्य में कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और विधायक उमेश शर्मा काऊ खुले तौर पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर भी कर चुके हैं।
अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 60 पार जाने का दम भर रही है। लेकिन भाजपा में जो 10 विधायक कांग्रेस गोत्र के हैं, उनकी वजह से पार्टी को असहजता तो महसूस हो ही रही है, साथ ही अपने वास्तविक और मूल कार्यकर्ताओं को भी अनजाने में भाजपा कहीं-न-कहीं नाराज़ कर रही है। हालाँकि इस पूरे क्षति नियंत्रण के लिए भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखण्ड में अपना चेहरा युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को ही घोषित किया है। वर्तमान हालात में कांग्रेस को देखा जाए, तो उनके पास खोने को कम है। सदन में उनकी संख्या वैसे ही 11 विधायकों की थी और इंदिरा हृदयेश के देहांत के बाद कांग्रेसी 10 की संख्या में ही हैं।
एक तो सदन में वैसे ही संख्या कम और ऊपर से कांग्रेस का परम्परागत अंतर्कलह; इन हालात में राजनीतिक विश्लेषक भी अगली विधानसभा में कांग्रेस के बारे में कोई स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करने से कतरा रहे हैं। दिल्ली में लगातार तीन मर्तबा से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी भी उत्तराखण्ड में अपनी ज़मीन तलाशने को इसलिए मैदान में कूद पड़ी है; क्योंकि दिल्ली की तर्ज पर उत्तराखण्ड में भी 70 सीटों की विधानसभा है और पार्टी को उम्मीद है कि दिल्ली के फार्मूले पर सरकारी स्कूलों और मोहल्ला क्लीनिक की बदौलत उत्तराखण्ड में सत्ता के गलियारों में प्रवेश पाया जा सकता है।
पार्टी ने कर्नल अजय कोठियाल को पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया है। स्वयं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया दो-दो बार उत्तराखण्ड का दौरा करके वहाँ की जनता और युवाओं की नब्ज़ टटोलने की कोशिश कर चुके हैं। सत्ता में आने पर उत्तराखण्ड को देश की आध्यात्मिक राजधानी बनाने का वादा करने के साथ-साथ प्रत्येक परिवार को 200 यूनिट मुफ़्त बिजली और पलायन रोकने का वादा आम आदमी पार्टी ने किया है। हालाँकि सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस आम आदमी पार्टी की इन घोषणाओं को कोरे शिगूफ़े क़रार दे रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि मतदाता की नब्ज़ टटोलने में माहिर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में दिवंगत पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा की प्रतिमा का अनावरण करके उनको जो श्रद्धांजलि दी है, उससे कांग्रेस और भाजपा, दोनों पहाड़ में नि:शब्द हैं।
बहरहाल आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच आम आदमी पार्टी ने कूदकर समीकरण तो निस्संदेह प्रभावित कर दिये हैं। इधर कांग्रेस की प्रदेश प्रवक्ता गरिमा मेहरा दसौनी के अनुसार, कांग्रेस पार्टी जनता के जीवन में परिवर्तन लाना चाहती है। जिस तरह से उत्तराखण्ड राज्य को बने हुए 21 साल हो जाने के बावजूद प्रदेश में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। बेरोज़गारी महँगाई अपने चरम पर है। इन सबसे कांग्रेस प्रदेश की जनता को निजात दिलाना चाहती हैं।
भाजपा ने सन् 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान जनता के साथ बहुत बड़े-बड़े वादे किये। जैसे एक साल में 50,000 नौकरियाँ, 100 दिन के अन्दर लोकायुक्त देने का और महँगाई ख़त्म करने का वादा, किसानों का ऋण माफ़ करने का वादा; पर आज उन वादों पर खरा उतरना तो दूर की बात, भाजपा ने उत्तराखण्ड के लोगों के पीठ में छुरा घोंकने का काम किया है। जिस तरह से कोरोना वायरस के संकटकाल में भाजपा नेतृत्व के द्वारा कुप्रबन्धन और अव्यवस्थाएँ प्रदेश में पसरी पड़ी थीं, उससे जनता का भाजपा से मोह भंग हो चुका है। उत्तराखण्ड की जनता से कहा गया कि अगर वह भाजपा को बहुमत देगी, तो उत्तराखण्ड की शक्ल-सूरत बदल दी जाएगी। लेकिन पिछले पौने पाँच साल में प्रदेश के हर वर्ग, हर तबक़े ने ख़ुद को लाचार, बेबस और शोषित ही महसूस किया है। भाजपा की प्रचण्ड बहुमत की सरकार ने प्रदेश के इतिहास में पहली बार कई कीर्तिमान स्थापित किये। जैसे किसानों की आय दोगुनी करने वाली भाजपा ने प्रदेश में दो दर्ज़न से ज़्यादा किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया।
जीएसटी और नोटबन्दी के तले दबे हुए व्यापारियों में से एक व्यापारी ने तो मंत्री के जनता दरबार में आत्महत्या कर ली। भाजपा के तीन तीन दिग्गज नेताओं ने अपने ही दल की महिला कार्यकर्ताओं की अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया। लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई।
पहली बार प्रदेश में घर-घर मोबाइल वैन से दारू बाँटी गयी। पहली बार पुलिसकर्मियों के परिजनों को अपने पेट की आग बुझाने के लिए ग्रेड-पे बढ़ाने की गुहार लगाने के लिए सरकार के ख़िलाफ़ सडक़ों पर उतरना पड़ा। प्रदेश में पहली बार देवस्थानम् बोर्ड के गठन के ख़िलाफ़ तीर्थ पुरोहितों को लगातार आन्दोलन करना पड़ा।
ज़िला विकास प्राधिकरण और भू-क़ानून जैसी कुनीतियों से भाजपा ने प्रदेश के नागरिकों का जीना दूभर कर दिया और प्रदेश की भूमि को बाहरी लोगों के हाथों गिरवी रख दिया। कांग्रेस पार्टी ने उत्तराखण्ड के युवाओं से वादा किया है कि रोज़गार के क्षेत्र में उत्तराखण्ड को नंबर-1 राज्य बनाएँगे, मॉडल राज्य बनाएँगे। हमारे घोषणा-पत्र की सभी योजनाएँ महिला केंद्रित होंगी। कांग्रेस पार्टी ने पहले भी जन्म से लेकर एक महिला के वृद्धावस्था तक, हर उम्र में किसी-न-किसी योजना के तहत ग़रीब घर की महिला को लाभान्वित किया। पेंशन लाभार्थियों की संख्या डेढ़ लाख से बढ़ाकर 7.5 लाख कर दी। प्रदेश के अन्दर दो मेडिकल कॉलेज, पाँच इंजीनियरिंग कॉलेज, 17 पॉलीटेक्निक, 27 आईटीआई, 32 डिग्री कॉलेज देने का काम किया।
सिडकुल / पिडकुल और उपनल जैसी संस्थाओं की स्थापना से स्थानीय युवाओं को रोज़गार दिलवाने में कांग्रेस ने ही अहम भूमिका निभायी। लेकिन आज डबल इंजन और प्रचण्ड बहुमत मिलने के बावजूद भाजपा ने जिस तरह से प्रदेश के विकास को तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलकर बार-बार अवरुद्ध किया, उससे उसने न सिर्फ़ बेरोज़गारी बढ़ायी, बल्कि महँगाई में भी प्रदेश को देश में सर्वोच्च स्थान पर पहुँचाने का काम किया। कुम्भ, कोरोना जाँच घोटाले से लेकर सूर्य धार झील घोटाला हो या कर्मकार बोर्ड में धाँधली, हर तरफ़ तथाकथित शून्य सहिष्णुता (ज़ीरो टॉलरेन्स) की सरकार में भ्रष्टाचार अपने चरम पर रहा, जिसके ख़िलाफ़ भाजपा के ही विधायक पूरन फत्र्याल को विधानसभा में कार्य स्थगन प्रस्ताव लाना पड़ा। कांग्रेस ने उत्तराखण्ड की जनता से वादा किया है कि हम एक साफ़-सुथरी भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी सरकार उत्तराखण्ड की जनता को देंगे।
वहीं भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता, विनय गोयल का दावा है कि अटलजी की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने उत्तराखण्ड का निर्माण किया, विशेष राज्य का दर्जा दिया, विशेष औद्योगिक पैकेज दिया और पिछले चुनाव में दिये नारे ‘अटल जी ने बनाया मोदी जी सँवारेंगे’ के अनुरूप ही पार्टी रोडमैप पर काम कर रही है। कोरोना-काल के दुष्प्रभाव के बावजूद डबल ईंजन सरकार में आलवैदर रोड, ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेललाइन, भारतमाला आदि बड़ी महत्त्वाकांक्षी योजनाएँ उत्तराखण्ड के विकास की नयी कहानी लिख रही हैं। गोयल का मानना है कि उत्तराखण्ड को रिकॉर्ड तोड़ संसाधन भाजपा ने उपलब्ध कराये; जबकि कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने विषेश औद्योगिक पैकेज समय से पहले ही समाप्त कर विकासशील उत्तराखण्ड पर गहरी चोट की तथा भ्रष्टाचार के नित नये कीर्तिमान स्थापित करने वाली कांग्रेस की तत्कालीन प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय सरकारों ने उत्तराखण्ड के विकास के लिए एक भी उल्लेखनीय योजना नहीं दी। जबकि उसमें स्वयं को उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा नेता समझने वाले केंद्रीय मंत्री भी रहे और प्रदेश के मुख्यमंत्री भी।
अनेक बार कई सार्वजनिक मंचों एवं मीडिया चैनलों से खुली चुनौती दिये जाने के बाद भी भ्रष्टाचार पर आँखें मूँद लेने वाले ये कांग्रेसी वरिष्ठ नेता अपनी एक भी उपलब्धि बताने में असमर्थ रहे। जनता आश्वस्त है कि उत्तराखण्ड को भाजपा ने ही बनाया और भाजपा ही सँवारेगी।
इसके अतिरिक्त राज्य आन्दोलनकारी मंच के अध्यक्ष प्रदीप कुकरेती को इस बात का गहरा दु:ख है कि 21 वर्ष बीत जाने के बाद भी शहीदों को न्याय नहीं मिल पाया। आज तक कोई भी सरकार राज्य के शहीदों को न्याय नहीं दिला पायी। यहाँ तक किसी सरकार ने शहीदों की पैरोकारी के लिए अधिवक्ताओं का कोई तक पैनल नहीं बनाया। कुकरेती ने अफ़सोस जताते हुए पूछा कि आज 21 वर्षों बाद भी हमारे स्कूल के छात्रों के लिए राज्य की स्थायी राजधानी कहाँ है? इस प्रश्न का जवाब नहीं है। उत्तराखण्ड के साथ ही छत्तीसगढ़ और झारखण्ड भी बने थे; लेकिन वहाँ काफ़ी कुछ बेहतर हुआ है।
दोनों ही दल आज तक कोई स्पष्ट भू-क़ानून / रोज़गार / मूल निवास के साथ पलायन पर कोई ठोस और स्पष्ट नीति नहीं बना पाये। राज्य आन्दोलन में अपने प्राणों की आहूति देने वाले शहीद परमजीत सिंह के पिता नानक सिंह और शहीद सलीम अहमद के पिता अब्दुल रसीद पिछले दो साल से पेंशन के लिए ज़िला प्रशासन के चक्कर काट रहे हैं।
कुकरेती का कहना है कि मेरे द्वारा स्वयं ज़िलाधिकारी से लेकर शासन में गृह सचिव और मुख्यमंत्री तक को अवगत करा दिया गया; परन्तु परिणाम अभी भी शून्य है। यहाँ तक शहीद सलीम अहमद के परिजनों के घर की बिजली काट दी गयी। तब फोन पर उधमसिंह नगर के ज़िलाधिकारी को परिजनों की स्थिति बतायी और लॉकडाउन का हवाला देकर घर की बिजली सुचारू करवायी।