मोहन भागवत ने अपनी तरफ़ से यह बताने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है कि ‘भविष्य का भारत’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नज़रिए से कैसा होना चाहिए। उन्हें सुनने के लिए ख़ासतौर पर आमंत्रित किए गए लोगों का जमावड़ा तीन दिनों तक राजधानी के विज्ञान भवन में लगा रहा। पाकिस्तान को बुलाया नहीं, मगर भागवत को सुनने के लिए चीन जैसे देशों के राजदूत मौजूद थे। समान विचारों वाले राजनीतिक दलों के नामी चेहरे तो नदारद रहे, मगर जया जेटली जैसों ने अपनी हाजिऱी दजऱ् कराई। अब तक संघ-भाजपा को रह-रह कर कोसते रहने वाले अमर सिंह भी अपना बदला हुआ लबादा ओढ़े भागवत को मंत्र-मुग्ध मुद्रा में सुन रहे थे।
दलबीर सिंह जैसे सेवानिवृत्त सेनाधिकारी ललचाई ललक लिए हिंदुत्व का असली अर्थ समझने में जुटे हुए थे। मनीषा कोइराला, अन्नू कपूर, और रवि किशन जैसे चौथी पायदान के अदाकारों को भी संघ से हुआ मौसमी प्यार भागवत की शाखा में खींच लाया था। मधुर भंडारकर जैसे फिल्म निर्माता-निदेशक और हंसराज हंस जैसे सुर-जीवी भी उबासियां लेते हुए हिंदू होने का अर्थ समझ रहे थे। शोवना नारायण और प्रतिभा प्रहलाद अगर किसी कुलीन-समूह में निमंत्रित-अनिमंत्रित न पहुंचें तो फिर उनका होना-न-होना ही बराबर है, सो, वे भी श्रोता कम, दर्शक ज़्यादा की भूमिका में विराजमान थीं।
विज्ञान भवन की भागवत-कथा के श्रोता-समूह और दर्शक-मंडली की गुणवत्ता पर जिन्हें उंगली उठानी हो, उठाएं, मगर मैं इतना ज़रूर कहूंगा कि मोहन भागवत ने भविष्य का जो भारत हमें दिखाया है, उस पर कोई खुल कर उंगली नहीं उठा सकता। इसलिए नहीं कि भागवत ने जो कहा, उससे संघ की छत पर अब तक तनी दिख रहीं सारी बर्छियां पिघल कर मोम बन गई हैं। बल्कि इसलिए कि असली मंशा पर शब्द-जाल का वह मुलम्मा चढ़ाना भागवत को आता है, जो कुछ देर के लिए आपको सोच में डाल दे और आपको लगे कि अरे, उनकी बातों में ग़लत क्या है?
पहले दिन ही भागवत ने यह साफ़ कर दिया था कि संघ के नज़रिए से आपको कायल कर देना उनका मक़सद नहीं है। उन्होंने कहा कि संघ का दृष्टिकोण आप मानें-न-मानें, आपकी मजऱ्ी। मैं तो अपनी बात बता रहा हूं। फिर उन्होंने विस्तार से बताया कि संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार कौन थे और उन्होंने संघ की स्थापना क्यों की? भागवत का कहना था कि हेडगेवार को जाने बिना संघ को जाना ही नहीं जा सकता। इसलिए हेडगेवार की सुभाषचंद्र बोस से ले कर विनायक दामोदर सावरकर तक से मुलाक़ात का जि़क्र उन्होंने किया।
यह बात सुन कर बहुत-से कांग्रेसियों के मन भागवत की निष्पक्षता पर फुदक रहे हैं कि आज़ादी के पहले राजनीतिक जागृति के लिए देश भर में बड़ा आंदोलन कांग्रेस ने शुरू किया और उसमें भी ऐसे कई सर्वस्व त्यागी महापुरुष थे, जिनकी प्रेरणा आज भी हमारे जीवन में काम करती है। लेकिन भागवत की इस मासूमियत पर इतना फि़दा होने की ज़रूरत नहीं है। अगर हेडगेवार ने खुद अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन की शुरुआत कांग्रेस से नहीं की होती तो भागवत कांग्रेस को इत्ता-सा भी श्रेय नहीं देते। भागवत ने आज़ादी के आंदोलन के बारे में कहा कि ‘कांग्रेस में भी’ सर्वस्व त्यागने वाले लोग थे। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति में ‘एक बड़ा योगदान’ कांग्रेस की धारा का भी है। इसके बाद भागवत ने कांग्रेस पर छींटाकसी की। बोले कि आज कई राजनीतिक धाराएं हैं और उनमें कांग्रेस की स्थिति क्या है, उस पर मैं कुछ नहीं कहूंगा। वह आप खुद जानते हैं।
भागवत ने हमें बताया कि संघ और कुछ नहीं है, वह तो एक प्रणाली-विज्ञान है। एक मैथोडोलॉजी है। वाह! संघ की इस अद्भुत परिभाषा ने मुझे भागवत के समक्ष नतमस्तक कर दिया है। इसलिए कि अगर सामाजिक बंटवारे के इस प्रणाली-विज्ञान पर भी मेरा सिर नीचा न हो तो मुझे धिक्कार है। मैं तो भागवत को यह बोलते देख हक्काबक्का था कि संघ का उद्देश्य भेदमुक्त, समतायुक्त और शोषणमुक्त समाज की रचना करना है। अगर ऐसा ही है तो हमारे स्वयंसेवक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से संघ-प्रमुख यह जवाब-तलब क्यों नहीं करते कि पिछले सवा चार साल में इस दिशा में वे कितने क़दम आगे बढ़े हैं? मगर जवाब तो भागवत की बातों में ही छिपा है। वे बोले कि विविधताओं का उत्सव मनाओ, मगर वे यह भी बोले कि अपनी विविधता पर पक्के रहो, अपनी विशिष्टता पर अडिग रहो। उन्होंने कहा कि ‘भारत के बाहर से जो लोग आए हैं’ और उनके आज जो अनुयायी हैं, वे आज भारतीय हैं। हमारे यहां इस्लाम है, ईसाइयत है। ‘अगर’ वे भारतीय है तो उनके घरों में भी भारतीय संस्कारों का प्रचलन दिखाई देता है।
आप भागवत के उर्वरा मस्तिष्क की दाद दें-न-दें, मैं तो दूंगा। उन्होंने मानवेंद्र नाथ रॉय के सुधारवादी मानवतावाद से ले कर पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम और अमूल-प्रसिद्ध वर्गीज कुरियन द्वारा लोकशक्ति जागरण की अवधारणाओं तक को संघ के विचारों में गूंथ लिया। मगर साथ-ही-साथ यह भी स्पष्ट कर दिया कि संघ का गुरु तो उसका भगवा-ध्वज भी है। थोड़ी मुरव्वत की और अहसान-मुद्रा में कहा कि ‘लेकिन तिरंगे का भी पूर्ण सम्मान हम रखते ही हैं’। बहुत मेहरबानी आपकी। भारतमाता धन्य हुईं।
भागवत-कथा के दूसरे दिन का प्रवचन सुन कर हमें मालूम हुआ कि संघ ने हमें यह आज़ादी दे रखी है कि भारत पर कौन राज करेगा, यह हम तय कर सकते हैं। लेकिन फिर आगाह किया कि लेकिन राष्ट्र कैसे चलेगा, इस पर संघ का भी मत है। भागवत ने ज़ोर दे कर कहा कि संघ राजनीति से परे रहेगा, इसका मतलब यह नहीं है कि घुसपैठियों जैसे मसलों पर हम अपनी बात नहीं कहेंगे। बड़े भोलेपन से भागवत ने हमें बताया कि संघ के स्वयंसेवक ‘किसी भी’ राजनीतिक दल में जा कर काम कर सकते हैं। वह स्वयंसेवक-भूमिका के बाद अपने बाकी राजनीतिक जीवन में क्या करता है, उससे संघ को कोई मतलब नहीं। वह किस राजनीतिक दल में जाता है, वह उसका काम है। वह किसी दूसरे राजनीतिक दल में क्यों नहीं जाता, यह विचार करना भी उसी का काम है।
‘अधिकतम लोगों की अधिकतम बेहतरी’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ से सराबोर भागवत के मन से जब जब ‘एतद देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:; स्वं स्वं चरित्रां शिक्षरेन पृथिव्यां सर्वमानवा:’ का झरना बहा तो मैं उसमें डूबते-डूबते बचा। अगर राजधर्म का पालन करने जैसी सलाहों की यादों की नुकीली चट्टानों ने मुझे थाम न लिया होता तो भागवत-सरोवर के भंवर ने तो मेरे प्राण ही हर लिए होते।
तीसरे दिन सवालों के जवाब देने के बहाने भागवत ने जो किया, वह सबके वश का नहीं है। हिंदूवाद के वाद पर बात की। कहा कि वाद तो बंद होता है, हिंदुत्व तो सतत प्रक्रिया है। लेकिन जब समूचे हिंदू समाज में रोटी-बेटी के व्यवहार पर बात आई तो रोटी के कौर तो भागवत आसानी से निगल गए, मगर बेटी-व्यवहार के प्रश्न पर उनकी हिचक झलके बिना नहीं रही। भागवत ने जाति व्यवस्था, शिक्षा, भाषा, स्त्री, जनसंख्या, आरक्षण, गौरक्षा, धर्म-परिवर्तन, अल्पसंख्यक, धारा 370, समान नागरिक संहिता, संविधान, राम मंदिर, आर्थिक परिस्थिति और समलैंगिकता जैसे मसलों पर विस्तार से सवालों के जवाब दिए। भागवत की बातों में कितने ही पेंच क्यों न हों, तीन दिन इस चक्रव्यूह में अपनी नटबाज़ी दिखाने का माद्दा तो उनसे किसी को भी सीखना चाहिए।
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी है।)