अपनी किताब ‘चाइनाज इंडिया वॉर’ में सामरिक मामलों के स्वीडिश विशेषज्ञ बर्टिल लिंटनर ने लिखा है कि 1962 की सर्दियों की शुरुआत में कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग ने भारत के खिलाफ युद्ध देश में कमज़ोर हो रही अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए थोपा था। चीन के शक्तिशाली नेता शी जिनपिंग, कोरोना वायरस के बीच उभरी वैश्विक और आंतरिक स्थितियों के कारण आज अपने देश के भीतर ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहे हैं। तो क्या वह भी भारत के साथ आक्रामकता दिखाकर माओत्से तुंग की ही राह पर जाने की तैयारी कर रहे हैं? वह भी ऐसी स्थिति में जब आज दुनिया के कई देश चीन के खिलाफ हो गये हैं, जबकि 1962 में दोस्त माने जाने वाले रूस (तब सोवियत संघ) ने भी भारत का साथ न देकर तटस्थ की भूमिका निभायी थी।
बहुत-से ऐसे विशेषज्ञ हैं, जो यह मानते हैं कि चीन वर्तमान हालत में बड़ा नहीं, तो एक सीमित युद्ध भारत के साथ कर सकता है। हालाँकि कुछ अन्य कहते हैं कि युद्ध न तो भारत न ही चीन के लिए अच्छा रहेगा। वैसे ज़्यादातर लोग इस बात पर ज़रूर सहमत हैं कि 1962 का अनुभव बताता है कि भारत को चीन से चौकन्ना रहना चाहिए; क्योंकि वह भरोसे के काबिल नहीं है।
भले पिछले 58 साल में दोनों देशों में दोबारा युद्ध नहीं हुआ। लेकिन इस बार सीमा पर चीन की गतिविधियाँ असाधारण दिखती हैं। साल 1962 का युद्ध इस बात का गवाह है कि भारत के नज़रिये से चीन भरोसे के काबिल देश नहीं है। ज़ाहिर है कि इन हालत में भी भारत को चौकन्ना रहने की ज़रूरत है।
चीन ने 1962 का युद्ध भी अचानक ही नहीं कर दिया था। उसने इसकी तैयारी 1959 से ही कर दी थी, जब दलाई लामा को भारत ने शरण दी थी। लामा ने तब तिब्बत में चीनी कब्ज़े के खिलाफ असफल विद्रोह के बाद वहाँ से भारत में शरण ली थी। आज तिब्बत की निर्वासित सरकार भारत के ही हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से चलती है। लेकिन सच यह भी है कि चीन ने 1962 युद्ध तब किया था, जब दोनों देशों की फिज़ाँ में हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे गूँज रहे थे। भारत का इसके बाद चीन पर से भरोसा उठ गया। चीन जब भी भारत को धमकी देना चाहता है, तो वह 1962 के युद्ध की याद दिलाता है। और दुर्भाग्य से भारत में भी चीन का ही अनुसरण करते हुए हमारे राजनीतिक दल, खासकर भाजपा और उसके सहयोगी यही कहते हैं कि भारत अब वो नहीं, जो 1962 में था। लेकिन वे यह बात नहीं कहते कि इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते 1967 में दो बार और 1986-87 में राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री रहते एक बार चीन से गम्भीर टकराव के दौरान भारत की जाँबाज़ सेना ने चीन को बुरी तरह खदेड़ दिया था।
साल 1967 में क्रमश: नाथु ला दर्रा और चाओ ला, जबकि 1986-1987 में ऑपरेशन फाल्कन के तहत भारत की सेना ने नामका चू में चीन की सेना के दाँत बुरी तरह खट्टे किये थे। इतिहास में दर्ज है कि इन तीनों मौकों पर चीन की सेना को घुटने टेकने पड़े थे। साल 1967 के टकराव में तो चीन को अपने दर्जनों सैनिक और बंकर खोने पड़े थे।
चीन के भारत से सीमा पर तनाव के मद्देनज़र एक और घटना ध्यान देने के काबिल है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी (पीएलए) और पीपुल्स आम्र्ड पुलिस फोर्स (पीएपीएफ) की प्रतिनिधिमंडल की बैठक में बहुत अहम बात कही। देश के सुरक्षाबलों को उन्होंने निर्देश दिया कि वे सैनिकों की ट्रेनिंग को मज़बूत करें और युद्ध के लिए तैयार रहें।
उन्होंने इसके अलावा शीर्ष पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति की बैठक में कहा कि यह ज़रूरी है कि पार्टी की केंद्रीय समिति के केंद्रीकृत और एकीकृत नेतृत्व को मज़बूत किया जाए। शी ने शीर्ष पोलित ब्यूरो की इस बैठक में कहा कि जब तक हमारे पास अडिग विश्वास, मिलकर काम करने का जज़्बा, बचाव और इलाज के वैज्ञानिक तरीके और सटीक नीति है; हम निश्चित तौर पर इस लड़ाई को जीत सकते हैं। बहुत-से जानकार जिनपिंग के बैठक में मिलकर काम करने का जज़्बे की बात कहने को लेकर कहते हैं कि यह चीन में उनके खिलाफ नाराज़गी के संकेत को ज़ाहिर करता है। कोरोना वायरस को लेकर भी चीन में असंतोष की बातें सामने आती रही हैं। यह आरोप लगते रहे हैं कि वुहान में वायरस से मरने वालों की संख्या कहीं ज़्यादा थी; लेकिन चीन ने सही आँकड़ों को दबा दिया है।
हॉन्गकॉन्ग में भी चीन की प्रति नाराज़गी बढ़ रही है। वहाँ इसी 4 जून को हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने तियानमेन चौक नरसंहार की बरसी पर पुलिस की मनाही के बावजूद बड़े पैमाने पर चीन के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किये। इन प्रदर्शनों में चीनी राष्ट्रीय विधायिका के हॉन्गकॉन्ग क्षेत्र पर लगाये जा रहे नये सुरक्षा कानूनों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन भी शामिल है।
याद रहे 4 जून, 1989 को चीन के तियानमेन स्क्वायर में लोकतंत्र समर्थक सैकड़ों छात्रों को चीनी सेना ने गोलीबारी करके मार दिया था। ताइवान में भी चीन के खिलाफ माहौल बन चुका है। अमेरिका ने तो हॉन्गकॉन्ग और ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करने के लिए हाल में प्रस्ताव तक लाया है।
चीन दोनों पर कब्ज़ा करना चाहता है। जिनपिंग की नीति को ताइवान और हॉन्गकॉन्ग के मामले में चीन में असफल कहने वालों की तादाद कम नहीं। ज़ाहिर है कि ये चीज़ें जिनपिंग के नेतृत्व के लिए संकट बन सकती हैं; जिन्हें कुछ समय पहले आजीवन राष्ट्रपति बनाये रखने का प्रस्ताव चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में पास हो चुका है।
कुछ जानकार तो यह भी कहते हैं कि इस फैसले से भी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में उनके कुछ विरोधियों को यह फैसला रास नहीं आया है। जिनपिंग इस समय करीब 66 वर्ष के हैं और इस फैसले से चीन कम्युनिस्ट पार्टी के कई नेताओं का सर्वोच्च पद पाने का रास्ता भी बन्द हो गया है। इसके अलावा चीन के शिनजियांग प्रान्त में करीब 10 लाख उइगर मुस्लिमों का मसला भी चीन के लिए बड़ी परेशानी की बजह बन गया है। आरोप है कि चीनी सेना ने इन मुस्लिमों को शिविरों में कैद कर रखा है। ऐसी रिपोर्ट पिछले दिनों दुनिया भर के अखबारों में छपी हैं। आरोप है कि उइगर मुस्लिम शिविरों से भाग न सकें, इसलिए उन्हें दो ताले वाले दरवाज़ों में कैद करके रखा जाता है।
चीन में भले जनता पर सरकारी प्रतिबन्ध बहुत कड़े हों, मगर भीतर-ही-भीतर वहाँ लोकतंत्र की चाह बढ़ती जा रही है; खासकर युवा दूसरे देशों की तरह चीन में भी लोकतंत्र चाहते हैं। बेशक निरंकुश शासन इस तरह के विद्रोह को उभरने नहीं देता, लेकिन बहुत से जानकार मानते हैं कि चीन में विद्रोह की चिंगारी सुलग रही है और चीनी नेतृत्व इससे परेशान है। वुहान के वायरस की घटना ने विद्रोह की इस भावना को और मज़बूत किया है।
बर्टिल लिंटनर ने अपनी किताब चाइनाज इंडिया वॉर में लिखा है कि 1962 का युद्ध इसलिए भी था कि चीन भारत को नेहरू के नेतृत्व में विकासशील देशों के अगुआ के तौर पर उभरने से रोकना चाहता था। आज भी कमोवेश यही स्थिति है। चीन में भीतरी असंतोष के पनपने की चर्चा महीनों से चल रही है और भारत दक्षिण एशिया में एक आॢथक शक्ति बनकर उभर रहा है, जहाँ उसे अमेरिका जैसे महाशक्ति से समर्थन हासिल है। चीन इसे हज़म नहीं कर पा रहा है।
भारत के साथ चीन की 3488 किलोमीटर की लम्बी विवादित सीमा है और अलग-अलग हिस्सों में दोनों देशों की सेनाओं के बीच विवाद होता रहता है। इसी 5 मई को लद्दाख में दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़प के बाद दोनों देशों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगते संवेदनशील क्षेत्रों में अपने सैनिकों को जिस तरह बढ़ाया है; वह तनाव को ज़ाहिर करता है। इस तनाव को कम करने के नज़रिये से 6 जून को दोनों देशों के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की जो बैठक हुई थी, उसमें कुछ खास सामने नहीं आया है।
कोरोना के बाद से अमेरिका खुलेआम चीन के खिलाफ खड़ा हो गया है। चीन के विदेश मंत्री तो यहाँ तक कह चुके हैं कि अमेरिका और चीन में शीत युद्ध शुरू हो गया है। इस साल अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव होना है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भरपूर कोशिश कर रहे हैं कि भारत खुलकर चीन के खिलाफ उनका साथ दे। हालाँकि भारत ने अभी तक चीन को लेकर बहुत सँभलकर चलने की लाइन पकड़ी हुई है; जो ठीक भी है। लेकिन कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ट्रंप से जैसी दोस्ती है, उसे देखते हुए भविष्य में भारत का क्या रुख रहता है? यह कहना अभी मुश्किल है।
ट्रंप भारत को जी-7 देशों के समूह में जोडऩे की वकालत कर रहे हैं। हैरानी तो यह है कि बिना भारत के इसका सदस्य बने ट्रंप अपने दोस्त मोदी को इसकी अगली बैठक में शामिल होने का न्यौता दे चुके हैं। ज़ाहिर है दक्षिण एशिया में भारत के सामरिक और आॢथक महत्त्व को समझते हुए ट्रंप यह सब कर रहे हैं। लेकिन कुछ जानकार यह भी कहता हैं कि इसके पीछे उनकी मंशा भारत के नेतृत्व को इस्तेमाल करने की भी हो सकती है। लिहाज़ा भारत को बहुत फूँक-फूँककर कदम उठाने चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन से बहुत तनाव होने की स्थिति में रूस के मुकाबले आज की तारीख में अमेरिका भारत के लिए ज़्यादा मददगार साबित हो सकता है। पिछले वर्षों में भारत के अमेरिका से सम्बन्ध एक नए स्थान पर पहुँचे हैं। इसके फायदे और नुकसान दोनों हैं, लेकिन यह तय है कि चीन यदि चीन भारत के साथ तनाव को युद्ध जैसी स्थिति में ले जाता है, तो यह निश्चित है कि अमेरिका भारत के साथ खड़ा होगा। यही नहीं चीन से नाराज़ बैठे देश भी चीन के खिलाफ लामबन्द हो सकते हैं, जिससे चीन के लिए विकट स्थिति बन सकती है।
पंगे करता रहा है चीन
ऐसा नहीं है कि आज के ताइवान और हॉन्गकॉन्ग ही चीन से परेशान रहे हैं। बहुत पहले से ही चीन ऐसी खुराफातें करता रहा है। तिब्बत इसका एक बड़ा उदहारण है। साल 1949 में चीन ने नूब्रा और झिनजियांग के बीच की सीमा को बन्द करके तेल व्यापार रोक दिया था। चीन ने इस क्षेत्र के तिब्बतियों को 1950 में घुसपैठ करके बहुत परेशान किया था। यहाँ तक की चीन सिक्किम को भी भारत का हिस्सा नहीं मानता।
साल 1962 में भारत के साथ युद्ध में चीन ने अक्साई चिन इलाके को कब्ज़ा लिया और इसके तुरन्त बाद झिनजियांग और तिब्बत के बीच सडक़ निर्माण शुरू करवा दिया। यही नहीं पाकिस्तान के साथ मिलकर चीन ने काराकोरम हाईवे भी बनवाया। इसके जवाब के लिए भारत ने लगभग उसी समय सामरिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण श्रीनगर-लेह हाईवे तैयार किया। अब लेह से श्रीनगर की दूरी सिर्फ दो दिन रह गयी; जबकि पहले यह करीब 16-17 दिन थी।
चीन बहुत पहले से ही विस्तारवादी नीति अपनाने वाला देश रहा है। हालाँकि यह भी सच है कि पाकिस्तान के आपरेशन जिब्राल्टर से पैदा किये हालात के बाद हुए 1965 के युद्ध और फिर 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय चीन पाकिस्तान का साथ देने की हिम्मत नहीं दिखा पाया था। तब इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में पाकिस्तान के दो टुकड़े करके भारत ने स्वतंत्र बांग्लादेश का गठन करवाया। इसके अलावा 1999 में कारगिल संघर्ष, जिसे कुछ लोग सीमित युद्ध भी कहते हैं; भी सीधे भारत-पाकिस्तान के ही बीच हुआ और चीन ने इसमें भी कोई दखल नहीं दिया।
लद्दाख का इलाका, जहाँ अब चीन ज़्यादा गतिविधियाँ कर रहा है; में कुछ मुद्दों को लेकर तनाव की स्थिति बनती रही है। लद्दाख को 1979 में दो अलग-अलग ज़िलों कारगिल और लेह में विभाजित कर दिया गया। इसके करीब नौ साल बाद 1989 में बौद्ध और मुस्लिम आबादी में तनाव पैदा हो गया, जिसके नतीजतन वहाँ साम्प्रदायिक दंगे भी हुए। उस समय लद्दाख के लोगों ने माँग की थी कि उन्हें कश्मीर से अलग कर दिया जाए और उन्हें यूटी का दर्जा दिया जाए। उनकी ज़रूरतों, भौगोलिक स्थिति और इच्छाओं का खयाल रखते हुए केंद्र सरकार ने 1993 में सीमित स्वायत्ता के तहत एलएचडीसी का गठन किया।
लद्दाख स्वायत्त हिल डेवलपमेंट परिषद् की स्थापना
चीन के साथ 1962 के युद्ध के समय से ही लद्दाख की सीमा को लेकर विवादों ने पीछा नहीं छोड़ा है। तबसे यहाँ हालात यहाँ पेचीदा रहे हैं और लद्दाख के उत्तर पूर्वी छोर पर भारतीय और चीनी सैन्य बलों की भारी तैनाती रही है। लद्दाख के चुमार जैसे इलाके पिछले कुछ साल में सीमा विवाद को लेकर सुॢखयों में रह चुके हैं।
चीन भले लद्दाख को लेकर शरारतें करता रहा हो, तिब्बत के कम्युनिस्ट नेता फुंत्स्योक वांग्याल लद्दाख को तिब्बत का हिस्सा बताते रहे हैं। हालाँकि साल 2014 में उनके निधन के बाद तिब्बत से ऐसी कोई बात नहीं उठी। अब जबकि चीन से भारत का तनाव चल रहा है और इसके केंद्र में लद्दाख का क्षेत्र है, भारत के धर्मशाला में स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांग्ये ने लद्दाख को भारत का हिस्सा बताया है। यहाँ यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि 1959 में तिब्बत छोडक़र भारत आने को मजबूर हुए तिब्बतियों के धाॢमक गुरु दलाई लामा के पीछे चीन के एजेंट हमेशा पड़े रहे हैं।
ताकत का नशा और असंतोष
शी जिनपिंग ही चीन में ऐसे नेता हैं, जिनके पास माओ त्स तुंग जैसी असाधारण शक्तियाँ हैं। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में उनकी ताकत का अहसास इस बात से हो जाता है कि मार्च 2018 में एक सांविधानिक संशोधन किया गया, जिसमें यह प्रावधान कर दिया गया कि जिनपिंग दो बार से ज़्यादा राष्ट्रपति रह सकते हैं। इससे पहले चीन में दो बार से ज़्यादा राष्ट्रपति न बन पाने की बाध्यता थी। इस तरह जिनपिंग के आजीवन राष्ट्रपति रहने का रास्ता साफ हो गया है। बशर्ते वह अपनी तरफ से पद न छोड़ दें या कोई हालात उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर न कर दें।
हालाँकि जिस तरह माओ तसे तुंग को अपनी आॢथक नीतियों के कारण सत्ता गँवानी पड़ी थी, कुछ वैसा ही जिनपिंग को भी आने वाले समय में झेलना पड़ सकता है। पश्चिम के मीडिया में पिछले कुछ समय से यह खबरें लगातार आ रही हैं कि चीन में असंतोष पैदा हो रहा है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी भले जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के सुपर पॉवर बनने की तरफ बढऩे की बात जनता को बता रही है; देश की आंतरिक स्थिति इसके विपरीत है।
चीन में सूचनाएँ देश से बाहर देने पर सख्त पाबन्दी है। लेकिन हाल के समय में ऐसी सूचनाएँ, खासकर पश्चिम में पहुँचने लगी हैं; जो यह संकेत देती हैं कि हालात वैसे नहीं हैं, जैसे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी बताती है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 2010 से 2020 के बीच अपनी अर्थ-व्यवस्था दोगुना करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन इस साल ऐसा हो पायेगा, इसकी दूर-दूर तक सम्भावना नहीं दिख रही। कम्युनिस्ट पार्टी लक्ष्य को हासिल करने के लिए चीन को इस साल 5.6 फीसदी की दर से आगी जाना होगा। लेकिन विशेषज्ञ 2.9 फीसदी से ज़्यादा की सम्भावना नहीं मान रहे।
चीन में 2022 में जिनपिंग का वर्तमान कार्यकाल पूरा होगा। वह फिर से राष्ट्रपति बनेंगे या नहीं, इसे लेकर अभी से अटकलें शुरू हो गयी हैं। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर नेतृत्व परिवर्तन पर विचार हो सकता है। यदि ऐसा होना होगा, तो 2021 के शुरू में इसका आभास हो जाएगा। ऐसे में जिनपिंग निश्चित ही दबाव में हैं। सीमा पर तनाव को बहुत से जानकार इन चुनावों से भी जोडक़र देखते हैं।
कोरोना के बाद चीन से विदेशी कम्पनियाँ निकलने लगी हैं। चीन ने हाल के साल में उत्पाद क्षमता को काफी बढ़ा लिया है। लेकिन माँग घटेगी, तो यह क्षमता बैकफायर भी कर सकती है। बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हो सकते हैं और पहले से पनप रहे सामाजिक असंतोष की चिंगारी भडक़ सकती है। जिनपिंग इस स्थिति के खतरे को समझते हैं। चीन की वहाँ लैब में कोविड-19 वायरस की उत्पत्ति की अटकलों और दुनिया भर में इससे हुई तबाही ने चीन को दुनिया के एक बड़े हिस्से से अलग-थलग करके रख दिया है।
खुद चीन के निजी निवेशकों में जिनपिंग पर से भरोसा कम हुआ है। कोरोना की जानकारी जिस तरह चीन के ही कुछ बुद्धिजीवियों ने चीन से बाहर पहुँचाने की कोशिश की, वैसे ही देश के भीतर असंतोष की खबरें भी बाहर जाने लगीं। चीन के शासकों ने भले इसके खिलाफ दमन की नीति अपनायी है; लेकिन लोग जोखिम उठाकर सूचनाएँ चीन से बाहर भेज रहे हैं।
चीन में कोरोना की जानकारी सबसे पहले दुनिया के सामने लाने वाले डॉक्टर ली वेनलियांग की संदिग्ध हालात में मौत से चीन की जनता में शासन के खिलाफ कई सवाल पैदा हुए हैं। सत्ता के केंद्रीकरण के खिलाफ माहौल बनना जिनपिंग के लिए खतरे की घंटी कही जा सकती है। ऊपर से चीन के मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा वर्तमान शासन व्यवस्था से मुक्ति की कल्पना करने लगा है। विशेषज्ञों के अनुसार, चीन के भीतर पनप रहा असंतोष धीरे-धीरे सामने आ रहा है। शी जिनपिंग के दुर्ग में भी दरार दिखायी देने लगी है। अभी कहना कठिन ही नहीं, बल्कि बहुत जल्दबाज़ी होगी कि जिनपिंग की सत्ता पर से पकड़ ढीली हो रही है। लेकिन संकेत ऐसे ज़रूर हैं कि नेतृत्व कहीं-न-कहीं चिन्तित है।
कहानी लद्दाख की
क्या आपको मालूम है कि जिस लद्दाख क्षेत्र में आज चीन अपनी गतिविधियाँ तेज़ कर रहा है, उस लद्दाख पर चीन ही नहीं, तिब्बत भी अपना अधिकार जताता रहा है। लद्दाख तिब्बत, भूटान, चीन, बाल्टिस्तान और कश्मीर के साथ कई संघर्षों के बाद 19वीं सदी से 5 अगस्त, 2019 तक कश्मीर का ही हिस्सा रहा। इतिहास के पन्ने उठाकर देखें, तो पता चलता है कि 19वीं शताब्दी में जब जम्मू-कश्मीर के डोगरा राजवंश के शासकों ने लद्दाख को हासिल किया, उससे बहुत पहले से लद्दाख का इतिहास 2,000 साल से भी पुराना है। हिमालय और काराकोरम पर्वत शृंखला के बीच बसे इस भूभाग पर समय-समय पर ताकतवर रहे तमाम देशों की नज़र रही है। बात शुरू करते हैं 17वीं सदी के अन्त से। उस समय जब तिब्बत से लद्दाख का विवाद चला, तो उसने खुद को भूटान के साथ जोड़ लिया। साल 1834 में महाराजा रणजीत सिंह के सिपहसालार जनरल ज़ोरावर सिंह ने लद्दाख को डोगरा वंश की लड़ाई लड़ते हुए जीता। साल 1842 में लद्दाख की तरफ से विद्रोह हुआ; लेकिन इसे कुचल दिया गया। इस तरह लद्दाख डोगरा और फिर जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बन गया। तब लद्दाख के शासक नामज्ञाल वंश को स्तोक की जागीर दी गयी और उन्हें वज़ीर-ए-वज़ारत की पदवी से नवाज़ा गया। साल 1850 के बाद लद्दाख में ब्रिटिश हुकूमत के साथ-साथ यूरोप ने भी दिलचस्पी दिखानी शुरू की। ब्रितानी हुकूमत ने 1885 में लेह में मोरावियन चर्च के मिशन का हेडक्वार्टर स्थापित किया। साल 1947 में जब बँटवारे के बाद भारत स्वतंत्र हुआ, उसके बाद कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 1948 में पाकिस्तानी कबीलाइयों ने लद्दाख के कारगिल और जंसकार में घुसकर इस हिस्से पर कब्ज़े की कोशिश की तो महाराजा के आग्रह पर प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की तरफ से भेजे गये भारतीय सैनिकों ने महाराजा की मदद की और कबीलाइयों को वहाँ से खदेड़ बाहर किया। महाराजा ने इससे प्रभावित होकर जम्मू-कश्मीर का भारत में सशर्त विलय कर दिया। इस तरह लद्दाख भारतीय जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बन गया। अगस्त 1995 में केंद्र में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने लद्दाख को जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा ही रखते हुए कुछ हद तक स्वायत्त बनाने के लिए वहाँ लद्दाख हिल डेवलपमेंट कॉउंसिल (एलएएचडीसी) स्थापित कर दी; जिसकी 30 सीटों के लिए चुनाव की व्यवस्था की गयी। साल 2019 में 5 अगस्त को भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर राज्य को तोड़ते हुए लद्दाख को उससे अलग करके केंद्र शासित प्रदेश (यूटी, बिना विधानसभा) का दर्जा दे दिया।
जब भारत से हारा था चीन
बेशक चीन से धोखा मिलने पर हुए 1962 के युद्ध में भारत को भीतर तक झकझोर देने वाली शिकस्त मिली थी, इसके सिर्फ पाँच साल बाद ही भारत ने दो बार चीन के दाँत बुरी तरह खट्टे किये थे। ऐसा माना जाता है कि भारत के सैनिकों की इस जाँबाज़ी का ही असर है कि चीन इसके बाद भारत से पंगा लेने की हिम्मत नहीं कर पाया। यह तब की बात है, जब लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मृत्यु के बाद इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बने एक ही साल हुआ था।
साल 1967 में भारत का चीन के साथ जो संघर्ष हुआ, उसमें चीन के सैनिक बड़े पैमाने पर मारे गये थे। यह एक ऐसा संघर्ष था, जिसका नतीजा यह हुआ कि उसके बाद जब भी कभी भारत के साथ चीन का तनाव बना, कभी भी उसमें गोली का इस्तेमाल नहीं हुआ। यह संघर्ष दो बार हुआ। पहली बार रणनीतिक रूप से बहुत अहम नाथू ला दर्रे में। करीब 14,200 फीट ऊँचाई पर स्थित नाथू ला दर्रा तिब्बत-सिक्किम सीमा पर है; जिससे होकर पुराना गैंगटोक-यातुंग-ल्हासा ट्रेड रोड (व्यापार मार्ग) गुज़रता है। साल 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान चीन के कहने पर भारत ने जेलेप ला दर्रा खाली कर दिया था। लेकिन नाथू ला दर्रे पर आज तक भारत का कब्ज़ा है। इसके बाद नाथू ला दर्रे को लेकर चीन भारत के साथ टकराव करने लगा। कुछ समय बाद ही यह दोनों देशों के सैनिकों के बीच धक्का-मुक्की में बदल गया।
इसके बाद 6 सितंबर, 1967 को भारत ने एक बड़ा फैसला किया। धक्का-मुक्की की एक घटना के बाद भारतीय सेना ने नाथू ला दर्रे से सेबू ला दर्रे के बीच तार बिछाने का फैसला किया। यह ज़िम्मा 70 फील्ड कम्पनी ऑफ इंजीनियर्स और 18 राजपूत बटालियन की टुकड़ी को सौंपा गया। चीन ने इसका काम रोकने को कहा। लेकिन भारतीय सैनिकों के ऐसा करने से मना करने पर गम्भीर तनाव बन गया और कुछ घंटे के बाद चीन के सैनिकों ने मशीन गन से गोलीबारी शुरू कर दी। अचानक हुए इस घटनाक्रम से भारत के सैनिक हक्के-बक्के रह गये। भारत के सैनिक शहीद भी हुए, जिससे भारतीय सैनिकों में गुस्सा भर गया। तब तक भारत के करीब 70 सैनिक, जिसमें कुछ अधिकारी भी शामिल थे; शहीद हो चुके थे। इसके बाद भारत ने ज़बरदस्त जवाबी हमला किया। 1962 के युद्ध की जीत के गुरूर से भरे चीन को इसकी कतई उम्मीद नहीं थी। सेबू ला और कैमल्स बैक क्षेत्र में अपनी ताकतवर रणनीतिक स्थिति का लाभ लेते हुए भारतीय सैनिकों ने आर्टिलरी शक्ति का इस्तेमाल कर चीनी सैनिकों के होश उड़ा दिये। चीन के कई बंकर ध्वस्त हो गये और एक अनुमान के मुताबिक, 400 से ज़्यादा चीनी सैनकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
लगातार तीन दिन भारत के सैनिक मोर्चे पर डटे रहे और चीन के हवाई हमले की धमकी के बावजूद भारत ने अपना इरादा नहीं बदला। लेकिन चीन की हिम्मत पस्त हो गयी और उसे फायङ्क्षरग रोकनी पड़ी। चीनियों को बड़े पैमाने पर मारे गये अपने सैनिकों के शव ले जाने पड़े। इस दौरान वहाँ हमारे सैनिक भारत माता की जय के नारे लगते रहे। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और लेफ्टिनेंट जनरल सैम मानेकशॉ जैसे वरिष्ठ सैनिक अफसरों की उपस्थिति में शवों की अदला-बदली हुई। हालाँकि चीन ने कुछ ही दिन बाद पहली अक्टूबर को फिर गुस्ताखी की। इस बार चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने चाओ ला क्षेत्र में भारत के सैनिकों को ललकारने की कोशिश की। लेकिन गोरखा राइफल्स और जैक राइफल्स ने चीन को फिर सबक सिखाया; जिसके बाद चीन शान्त होकर बैठ गया।
इन दो घटनाओं के बाद 1987 में फिर चीन ने भारत के साथ फिर भिडऩे की गुस्ताखी की। तब राजीव गाँधी देश के प्रधानमंत्री थे। यह वो समय था, जब राजीव गाँधी श्रीलंका में तमिल संघर्ष (एलटीईई) पर फोकस किये हुए थे। चीन 1986 से ही सीमा पर छिटपुट पंगे ले रहा था। संघर्ष की शुरुआत तवांग के उत्तर में समदोरांग चू रीजन में 1986 में ही हो गयी थी। चीन से निपटने के लिए उस समय के सेना प्रमुख जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी के नेतृत्व में ऑपरेशन फाल्कन की रूपरेखा तैयार हुई। साल 1987 में नामका चू में चीन ने झड़प की। उस समय भारतीय सेना नामका चू के दक्षिण में उपस्थित थी। हालाँकि भारत की एक टीम समदोरांग चू में भी पहुँच गयी। समदोरांग चू के भारतीय इलाके में चीन ने अपने तम्बू गाड़ दिये थे। भारत ने चीन को अपने क्षेत्र में लौट जाने के लिए कहा; लेकिन चीन ने लड़ाई की तैयारी के लिहाज़ से अपने सैनिकों का वहाँ बड़े पैमाने पर जमावड़ा कर लिया। चौकन्ने भारत ने भी इसके बाद वहाँ सेना को तैनात कर दिया। ऑपरेशन फाल्कन की योजना बनी और तवांग से आगे सडक़ नहीं होने के कारण 1986 में सेना प्रमुख बने जनरल सुंदरजी ने जेमीथांग में एक ब्रिगेड को एयरलैंड करवाया। रूस ने भारत को हैवी लिफ्ट एमआई-26 हेलीकॉप्टर कुछ महीने पहले ही दिये थे। भारत की सेना ने हाथुंग ला पहाड़ी पर स्थिति साध ली, जहाँ से समदोई चू और तीन और पहाड़ी इलाकों पर नज़र रखनी सुगम थी। ये ऊँची जगहें थीं; जिसे जंग में लाभकारी पोजीशन (एडवांटेज) माना जाता है।
ऑपरेशन के तहत लद्दाख के डेमचॉक और उत्तरी सिक्किम में भी भारत ने टी-72 टैंक उतार दिये गये; जिसने चीनी सेना के होश फाख्ता कर दिये। कहा जाता है कि चीन पर ज़बरदस्त दबाव बनाते हुए करीब 6.70 सैनिकों की बड़ी फौज वहाँ जुटा ली। चीन के हौसले पस्त हो गये और लद्दाख से लेकर सिक्किम तक चीनियों ने घुटने टेक दिये। चीन के खिलाफ इस रणनीतिक सैन्य जीत का लाभ उठाते हुए राजीव गाँधी सरकार ने बड़ा राजनीतिक फैसला करते हुए 20 फरवरी, 1987 को चीन की आँखों की किरकिरी बने रहने वाले अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया। यह घटनाएँ ज़ाहिर करती हैं कि चीन ये सबक याद करते हुए भारत के खिलाफ बहुत सोच-विचार करके ही संघर्ष की सोचेगा। इसके बाद भारत-चीन के बीच साल 2017 में डोकलाम में भी तनाव बना।
डोकलाम का एक हिस्सा सिक्किम में भारतीय सीमा से सटा है। चीन वहाँ सडक़ निर्माण करना चाहता है। भूटान भी इस इलाके पर अपना दावा जताता है और अभी तक वह भारत के साथ रहा है। भारत का भूटान को सैन्य और राजनयिक सहयोग रहा है; जबकि चीन से भूटान के कोई राजनयिक सम्बन्ध तक नहीं है। डोकलाम में 73 दिन तक तनाव रहा। सैनिकों की धक्का-मुक्की भी हुई। बाद में 9 सितंबर, 2017 को दोनों पक्षों में महज़ तीन घंटे में यह विवाद सुलझ गया।
सैन्य शक्ति : भारत बनाम चीन
भारत और चीन महाशक्ति माने जाते हैं। दोनों ने समय के साथ खुद को सैन्य और सामरिक दृष्टि से ताकतवर करने की कोशिश की है। देखते हैं कि हरेक क्षेत्र में दोनों देशों की क्या स्थिति है? सबसे पहले बात करते हैं दोनों देशों के रक्षा बजट की। अमेरिका के बाद दुनिया में चीन का ही रक्षा बजट सबसे ज़्यादा है। इस समय चीन का रक्षा बजट 179 अरब डॉलर के करीब है। इसके मुकाबले फरवरी में पेश किये बजट के गणित में रक्षा क्षेत्र का खर्चा करीब 70 अरब डॉलर है; जो चीन से कहीं कम और जीडीपी का महज़ 2.1 फीसदी है। थल सेना की बात करें, तो भारत के पास जवानों की संख्या 14.44 लाख है; जबकि 21 लाख रिजर्व सैनिक भी भारत के पास हैं।
चीन के पास 21.83 लाख सैनिक हैं। हालाँकि उसकी रिजर्व ताकत 5.10 लाख जवान ही हैं। इसके बाद बात नौसेना की शक्ति की। भारत के पास एक युद्धपोत है, जबकि 18 विमान वाहक युद्धपोत हैं। भारत के पास 10 विध्वंसक युद्धपोत हैं; जबकि लड़ाकू युद्धपोतों की संख्या 15 है। इसके अलावा 135 गश्ती युद्धपोत भी हैं। भारत के पास 20 लघु जंगी जहाज़ के अलावा 14 पनडुब्बियाँ, 295 समुद्री बेड़े भी हैं। भारत के पास 22 मंज़िल की इमारत जैसा ऊँचा आईएनएस विक्रमादित्य युद्धपोत है, जिसमें कामोव-31, कामोव-28, हेलीकॉप्टर, मिग-29के लड़ाकू विमान, ध्रुव और चेतक हेलिकॉप्टर, 30 विमान और एंटी मिसाइल प्रणालियाँ तैनात हैं; जो एक हज़ार किलोमीटर के बड़े दायरे में दुश्मन के लड़ाकू विमान और युद्धपोत को धवस्त करने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा आईएनएस चक्र-2 भी है, जो नाभिकीय ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी है। चीन की बात करें, तो उसकी नौसेना में भारत की तरह एक युद्धपोत है; जबकि विमान वाहक युद्धपोत 48, विध्वंसक युद्धपोत 35, लड़ाकू युद्धपोत 51, गस्ती युद्धपोत 220, छोटे जंगी जहाज़ 35, पनडुब्बियाँ 68 और 714 समुद्री बेड़े हैं। अब बात वायुसेना ताकत की। भारत की वायुसेना में करीब 1.40 लाख सैनिक हैं। हमारे पास 1700 एयरक्राफ्ट हैं, 900 कॉम्बैट एयरक्राफ्ट, 10 सी-17 ग्लोबमास्टर एयरक्राफ्ट और फ्रांस से आने वाले 36 राफेल फाइटर जेट जुडऩे वाले हैं। हाल ही में भारत ने स्वदेशी विमान तेजस की दूसरी स्क्वाड्रन वायुसेना में शामिल की है। इस स्क्वाड्रन को फ्लाइंग बुलेट्स का नाम दिया गया है। वायुसेना ने हल्के लड़ाकू विमान तेजस को एचएएल से खरीदा है। उधर चीन के पास दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी वायुसेना है और उसके पास 3.25 लाख के करीब सैनिक हैं। इसके अलावा चीन के पास 2800 मेन स्ट्रीम एयरक्राफ्ट, 1900 कॉम्बैट एयरक्राफ्ट, 192 एडवांस्ड लॉन्चर, ज़मीन से हवा में मार करने वाले एस-300 मिसाइल भी हैं। भारत की वायुसेना को चीन से बेहतर माना जाता रहा है। मिराज-2000, मिग-29, सी-17 ग्लोबमास्टर मालवाहक विमान और सी-130जे सुपर हरक्यूलिस मालवाहक विमान, सुखोई-30 लड़ाकू विमान, चिनूक हेलिकॉप्टर और राफेल जुडऩे से भारत की वायुसेना शक्ति बहुत मज़बूत है। भारत के पास राडार को भी फेल कर सकने वाली ब्रह्मोस जैसी मारक मिसाइल भी है। जहाँ तक एयरपोट्र्स की बात है, भारत के पास कुल 346 हवाई अड्डे हैं। इसके अलावा 1719 मर्चेंट मरीन, 13 पोर्ट और टॢमनल्स और 52.10 करोड़ लेबर फोर्स है। इसके मुकाबले चीन के पास 507 एयरपोट्र्स हैं, 4610 मर्चेंट मरीन, 22 पोर्ट और टर्मिनल्स और 80.67 करोड़ लेबर फोर्स है। इन आँकड़ों में समय-समय पर बढ़ोतरी होती रहती है। लिहाज़ा उपरोक्त आँकड़ों में भी हो सकती है।
देश के मान-सम्मान और स्वाभिमान पर किसी तरह की चोट को मोदी सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी। भारत और चीन लगातार सैन्य और कूटनीतिक रूप से सम्पर्क में लगे हुए हैं। अब तक का परिणाम सकारात्मक रहा है। लेकिन मैं सभी को आश्वस्त करना चाहता हूँ कि मोदी सरकार में भारत की अखण्डता और गरिमा पर कोई समझौता नहीं होगा। हम किसी के मान-सम्मान पर न चोट पहुँचाते हैं और न अपने मान-सम्मान और स्वाभिमान पर चोट बर्दाश्त कर सकते हैं; यह हमारा चरित्र रहा है। विपक्ष को भी मैं कहता हूँ कि भारत-चीन मामले पर हमें ज़्यादा समझाने की कोशिश मत कीजिए।
राजनाथ सिंह, रक्षा मंत्री
भारतीय सैनिक सीमावर्ती क्षेत्रों, खासकर चीन से लगती सीमा पर हमेशा शान्ति बनाये रखते हैं। हमारी उत्तरी सीमाओं पर इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षमताओं का तेज़ी से विकास हो रहा है। दोनों पक्षों ने स्थानीय स्तर पर बातचीत के ज़रिये मामले को सुलझाया है। सैनिकों के बीच हुई झड़प की दोनों घटनाओं का मौज़ूदा घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों से कोई सम्बन्ध नहीं है।
मनोज मुकुंद नरवणे, सेना प्रमुख
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी सैनिकों के लद्दाख में घुसने के बाद भी चुप रहे हैं। मोदी इस मामले से गायब दिख रहे हैं। खबरें हैं कि चीनी सैनिक लगातार सीमा के अन्दर आ रहे हैं; लेकिन सरकार इस पर खामोशी ओढ़े हुए है। प्रधानमंत्री मोदी को इस पर चुप्पी तोडऩी चाहिए।
राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता