इस बार ‘तहलका’ में राकेश रॉकी की आवरण कथा इस बात पर प्रकाश डालती है कि किसानों का कृषि कानूनों के खिलाफ 50 से ज़्यादा दिन से विरोध क्यों जारी है? और क्यों सरकार के प्रति उनमें भरोसा नहीं है? पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम इसकी पुष्टि करते हैं। किसानों द्वारा हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी विशेषज्ञ समिति को अस्वीकार कर देना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इस समिति का गठन किसानों और सरकार के बीच मध्यस्थता के लिए किया गया है। समिति को अस्वीकार करने और दूसरी किसान गतिविधियों से साबित होता है कि किसान संगठन परदे के पीछे के खेल को अच्छी तरह से समझ रहे हैं। उन्होंने न केवल अपनी ओर से समिति को खारिज कर दिया है, बल्कि विवादास्पद कानूनों को निरस्त करने तक मंत्रणा प्रक्रिया में भाग लेने से इन्कार कर दिया है। एक मज़ूबत निर्णय लेकर किसान निश्चित ही एक जाल में फँसने से बच गये हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि चुनी गयी समिति के सदस्यों ने कृषि कानूनों के प्रति समर्थन व्यक्त किया है और वास्तव में उनका अविश्वास और संदेह सही साबित हुआ। समिति के चार सदस्यों में से एक, भारतीय किसान यूनियन (मान) के अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह मान ने विवाद पैदा होते ही खुद को इससे अलग कर लिया है। यूनियन के ट्विटर हैंडल पर जारी एक बयान में उन्होंने कहा कि किसान यूनियनों और आम जनता की भावनाओं और आशंकाओं को देखते हुए मैं समिति के सदस्य के रूप में दिया गया पद छोडऩे के लिए तैयार हूँ; ताकि पंजाब और देश के किसानों के हितों से समझौता न हो। समिति का अच्छा होना इसके सदस्यों पर निर्भर है और किसान संगठन शुरू से ही समिति की संरचना को लेकर आशंकित थे।
कड़ाके की ठंड और बारिश जैसी विपरीत परिस्थितियों में दिल्ली की सीमाओं पर शान्तिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन कर रहे किसान तीनों नये कृषि कानूनों को निरस्त करने की माँग कर रहे हैं और उन्हें इससे कम में कुछ स्वीकार नहीं है। आन्दोलनकारी किसानों ने लोहड़ी पर्व पर तीनों कृषि कानूनों की प्रतियाँ जलाते हुए कहा कि नये कानून राज्यों के कृषि संरक्षण को कम करते हैं और किसानों को कॉर्पोरेट घरानों की दया पर छोड़ते हैं। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि निजी निवेश से कृषि क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा और किसानों की दशा में सुधार होगा। बहरहाल, समाज के विभिन्न वर्गों की भावना और समर्थन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जब तक सरकार किसानों की बात नहीं सुनती है, तब तक मसले का कोई अन्त नहीं हो सकता।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा कि ये जीवन और मृत्यु के मामले हैं। हम कानूनों से चिन्तित हैं। हम आन्दोलन से प्रभावित लोगों के जीवन और सम्पत्ति को लेकर चिन्तित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही अगले आदेश तक कृषि कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगायी है। गणतंत्र दिवस की परेड के दौरान दिल्ली में किसानों की प्रस्तावित ट्रैक्टर परेड को टालने के लिए अदालत के हस्तक्षेप ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी है। यह एक संकट की स्थिति है, जब मानवता पीडि़त है और पहले से ही 100 से अधिक ज़िन्दगियाँ जा चुकी हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही किसानों के आन्दोलन से निपटने के तरीके पर नाखुशी, प्रदर्शनकारियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के खराब होने के प्रति चिन्ता जतायी है और रक्तपात की चेतावनी दी है। क्योंकि समय जटिलता को हल करने के लिए त्वरित कार्रवाई का है।