जब भगवंत सिंह मान ने 16 मार्च को पंजाब के 17वें मुख्यमंत्री के रूप में क्रान्तिकारी भगत सिंह के पैतृक गाँव खटकर कलां में शपथ ली, जो नवांशहर के बंगा में पड़ता है; तब उस विशाल सभा में उमड़ी भीड़ में से बहुत-से लोगों को एक अलौकिक संयोग का अहसास नहीं था। यद्यपि 23 मार्च, 1931 में भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी दी गयी थी। हालाँकि मुख्यमंत्री ने पूरे गाँव को जोश से भर दिया, जब उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे के साथ अपना शपथ ग्रहण समारोह समाप्त किया, जो कि अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध में भगत सिंह का नारा था। देश में एक्स और ज़ेड (1965 और 1995 के बाद की) पीढिय़ों में से बहुत-से लोग शायद भगत सिंह और तत्कालीन औपनिवेशिक ब्रिटिश शासकों के ख़िलाफ़ उनकी वीरतापूर्ण लड़ाई के बारे में नहीं जानते होंगे। कुछ मायनों में वह एक प्रतिभाशाली और जन्मजात नेता थे। भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता कृष्ण सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में और चाचा अजीत सिंह मांडले जेल में थे। वह अपने पिता और चाचा दोनों के कारनामों की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए थे। गदर आन्दोलन ने भी उनके प्रभावशाली मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। उनके नायक तब एक और क्रान्तिकारी करतार सिंह सराभा थे, जिन्हें पहले लाहौर षड्यंत्र मामले में फाँसी दी गयी थी, जब वह मुश्किल से 19 वर्ष के थे। 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में हुए नरसंहार ने भी उनके दिमाग़ पर इतना गहरा ज़ख्म छोड़ा था कि वह लाहौर से अमृतसर तक सिर्फ़ उस ज़मीन को चूमने के लिए चले आये, जिसे शहीदों के ख़ून से पवित्र माना गया था।
भगत सिंह ने शुरू में लाहौर के डीएवी स्कूल में पढ़ाई की थी (संयोग से यह मेरा भी स्कूल था)। उन्होंने सन् 1921 में राष्ट्रीय विद्यालय में प्रवेश लिया, जिसे लाला लाजपत राय, भाई परमानंद और सूफ़ी अंबा प्रसाद की तिकड़ी ने स्थापित किया था। तब वह सिर्फ़ 14 साल के थे। यहीं उनकी मुलाक़ात अपने भावी साथियों- सुखदेव, भगवती चरण वोहरा और यशपाल से भी हुई थी। नेशनल स्कूल में प्रो. जय चंद्र विद्यालंकर उनके गुरु बन गये थे, और तत्कालीन संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में क्रान्तिकारियों के कारनामे उन्हें सुनाये थे। उन सभी क्रान्तिकारी कहानियों ने इस युवा किशोर को इतने गहरे से प्रेरित किया था कि उन्होंने इसी समय वहाँ भारत माता को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फ़ैसला किया।
विवाह का प्रस्ताव
जब भगत सिंह नेशनल स्कूल में थे, तब उनके पिता ने उनसे सलाह लिये बिना ही उनकी शादी तय कर दी थी; जिससे भगत सिंह एक उलझन भरी स्थिति में आ गये थे। हालाँकि उन्होंने न कहने का पर्याप्त साहस जुटाया। जब उनके पिता यह कहते हुए ज़िद करने लगे कि उन्होंने पहले ही इसे स्वीकार कर व्यवस्था कर ली है, तो 14 वर्षीय भगत सिंह ने अपने पिता को लिखा- ‘आदरणीय पिताजी! यह शादी का समय नहीं है। देश मुझे बुला रहा है। मैंने शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप (तन-मन-धन) से देश की सेवा करने की शपथ ली है। यह हमारे लिए कोई नयी बात नहीं है। हमारा पूरा परिवार देशभक्तों से भरा है। सन् 1910 में मेरे जन्म के दो या तीन साल बाद चाचा स्वर्ण सिंह की जेल में मृत्यु हो गयी थी। चाचा अजीत सिंह विदेशों में निर्वासन का जीवन जी रहे हैं। आपने भी जेलों में बहुत कुछ सहा है। मैं केवल आपके पदचिह्नों पर चल रहा हूँ और इस प्रकार ऐसा करने का साहस करता हूँ। आप कृपया मुझे विवाह में न बाँधें, बल्कि मुझे अपना आशीर्वाद दें, ताकि मैं अपने मिशन में सफल हो सकूँ।’
जब उनके पिता ने यह कहते हुए विरोध किया कि उन्होंने पहले ही शादी तय कर ली है, तो भगत सिंह ने उन्हें फिर से लिखा- ‘आदरणीय पिता जी! मैं आपके पत्र की सामग्री को पढक़र चकित हूँ। जब आप जैसे कट्टर देशभक्त और बहादुर व्यक्तित्व को ऐसी छोटी-छोटी बातों से प्रभावित किया जा सकता है, तो आम आदमी का क्या होगा? हाँ, आप दादी (मेरी दादी) की देखभाल कर रहे हैं; लेकिन कल्पना कीजिए कि हमारी 33 करोड़ (लोगों) की भारत माता कितनी मुसीबत में है। हमें अभी भी उसकी ख़ातिर सब कुछ बलिदान करना है।’ घर छोडऩे से पहले भगत सिंह ने अपने पिता के लिए एक पत्र छोड़ा, जिसमें कहा गया था- ‘नमस्ते, मैं अपना जीवन मातृभूमि की सेवा के उच्च लक्ष्य के लिए समर्पित करता हूँ। इसलिए मेरे लिए घर और सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए कोई आकर्षण नहीं है। मुझे आशा है कि आपको याद होगा कि मेरे पवित्र सूत्र समारोह के अवसर पर बापूजी ने घोषणा की थी कि मुझे देश की सेवा के लिए दान दिया जा रहा है। मैं बस उस प्रतिज्ञा को पूरा कर रहा हूँ। मुझे आशा है कि आप मुझे क्षमा करेंगे।’
बौद्धिक दिग्गज
भगत सिंह को एक महान् देशभक्त और एक असाधारण क्रान्तिकारी के रूप में देश में सभी जानते थे। लेकिन हममें से बहुत-से लोग नहीं जानते थे कि वह एक बौद्धिक दिग्गज, एक उत्साही माक्र्सवादी विचारक और एक विचारक भी थे। एक उत्कृष्ट विद्वान, जिसने अपनी रचनात्मकता को अपनी उद्भुत डायरी के पन्नों में जेल में लिखा था। उस कम उम्र में भी, वह एक उत्साही पाठक थे और उन्होंने ‘पूँजीवाद, समाजवाद, विश्व क्रान्तिकारी आन्दोलनों और बोल्शेविक क्रान्ति के इतिहास की गहन समझ और अन्य जानकारी हासिल कर ली थी।’
सन् 1923 में भगत सिंह केवल 16 वर्ष के थे। सन् 1930 तक केवल सात वर्षों की अवधि में उन्होंने ईश्वर, रहस्यवाद और धर्म, कला, साहित्य, संस्कृति, अतीत और समकालीन क्रान्तिकारियों की जीवनी के साथ-साथ राजनीतिक नेताओं जैसे विभिन्न विषयों पर उग्र रूप से लिखा। अपने निबन्ध ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ में ‘धर्म की भूमिका और ईश्वर के अस्तित्व’ का विश्लेषण करते हुए भगत सिंह ने समझाया था कि आदिम मनुष्य के लिए ईश्वर एक उपयोगी मिथक बन गया। संकटग्रस्त और असहायों के लिए उन्होंने पिता, माता, बहन, भाई, मित्र और सहायक के रूप में सेवा की। इस प्रकार एक तरह से भगवान और धर्म उस व्यक्ति के बचाव में आये, जो न तो साहसी था और न ही उसके आस-पास की चीज़ों की कोई वैज्ञानिक या तर्कसंगत समझ थी।’
आधुनिक विज्ञान की प्रगति और उनकी मुक्ति के लिए उत्पीडि़तों के बढ़ते संघर्ष के साथ आदमी इस कृत्रिम बैसाखी की आवश्यकता के बिना अपने दो पैरों पर खड़ा हो गया। इस प्रकार इस काल्पनिक उद्धारकर्ता की आवश्यकता समाप्त हो गयी।
विधानसभा में बम
भगत सिंह के सबसे यादगार क्रान्तिकारी कार्यों में से एक सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पोयंत्ज सॉन्डर्स की हत्या थी। दुर्भाग्य से यह ग़लत पहचान का मामला था। मूल लक्ष्य पुलिस अधीक्षक जेए स्कॉट था, जिसके बारे में माना जाता था कि उसने 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में एक जुलूस के दौरान लाला लाजपत राय पर हमला किया था, जो घातक साबित हुआ था। दूसरा, विजिटर्स गैलरी से 8 अप्रैल, 1929 को केंद्रीय विधानसभा में दो बम फेंकना था। बम आधिकारिक सदस्यों के क़ब्ज़ें वाली बेंचों के पास फट गये थे, जिससे कुछ को मामूली चोटें आयीं। इन दो घटनाओं के विवरण पर ध्यान देना मेरा उद्देश्य नहीं है। इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि दोनों ही घटनाओं ‘सांडर्स की हत्या और सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने’ की पूरी तैयारी की गयी थी। दोनों कामों को सफलतापूर्वक अंजाम भी दिया गया।
भगत सिंह जेलों में राजनीतिक बंदियों के साथ किये जाने वाले व्यवहार के बारे में बहुत सजग थे। 14 जुलाई, 1929 के द ट्रिब्यून में प्रकाशित एक पत्र में भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने अपने ठोस विचार व्यक्त किये थे- ‘सर! हम भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को 19 मई, 1929 को दिल्ली के असेंबली बम मामले में आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी थी। जब तक हम दिल्ली जेल में विचाराधीन क़ैदी थे, हमें बहुत बेहतर तरीक़े से रखा जाता था। बेहतर उपचार किया गया और अच्छा आहार दिया गया; लेकिन उस जेल से क्रमश: मियाँवाली और लाहौर सेंट्रल जेल में हमारे स्थानांतरण के बाद से हमारे साथ सामान्य अपराधियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। पहले ही दिन हमने उच्चाधिकारियों को प्रार्थना-पत्र लिखकर बेहतर आहार और कुछ अन्य सुविधाओं की माँग की और हमने जेल का आहार लेने से इन्कार कर दिया।
उन्होंने लिखा- ‘हमारी माँगें इस प्रकार थीं- राजनीतिक क़ैदियों के रूप में हमें बेहतर आहार दिया जाना चाहिए और हमारे आहार का स्तर कम से कम यूरोपीय क़ैदियों के समान होना चाहिए। हम सिर्फ़ आहार की समानता की ही माँग नहीं करते हैं, बल्कि आहार के मानक में भी समानता होनी चाहिए। हमें कोई कठोर या अशोभनीय श्रम करने के लिए बिल्कुल भी बाध्य नहीं किया जाए। लिखित सामग्री के साथ-साथ प्रतिबंधित पुस्तकों के अलावा सभी पुस्तकों को हमें बिना किसी प्रतिबंध के अनुमति दी जानी चाहिए।’
उन्होंने लिखा- ‘हमने उपरोक्त माँगों को समझाया है, जो हमने की थीं। वे सबकी तरफ़ से वाजिब माँगें थीं। जेल अधिकारियों ने एक दिन हमसे कहा कि उच्च अधिकारी हमारी माँगों को मानेंगे। इसके अलावा वे बहुत-ही कठोरता से पेश आते हैं। भगत सिंह 10 जून, 1929 को जबरन खिलाने के बाद लगभग 15 मिनट तक बेसुध पड़े रहे, जिसे हम बिना किसी देरी के रोकने का अनुरोध करते हैं। इसके अलावा हमें पंडित जगत नारायण और ख़ान बहादुर हाफ़िज़ किदायत हुसैन द्वारा संयुक्त प्रान्त जेल समिति की सिफ़ारिशों के उल्लेख करने की अनुमति दी जाए। उन्होंने राजनीतिक क़ैदियों को बेहतर श्रेणी के क़ैदियों के रूप में व्यवहार करने की सिफ़ारिश की है।’
भगत सिंह और उनके दो साथियों ने 23 मार्च, 1931 को मौत की सज़ा और उसके निष्पादन के बीच 166 दिनों की अंतरिम अवधि को चिन्तन और अध्ययन में बिताया था। 2 फरवरी, 1931 को युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लिखे एक पत्र में उन्होंने उन्हें सलाह दी थी- ‘समझौता एक आवश्यक हथियार है, जिसे संघर्ष के विकास के साथ-साथ समय-समय पर चलाना पड़ता है। लेकिन जो चीज़ हमें हमेशा अपने सामने रखनी चाहिए, वह है- ‘आन्दोलन का विचार।’ जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं, उसके बारे में हमें हमेशा स्पष्ट धारणा बनाकर रखनी चाहिए।’
उन्होंने आगे लिखा- ‘ज़ाहिर है मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है; लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं पूरी ताक़त के साथ घोषणा करता हूँ कि मैं आतंकवादी नहीं हूँ और न ही कभी था। मैं वास्तव में निश्चित आदर्शों और विचारधारा के साथ एक क्रान्तिकारी रहा हूँ।’
भगत सिंह अपने परिवार से आख़िरी बार 3 मार्च को मिले थे। उन्होंने अपने छोटे भाई कुलतार को पत्र में लिखा- ‘प्रिय कुलतार! आज आपकी आँखों में आँसू देखकर मुझे बहुत दु:ख हुआ। आपकी बातों में गहरा दर्द था। मैं तुम्हारे आँसू नहीं देख सका। मेरे भाई! दृढ़ संकल्प के साथ अपनी पढ़ाई करो और अपने स्वास्थ्य की देखभाल करो।’ वह विश्वासघात के नये रूपों को गढऩे के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं, और लिखते हैं- ‘हम यह देखने के लिए उत्सुक हैं कि दमन की क्या सीमाएँ हैं? हम दुनिया से नाराज़ क्यों हों? और क्यों शिकायत करें? हमारी दुनिया एक न्यायसंगत (आदर्श) है। हम इसके लिए लड़ें। मैं तो बस चंद पलों का मेहमान हूँ। साथियों, मैं वह दीया हूँ, जो भोर से पहले जलता है और बुझने को तरसता है। हवा मेरे विचारों का सार फैलायेगी। यह आत्मा तो मुट्ठी भर धूल है। चाहे वह जीवित रहे या नाश हो।
अच्छा नमस्ते
ख़ुश रहो देशवासियो! मैं यात्रा के लिए निकला हूँ।
निडर होकर जियो।
नमस्ते
आपका भाई
भगत सिंह
फिर अन्त में शाम 7:15 बजे 23 मार्च, 1931 सोमवार को ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की तिकड़ी ने फाँसी का फंदा चूमते हुए शहादत को गले लगा लिया। अगले दिन 24 मार्च को पूरे देश ने अपने वीरों की फाँसी पर शोक व्यक्त किया।
भगत सिंह के जीवन पर कुछ विचार ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित ए.जी. नूरानी की पुस्तक ‘द ट्रायल ऑफ भगत सिंह : पॉलिटिक्स ऑफ जस्टिस’ से लिए गये थे। मैं उनका और प्रकाशकों का आभारी हूँ।
(राज कँवर 91 वर्षीय वयोवृद्ध पत्रकार और लेखक हैं। उनकी नवीनतम पुस्तकें डेटलाइन देहरादून और इसकी अगली कड़ी हैं।)