जब देश की अर्थ-व्यवस्था गम्भीर गिरावट का सामना कर रही है, कोविड-19 के मामलों में जबरदस्त बढ़ोतरी हो रही है और सीमाओं पर तनाव है, तब भी कांग्रेस केंद्र सरकार को घेरने में नाकाम दिख रही है। दरअसल कांग्रेस ने केंद्र सरकार को उसकी नाकामियों पर घेरने के अब तक कई बेहतरीन अवसर खो दिये हैं। पता नहीं क्यों मुख्य विपक्षी दल निश्चित ही केंद्र के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाने के लिए बहुत बेहतर स्थिति में नहीं दिखता? देश का यह सबसे पुराना राजनीतिक दल लम्बे समय से दोहरी चुनौतियों से जूझ रहा है। इसमें पहली चुनौती है- अभी तक एक पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो पाना और दूसरी बड़ी चुनौती है- पार्टी के आंतरिक संकटों को हल करना।
इसे लेकर पिछले दिनों कांग्रेस के 23 नेताओं ने पार्टी में सुधारों की माँग को लेकर सोनिया गाँधी को एक पत्र लिखा था, जिसे पार्टी में विद्रोह का लेटर बम कहा गया और कई नेता इस पर नाराज़ हुए। अब पूर्व केंद्रीय मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने बिहार चुनाव के नतीजों के बाद तल्ख भाषा में कहा है कि हम हाल के चुनावों पर कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं; ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने इस स्थिति को ही पार्टी की नियति मान लिया है। सिब्बल की एक सफल वकील और एक सफल प्रवक्ता के रूप में भले ख्याति है और वह केंद्र में कांग्रेस के कार्यकाल में कई मंत्रालय भी सँभाल चुके हैं; लेकिन इस बयान के बाद पार्टी में उनके खिलाफ आवाज़ें उठ रही हैं और उनकी आलोचना हो रही है। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने असंतुष्टों से बहुत कड़े शब्दों में बाहर जाने का सुझाव देते हुए कहा है कि वे (असंतुष्ट नेता) नयी पार्टी बना सकते हैं या ऐसी पार्टी में जा सकते हैं, जो उनकी रुचि के अनुरूप हो।
कोई भी पार्टी भीतरी कलह से पूरी तरह सुरक्षित होने का दावा नहीं कर सकती; लेकिन जब कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी के प्रदर्शन को लेकर उसके 23 वरिष्ठ नेता पार्टी नेतृत्व को पत्र लिखते हैं, तो नेतृत्व को नींद से जागना चाहिए; मगर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं बदला। 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए राहुल गाँधी के अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद से अभी तक पार्टी के पास पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है; जबकि अध्यक्ष पद के चुनाव की चर्चा चलते-चलते 15 महीने से ज़्यादा बीत चुके हैं। पार्टी के कुछ नेता अभी भी लेटर बम फोडऩे वाले 23 नेताओं पर प्रहार करने में अपनी ऊर्जा खर्च करने में लगे हैं।
नयी समितियों के गठन को छोडक़र पार्टी के भीतर कोई आत्मनिरीक्षण नहीं किया गया है, जो यह बताता है कि पार्टी व्यापक सुधारों के लिए तैयार नहीं है। पार्टी के पदाधिकारियों का कहना है कि कुछ वरिष्ठ नेता अध्यक्ष चुनाव को टालने के लिए नेतृत्व पर ज़ोर दे रहे हैं; क्योंकि उन्हें खुद के दरकिनार किये जाने का डर सता रहा है। इनमें से कई नेता लम्बे समय से चुनाव नहीं लड़े हैं और ज़मीनी हकीकत से दूर हैं। जो भी हो फिलहाल गाँधी परिवार को यह समझने की ज़रूरत है कि पार्टी अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता तभी जारी रख सकती है, जब या तो वो खुद (गाँधी परिवार) नेतृत्व छोड़ दे, या पार्टी में स्वार्थ साधने की कोशिशों में लगे रहने वाले नेताओं की अनदेखी करके दमदार तरीके से मैदान में उतरे; केंद्र की नीतियों के खिलाफ भी और आगामी चुनावों में जीत के लिए भी। मौज़ूदा सरकार पर हमले के लिए मुद्दों का इतना बारूद उपलब्ध है कि उसे खुद की कमियों को सुधारने के लिए मजबूर किया जा सकता है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की ज़िम्मेदारी है कि वह लम्बे समय से अटके संगठनात्मक सुधार की घोषणा करे और आंतरिक असंतोष को खत्म करे। हालाँकि सबसे बड़ा सवाल शेक्सपियर की पंक्तियों- ‘यह हो सकता, या नहीं हो सकता’ में निहित है। क्या कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठाते हुए सरकार के सामने खड़ी होगी? जो एक मुख्य विपक्षी दल होने के नाते उसकी पहली ज़िम्मेदारी है; या फिर इस बड़े अवसर को हाथ से जाने दे!