अजीब हलचल है सूरज के द्वार पर! हवाओं ने बोलना शुरू कर दिया है। बरसों बरस से चुप बैठी औरतें बोलने लगी हैं। इसलिए नहीं कि बोलना उन्हें पहले नहीं आता था या वे बोलना नहीं चाहती थीं पर कभी परम्परा के नाम पर तो कभी समाज की बेहतरी और उनके अपने आत्म सम्मान के शरीरीकरण के नाम पर उन्हें घेरघार कर चुप करा दिया जाता था । पर अब समय बदल रहा है । बदलते समय के साथ चैखटों-दहलीजों और आँगन के भीतर की दबी आवाजें भी बाहर आने की कोशिश कर रही हैं- पर दरवाजा बड़ा ताकतवर है – चैड़ा,महान और विस्तृत – अपने ही आतंक से आतंकित, चैड़े कंधे पर भीतर से डरा हुआ!
जब जब समाज में किसी भी वर्ग को उपेक्षित मानकर उसे दबाया, नकारा और शोषित किया, तब – तब आवाज उठती रही है पर स्त्रियाँ सदैव ही चुप रही है – कभी देवदासी बनकर सहने के लिए तो कभी चारदीवारी के भीतर के झूठे सम्मान की रक्षा के नाम पर । शोषण सदैव होता रहा पर आवाजें या तो दब गईं या सम्मान के नाम पर दबा दी गईं।
बचपन में सुना करती थी कि फैक्ट्री, कॉरपोरेट में काम करने वाली लडकियाँ अच्छी नहीं होती । न जाने क्या-क्या करती हैं आगे बढऩे के लिए! सुनकर सवाल तो मन में तब भी उठता था कि जो पुरुष उन्हें मजबूर करते हैं- उनके चरित्र पर कोई टिप्पणी क्यों नहीं सुनाई देती? क्यों ये लडकियाँ यौन शोषण को समझौता मानकर सह लेती हैं? कुछ कहती क्यों नहीं । शायद सब सवाल ठीक ऐसे ही तो नहीं होते होंगे पर अहसास यही था। फिर फेक्ट्री या कॉरपोरेट ही क्यों आज फिल्म जगत से लेकर खेल और शिक्षा जगत भी इससे अछूता नहीं ।
फिर कुछ बड़े होने पर अनेक कहानियाँ और इतिहास के किस्से दिखाई और सुनाई दिए । देखा और समझा कि हर देश के किस्सों और इतिहास में शोषण-विशेषकर स्त्री शोषण के जटिल ताने-बने मौजूद हैं और इस इतिहास में गर्वीले तने पुरुष के रूप में अनेक राजे-महाराजे दिखाई देते हैं । पर उस युग में स्त्री की आवाज सुनाई नहीं देती बल्कि पश्चाताप और अपमान से दहित होते हुए भी मौन रहने का भार उसी पर लाद दिया जाता रहा – अहिल्या बनाकर! एक पुरुष द्वारा यौन अपमानित, दूसरे द्वारा परित्यक्त, तीसरे द्वारा उद्धार पर स्त्री के पक्ष में आया सिर्फ दीर्घ मौन।
शोषण का इतिहास बहुत पुराना है- कभी जाति तो कभी लिंग और वर्ग के आधार पर शोषण हर समाज में होता रहा है पर समाज के एक बड़े समूह की आवाज की अनदेखी सदैव ही होती रही । शोषण करने वाले महान और शोषण सहने वाले दब्बू बनते चले गए । हाल ही में एक मिथकीय कथा सुनी जिसके अनुसार चन्द्र एक स्त्री के सौन्दर्य से इतने प्रभावित हुए कि धरती पर उतर कर उसके साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने पर विवश हो गए! सुबह होने पर जब उस स्त्री ने चन्द्र से विवाह का अनुरोध किया तो चन्द्र ने अपनी विवशता जाहिर करते हुए इंकार कर दिया साथ ही उसे एक पुत्र का वरदान दिया। इस पुत्र के उत्पन्न होने पर स्त्री को जिस अपवाद का सामना करना पड़ेगा उसके बदले वह पुत्र बड़ा होकर कुछ ऐसे स्मारकों का निर्माण करेगा, जिससे उस स्त्री के पापों का प्रक्षालन हो सके! अजब-गजब कहानियाँ और अजब गजब निष्कर्ष! क्या इस स्त्री को यह अधिकार मिला होगा कि वह बरसों बरस बाद ही सही अपनी बात कह सके! यह तो फिर भी शोषण की ऐसी कथा कह कर नकारी जा सकती है जिसमें स्त्री की सहमति( भले ही मूक) ढूंढी जा सकती है पर उन कथाओं का क्या करेंगे, जिनके मूल में स्त्री की सहमति और असहमति का प्रश्न ही नहीं बल्कि शोषण को सहन करना अनिवार्यता मान ली गई हो?
मी टू एक ऐसे ही आन्दोलन के रूप में उभरा जिसने उन मूक दबी आवाजों में से कुछ ही सही पर उन आवाजों को कब्र के भीतर से बोलने का साहस दिया । आप इससे सहमत हो या असहमत पर यह तो मानना पड़ेगा कि अब उपेक्षित और सबाल्टर्न ने उस मुख्य धारा के खिलाफ आवाज बुलंद कर दी है ,जो जातीय शोषण के साथ लैंगिक शोषण को भी अपना अधिकार मानकर बैठा था । हलचल ज्यादा है और दबाने का प्रयास भी उतने ज्यादा! हो सकता है कि 100 में से दो चार मामले गलत भी साबित हो जाएँ पर क्या उससे बाकी मामलों को खारिज करने का अधिकार मिल जाता है? कतई नहीं। अब हम सब को अपने गिरेबाँ में झांककर देखना होगा कि कहीं वर्ग, जाति भेद इस लिंग भेद की तरह हमारे भीतर कुंडली मारकर तो नहीं बैठा! यदि बैठा है और अहसास हो चुका है, तो उससे अलग हो जाने में ही समझदारी है । कैसा वीभत्स, भयावह और क्रूर, पाशविक होगा कोई भी समाज जहाँ इन घटनाओं के सामने आने पर उसी व्यक्ति को ही दोषी मान लिया जाए जो अपने साथ हुए शोषण की बात करने का साहस न जाने कितनी यातनाओं से गुजर कर जुटा पाया हो! तनुश्री दत्ता अथवा पल्लवी गोगोई कोई एक या दो नाम नहीं, न ही इस बात का ही महत्त्व है कि किस स्त्री ने किस पुरुष पर शोषण का आरोप लगाया क्योंकि बरसों- बरस बाद न तो इसका लाभ उस स्त्री को मिल सकता है न हीे न्याय, पर महत्त्व इस बात का है कि बरसों बाद ही सही पर उस सहमी कुचली स्त्री ने उस साहस को भी जुटा लिया जिसे आधार बनाकर उसका सर्वाधिक चरित्र हनन किया जाता रहा है । एक बड़े समूह द्वारा इस आन्दोलन को यह कहकर भी खत्म करने के कोशिश की गई कि यह केवल शहरी महिलाओं और सोशल मीडिया का झूठा फिनोमिना है गाँव और देहात के औरतों के लिए इस बात की कोई महत्ता नहीं! पर क्या यह कहने भर से इस बात से इंकार किया जा सकता है कि यौन शोषण की परम्परा नहीं रही है? क्या हमारे पितृसत्तावादी समाज में स्त्रियों का बाल विधवा, देवदासी होने के नाम पर शोषण की परम्परा नहीं रही?
एक बात और, हो सकता है कि शोषण करने वाले का इतिहास सचमुच इतना बड़ा हो और उसका योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कि उस पर लगने वाले आरोप से लोग सनाका रवा जाएँ पर इससे सही और गलत का निर्णय नहीं बदल जाता! उन अंधेरी और घुटन भरी रातों का क्या कोई हिसाब दे सकता है जिससे गुज़रकर इन स्त्रियों ने यह साहस जुटाया और सामने आकर खुद पर हुए शोषण पर बात करने की हिम्मत की । विदेश से शुरू हुई या देश से पर इस आवाज को नकारने वालों को एक बार ठहर कर सोचना अवश्य चाहिए कि जाने अनजाने वे दुष्कर्म को प्रोत्साहन ही दे रहे हैं जो किसी भी समाज के सकारात्मक निर्माण का चिह्न नहीं हो सकता ।
हम यह नहीं कहते कि इससे सारी मूक स्त्रियों को बोलने का साहस मिल जाएगा न ही इससे दुनिया के सभी दुष्कर्मियों को सामने ला पाना संभव होगा पर एक बारगी ही सही अब दुष्कर्म को अपनी बपौती मानने वालों के भीतर एक डर अवश्य पनपेगा । समाज के सामने चेहरे के पीछे के चेहरे को लाने का डर जरुर होगा । शायद न भी हो पर फिर भी यह सन्देश अत्यंत प्रबल है …सबाल्टर्न आवाजें बुलंद हुई हैं और यही सबसे महत्वपूर्ण बात है ।
इसके इतिहास की बात की जाए तो सबसे पहले शायद लगभग दस बरस पहले तराना बुर्के जिसने अश्वेत स्त्रियों पर हो रहे शोषण के विरोध में आवाज बुलंद की । फिलाडेल्फिया अखबार ‘द इन्क्वायर’ से बातचीत के दौरान उन्होंने इस आन्दोलन के दो पक्षों पर खासकर बल दिया । पहला कि यह एक साहसिक कदम है जहाँ खुद पर हुए यौनिक अत्याचार को सार्वजनिक मंच पर स्वीकारा जा सके। दूसरा यह एक सामूहिकता में विश्वास भी जगाता है जिससे कहीं न कहीं आत्मविश्वास भी बढ़ता है और फिर से जीने का साहस भी मिलता है । इस आन्दोलन को गति तब मिली जब एलीज़ा मिलानो ने सार्वजनिक मंच ‘सोशल मीडिया’ पर उन स्त्रियों को सामने आने के लिए प्रेरित किया जो किसी भी प्रकार का यौन उत्पीडऩ सहने पर विवश हुई हों … किसी भी उम्र में, किसी भी दबाव में । तराना बुर्के ने जिस साहस का परिचय दिया वह अपने आप में सराहनीय है । 6 बरस की उम्र में यौन उत्पीडऩ सहने के बाद युवा होने पर भी आस पास के लडकों से भी उत्पीडि़त हुई पर उन्होंने हार नहीं मानी और अश्वेत स्त्रियों के पर होने वाली यौन हिंसा के खिलाफ खड़ी हुई। आज समाज के हर क्षेत्र से स्त्रियाँ बाहर आकर उस क्षेत्र में हो रहे उत्पीडऩ पर बात कर रही हैं।
हमें अफ़सोस होना चाहिए कि हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं जो अपने ही समाज के आधे हिस्से के प्रति सदस्य नहीं! पर नहीं, हम तो हिंसक होंगे, मानहानि का दावा करेंगे और अपनी गलती मानने के बजाय उन स्त्रियों को ही लांछित करेंगे ताकि शोषण- दर-शोषण की परम्परा कभी रुके नहीं बल्कि और शक्तिशाली होती चले जाए! बच्चियों के बढ़ते कदमों को रोकेंगे ताकि वे किसी हादसे का शिकार न हों और यदि हो जाएँ तो उन्हें घर के भीतर बांधकर रखेंगे ताकि कहीं कोई जान न ले। हर उस लड़की पर तोहमत लगाएँगे जो शोषण के खिलाफ बोलेगी, उसे शक की नजर से देखेंगे और जब जहाँ संभव होगा, खुद भीे शोषण करने से नहीं चूकेंगे! खतरनाक होगा ऐसा समाज। मी टू तो सिर्फ आहट है सुन सकें तो सुनिए इस आवाज को… शोषण की परम्परा लम्बी नहीं होती …उसके खिलाफ अब आहट सुनाई देने लगी है ।
चलते चलते एक बहुत पुरानी रानी भानुमती की कहानी याद आ गई। एक योगी जिस पर उसे गहरा विश्वास था, उसकी हत्या होने पर रानी ने हत्यारे को मृत्युदंड दिया। परन्तु रानी अपने न्याय से संतुष्ट न थी । उसे लगता था कि कोई कड़ी है जो उससे छूट रही है। किसी तरह दोनों को पुनर्जीवित करके वह सत्य को समझना चाहती थी । उसे यह अवसर मिला भी पर अब उसे दोनों में से किसी एक को दंड देना था । रानी में जब घटना के कारण की पड़ताल की तो पता चला कि योगी ने उस पुरुष की पत्नी का यौन उत्पीडऩ किया ,जिसके कारण उस पुरुष ने क्रोध में योगी की हत्या कर दी। न्याय तन्त्र कहता है कि मृत्यु दंड हत्यारे को जरुर मिलना चाहिए पर रानी योगी को दंड देती है और उसे मुक्त कर देती है। रानी के अंतिम शब्द ही यहाँ जरूरी है, बाकी तो कहानी है…मानो तो है ,वरना नहीं है । रानी कहती है कि कोई भी ऐसा समाज जहाँ किसी दुष्कर्म करने वाले को उसके महान सामजिक इतिहास के कारण छोड़ा जाए, वह समाज नैतिक दृष्टि से लगातार पतित होता चला जाता है । हम ऐसे ही समाज की ओर लगातार बढ़ रहे हैं …पूरे विश्व भर में । थोड़ा सोचिए जरुर । मैं ‘मी टू’ के साथ खड़ी हूँ।