आज जब देश कई तरह के बैंक घोटालों से जूझ रहा है और करोंड़ों रुपए दांव पर लग गए हैं तो ‘ऑल इंडिया बैंक आफिसर्स कन्फेड्रेशन (एआईबीओसी) ने सरकार से कहा है कि वह उन पर आरोप लगाने की बजाए नई व्यवस्था लागू करने और बैंकों के सुपरवीजन में असफल रहने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर डाले।
सेंट्रल बैंक समेत सभी नियामक एजेंसियों को ज़्यादा सतर्क होने की ज़रूरत है। साथ ही ‘ऑडिटरोंÓ की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए। बैंकों का ऑडिट बहुत बार होता है, इसलिए एक ऐसी नियामक एजेंसी होनी चाहिए जो यह ध्यान रखे कि ऑडिटर अपनी भूमिका सही तरीके से निभाएं। नीरव मोदी -पंजाब नेशनल बैंक घोटाले सेे यह स्पष्ट हो गया कि जो लोग इसके लेन-देन पर नज़र रख रहे थे वे अपनी भूमिका सही तरीके से निभाने में असफल रहे हैं। यह याद रखा जाए कि यूएस की एनर्जी कंपनी एनरॉन के घोटाले के बाद मशहूर एकाउंटिग कंपनी आर्थर एंड्रसन को बंद कर दिया गया था। यहां भी ऑडिट करने वाली कंपनियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके साथ राज्यों द्वारा चलाए जा रहे बैंकों को भी ज़्यादा स्वायत्ता दी जाए। मिसाल के तौर पर बैंक प्रमुख की नियुक्ति सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जो अपेक्षाकृत नए बैंक बोर्ड ब्यूरो को करनी होती है। इसकी बजाए यह नियुक्ति वित्तमंत्री के दायरे में रखी गई। मौजूदा हालात में इन सभी बातों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है।
इससे पूर्व एआईबीओसी ने बैंकों पर आधार कार्ड बनाने की जिम्मेदारी डालने का भी विरोध किया था। अब घोटाले में लिप्त अफसरों को दंड मुक्ति मिलने से यह मुद्दा बहुत ही खतरनाक हो गया है। इसके अलावा बैंक अधिकारियों ने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए हैं।
एआईबीओसी के महासचिव डीटी फ्रांको ने कहा,’ नीरव मोदी-पंजाब नेशनल बैंक घोटाले के बाद बैंकों में हो रहे घोटालों पर बहुत कुछ लिखा, और बोला जा रहा है। पर आरबीआई, वित्त मंत्रालय, केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीबीसी) और बाकी लोग तभी क्यों उठते हैं जब कोई बड़ा घोटाला हो ही जाता है। वे व्यवस्था की नाकामी का विश्लेषण क्यों नहीं करते, व्यवस्था की विफलता और घोटालों में सरकार और उसकी नीतियों की क्या भूमिका है, यहां हर्षद मेहता घोटाला, केतन पारिख घोटाला और एनपीए घोटाला हो चुके हैं लेकिन सरकार या आरबीआई ने आज तक उन्हें ‘घोटालाÓ नहीं माना है क्योंकि व्यवस्था में इतनी खामियां हैं कि इन्हें घोटाले की परिभाषा नहीं दी सकती। भारत में बैंकों की अंदरूनी नीतियों पर राजनैतिक अर्थव्यवस्था भारी पड़ती है। इसे राजनैतिक हस्तक्षेप भी माना जा सकता है।
नीरव मोदी के घपले के मामले में ‘लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) के गलत इस्तेमाल पर फ्रांको ने कहा कि जब खरीददार को उधारी उपलब्ध है तो आयातकर्ताओं के लिए आरबीआई ने एलओयू क्यों जारी किया जो विदेशी बैंकों में प्रचलित भी नहीं है। आरबीआई को आयात को प्रोत्साहित करने और बाहर से उधार लेने वाले को सस्ती दरों पर उधार देने की ज़रूरत क्या है? इसकी बजाए यह लाभ भारतीय बैंकों को मिलना चाहिए। ऐसा होने से देश को कर भी ज़्यादा मिलेगा। यह जग जाहिर है कि90 के दशक से ‘स्विफ्टÓ का इस्तेमाल घोटालों के लिए किया गया है। फिर सरकार और आरबीआई ने इसे ठीक करने के लिए इसमें हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? इसके अलावा पर्यवेक्षण और लेखा परीक्षण का क्या हुआ? पर्यवेक्षण में आरबीआई क्यों पूरी तरह विफल रहा? क्या इसका कारण है कि आरबीआई नोटबंदी जैसे दूसरे कार्यों में व्यस्त रहा? क्या वे एक साल बाद तक भी केवल नोट ही गिनते रहे? क्या आरबीआई ने अपनी स्वायत्ता खो दी है? बैंक अधिकारियों ने बैंकों में तबादलों और नई नियुक्तियों पर भी बड़े सवाल खड़े किए। उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक में किसी दूसरे आदमी को प्रबंध-निदेशक बनाने पर भी सवाल किया क्योंकि यह काम बैंकिग बोर्ड ब्यूरो का है जिसके प्रमुख विनोद राय हैं। कमज़ोर पर्यवेक्षण पर एआईबीओसी ने कहा- बैंकों को दूसरी गतिविधियों जैसे आधार को जोडऩा, आधार कार्ड बनाना, सरकार की पेंशन योजना को बेचने जैसे कामों में क्यों डाला गया? इन्हीं के कारण पर्यवेक्षण कमज़ोर हुआ है।
आरबीआई आज भी उन लोगों की सूची क्यों नहीं छाप रहा जो बैंकों के पैसे डकारे बैठे हैं? इस तरह से उन्हें देश से भागने का मौका मिल रहा है। प्रधानमंत्री ऐसे व्यापारियों को क्यों अपने साथ विदेशी दौरों पर ले जाते हैं जोकि इस व्यवस्था का गलत इस्तेमाल करने के लिए जाने जाते हैं? विदेशों में उन्हीं लोगों को ठेके मिलते हैं? विदेशों में इन लोगों को क्यों भारत का चेहरा बनाकर पेश किया जाता है? इनका चयन प्रधानमंत्री कार्यालय या वित्तमंत्री क्यों करते हैं? जबकि यह कार्य उद्योग एसोसिएशन का है। शुरू से यही परंपरा थी एओईबीओसी के अनुसार मार्च 2016 तक बैंकों ने जो कजऱ् दिया उसका 38 फीसद केवल 11,643 लोगों के पास है। उनके अनुसार एनपीए के केवल 12 अकाउंट हैं जिनके खिलाफ 2.50 लाख करोड़ रुपए हैं जबकि 84फीसद एनपीए ‘कॉरपोरेटÓ घरानों के हैं। बैंक हर साल ‘कॉरपोरेटसÓ के हज़ारों करोड़ बट्टे-खाते में डालते हैं, सबसे बड़ा घोटला तो यही है। ‘फिक्कीÓ और एसोचैम को चाहिए कि वे बैंकों के निजीकरण की मांग करने की बजाए अपने सदस्यों से कहें कि वे ईमानदारी से कजऱ् वापिस करें।
आरबीआई पर एनपीए के उधारियों की सूची न जारी करने का आरोप लगाते हुए बैंक अधिकारियों का कहना है कि उसने ‘कॉरपोरेट्सÓ को लाभ पहुंचाने के लिए एक नया तरीका चलाया है। आरबीआई ने ‘कॉरपोरेट कजऱ् पुनर्गठन (सीडीआर), सामरिक कजऱ् पुनर्गठन (एसडीआर) स्ट्रेटिजक कजऱ् पुनर्गठन, सस्टेनेबल स्ट्रकचरिंग ऑफ स्ट्रेसड एसेटस या एस4 ए, ऐसेट क्वालिटी रिव्यू (एयूआर) और प्रापंट कोरैक्टिव एक्शन (पीसीए)जैसे तरीकों से कारपोरेट्स को मदद की है। इनमें से किसी ने बैंकों को लाभ नहीं दिया बस कॉरपोरेट्स को फायदा मिला। नए मानदंडों के अनुसार बैंकों को दो लाख करोड़ ज़्यादा एनपीए घोषित करने होंगे और 50 फीसद उनके लिए रखे जाएंगे। इससे देश के सारे बैंक कजऱ् में डूब जाएंगे। उससे देश में वही संकट पैदा होगा जो 2008 में अमेरिका में हुआ था। उस समय सरकार बैंक आपातकाल घोषित कर बैंकों को कारपोरेट्स के हाथों में दे देगी। यह लोकतंत्र के लिए भी एक खतरा होगा।
सार्वजनिक बैंकों के साथ पांच साल तक एनपीए का मुद्दा चलने के बाद न तो मनी मार्केटस पर कोई दवाब पड़ा और विकास पर भी सीमित असर दिखा। इसके कई कारण है। इसमें सबसे बड़ा कारण था कि बैंकों की मलकीयत सरकारी थी जिस वजह से बाज़ार का विश्वास बैंक प्रणाली में बना रहा।
निजीकरण का विरोध
सार्वजनिक बैकों के निजीकरण का विरोध करते हुए बैंक अधिकारियों का कहना है कि हमें बेहतर बैंकिंग, बेहतर रिपोर्टिग, बेहतर पर्यवेक्षण और बेहतर तकनालोजी चाहिए। हमें बैंकों के निजीकरण के लिए मच रही हाय तौबा की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए। सार्वजनिक बैंकों के खिलाफ खराब प्रबंधन का आरोप लगता है जिसके कारण एनपीए बढ़ते हैं। डाटा जो है वह इस परिकल्पना के खिलाफ है। हांलाकि यहां कुछ मामले गड़बड़ी के हो सकते हैं पर ये अत्याधिक नहीं हैं और एनपीए के बढऩे का कारण भी नहीं हैं। दूसरे बैंकों में खराब शासन का असर केवल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ही नहीं बल्कि विश्व भर में निजी क्षेत्र के बैंकों में भी यह समस्या आती रहती है। ‘ग्लोबल रेगुलेटरीÓ हर साल उन बैंकों पर अरबों डालर का जुर्माना लगाती रहती है।
2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकारी बैंकों में एनपीए के कारणों का अध्ययन किया गया। इसका सबसे बड़ा कारण विकास के नाम पर दिए गए कजऱ् इसके ‘मैक्रो इकोनोमिक Ó और ‘रेगुलेटरीÓ इसके मुख्य कारण रहे। भ्रष्टाचार और दुराचार इसके मुख्य मुद्दे नहीं थे। 2008 में यूरोप और अमेरिका के निजी बैंकों को सरकार ने धन देकर बचाया। जिनको सरकारी सहायता ने बचाया उनके कुछ ऐसे नाम भी है जो व्यापार की दुनिया में बहुत बड़ा नाम रखते हैं। 2007-08 को यह संकट सरकारी बैंकों या भ्रष्टाचार की वजह से नहीं अपितु निजी बैंकों के लालच की वजह से आया था।
यह स्वामित्व की बात नहीं पर ‘रेगुलेशनÓ की गुणवत्ता, रिपोर्टिंग प्रबंधन की है जो बैंकिग दक्षता को बढ़ता है। अपने देश में भी निजी क्षेत्र के बैंक ग्लोबल ट्रस्ट बैंक और बैंक ऑफ राजस्थान को भी राज्य की सहायता से बचाया गया था। कारण स्पष्ट है बैंकिंग कोई स्टील या होटल का धंधा नहीं है। एआईबीओसी के अनुसार देश में बैंकिंग ‘बेलआऊटÓ काफी आसान है। आईएमएफ के मुताबिक 1970 से 2011 के बीच ‘बेलआऊट’ ‘जीडीपी’ का 6.8 फीसद था। इमरजिंग कोस्ट जीडीपी का 10 फीसद थी। इसी अवधि में भारत में बैंकों का ‘बेलआऊटÓ खर्च मात्र एक फीसद था जो किसी गिनती में नहीं आता।
जो लोग बैंकों के निजीकरण पर ज़ोर दे रहे हैं उनका तर्क है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर सरकार का नियंत्रण रहता है और राजनैतिक लोग उसका पूरा लाभ उठाते हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक निश्चित तौर पर सरकारी प्रभाव में रहते हैं और कारपोरेटस भी उनमें जोड़-तोड़ कर लेते हैं। इनसे बैंकों की प्रणाली में आई कमियों का लाभ कुछ भ्रष्ट बैंक अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर लालची व्यापारी उठा लेते हैं। बैंकों की इस प्रकार की कमियों को दूर करने की ज़रूरत है न ही उनके निज़ीकरण की। मंदी का मुख्य कारण अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की विफलता थी। 2008 की मंदी के अलावा भी बैंकों में हुई गड़बड़ी के कारण बैंकों पर ताले पड़ गए थे।
सरकार क्या करे?
निजीकरण बैंको को पेश आ रही समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। यह सत्य है कि सरकारी बैंकों के काम के तरीके वगैरा में भारी बदलाव लाने की ज़रूरत है। सरकार को पूरे बैंकिंग सैक्टर को फिर से खड़ा करने के लिए गंभीरता से सोचना चाहिए। निजीकरण निश्चित रूप से कोई रामबाण नहीं है।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ही क्यां?
यह बताना ज़रूरी है कि 1955 में जब सरकार ने इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का राष्ट्रीयकरण कर उसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का नाम दे दिया गया था, तभी से बैंक व्यवस्था का महत्व बढ़ गया था। जब 1969 और 1970 में राष्ट्रीयकरण हुआ तो इसे और ताकत मिल गई।
सरकारी बैंकों का आधार सिकुडऩे के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था में इनका महत्व बना हुआ है। इन बैंको की दूर दराज तक फैली शाखाओं के ज़रिए इनकी पहुंच देश की सबसे ज़्यादा आबादी तक है। सरकार के सरकारी एजेंडे की रीढ़ की हड्डी भी ये बैंक है। जनधन योजना के मामले में भी ये बैंक अग्रणी हैं।
किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में बैंकों की भूमिका मात्र बैंक की ही नहीं है बल्कि वहां के विकास में भी इनका बड़ा योगदान है। ग्रामीण लोगों लिए बीमा और वित्तीय शिक्षा जैसे कार्य भी यही बैंक कर रहे हैं। यह स्पष्ट है कि देश में सरकारी बैंकों का महत्व कम नहीं किया जा सकता। भारतीय अर्थव्यवस्था में एक मज़बूत बैंकिंग व्यवस्था का होना अति आवश्यक है। यही देश के विकास की रीढ़ की हड्डी है।