बिहार में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे वहाँ चुनावी सरगर्मियाँ बढ़ती जा रही हैं। इस बार बिहार के चुनाव काफी रोचक होने वाले हैं। इसकी कई वजह हैं। पहली तो यह कि इस बार महागठबन्धन का नेतृत्व पिछले विधानसभा चुनाव में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव करेंगे। इस बार महागठबन्धन बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) यानी जद (यू) प्रमुख नीतीश कुमार के िखलाफ भी खड़ा होगा; क्योंकि पिछली बार जीत के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के साथ गठबंधन की सरकार तोडक़र भाजपा से हाथ मिला लिया था। लेकिन इस बार महागठबन्धन के आगे भी कम चुनौतियाँ नहीं हैं। क्योंकि अभी से महागठबन्धन में दो फाड़ की स्थिति है। इसकी वजह उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश निषाद जैसे दिग्गज नेताओं द्वारा शरद यादव के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की माँग करना है। इसके लिए इस पक्ष ने शरद यादव के पटना पहुँचने पर हाल ही में एक बैठक भी कर डाली।
सूत्रों की मानें, तो इस पक्ष का कहना है कि यदि महागठबन्धन का नेतृत्व तेजस्वी यादव जैसे नये राजनीतिज्ञ करेंगे, तो बिहार में विरोधी जीत सकते हैं, साथ ही यह दिग्गजों को दरकिनार करने जैसा होगा। वहीं, जो राजद नेता तेजस्वी यादव का समर्थन कर रहे हैं, वे नीतीश के काट के लिए एक तेज़-तर्रार युवा आइकन के रूप में तेजस्वी यादव को देख रहे हैं और मान रहे हैं कि यदि महागठबन्धन की जीत होती है, तो बिहार की राजनीति में तेजस्वी बदलाव लाएँगे। यही वजह है कि महागठबन्धन के ज़्यादातर नेताओं ने लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप सिंह को महागठबन्धन के नेतृत्व के लिए नहीं चुना है, क्योंकि वे कई बार विवादों में रहे हैं।
इधर, भाजपा-जद (यू) गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा, इसकी आधिकारिक घोषणा अभी बाकी है। माना जा रहा है कि इस गठबन्धन का नेतृत्व नीतीश कुमार ही करेंगे। लेकिन यहाँ भी कई सवाल खड़े होते हैं। इन सवालों में बड़ा सवाल यह है कि क्या बिहार में भाजपा नेता नीतीश नेतृत्व को स्वीकार करेंगे? दूसरा सवाल यह कि क्या बिहार में भी भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेगी या सुशील मोदी अपने दम पर मैदान मारने का प्रयास करेंगे?
तीसरा सवाल यह है कि इस बार महागठबन्धन में कौन-कौन सी पार्टियाँ शामिल होंगी और कौन-कौन सी पार्टियाँ अलग गठबन्धन बनाएँगी। सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार के अलग होने, लालू प्रसाद यादव की साख को नुकसान पहुँचने और उनका नेतृत्व महागठबन्धन को न होने से महागठबन्धन चुनाव जीतकर सरकार बनाने की स्थिति में होगा? यह सब समय तय करेगा, िफलहाल तो माना जा रहा है कि महागठबन्धन को शरद यादव और उनके पक्ष में उतरे नेता ही कमज़ोर कर देंगे। राजनीतिक गलियारे में चल रही चर्चा पर भरोसा करें, तो शरद यादव गुट भी टूट सकता है, क्योंकि इस गुट के नेताओं में सब मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए बेताब हैं और चुनाव में अपनी-अपनी पार्टी को अधिक से अधिक सीटों पर उतारने का प्रयास करेंगे। दूसरी तरफ राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव की तरफ से अभी यह संकेत नहीं मिले हैं कि शरद यादव का समर्थन करने वाले दलों में से किस-किसको वह महागठबन्धन में शामिल करेंगे। क्योंकि महागठबन्धन के असली खिलाड़ी और परदे के पीछे से दिशा-निर्देश देने वाले तो लालू ही होंगे। साथ ही पुत्र मोह भी उन पर स्वाभाविक तौर पर हावी रहेगा ही रहेगा।
इतना ही नहीं, चुनाव इसलिए भी दिलचस्प होंगे, क्योंकि प्रशांत किशोर यानी पीके नीतीश कुमार और भाजपा के खिलाफ भूमिका निभाएँगे। विदित हो कि इस बार पीके ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए चुनावी रणनीति बनायी थी। नीतीश के िखलाफ लगातार बयानबाज़ी के बाद नाराज़ नीतीश ने उन्हें जद (यू) से निकाल दिया था। इसके अलावा बिहार का चुनाव इसलिए भी रोमांचक होगा, क्योंकि दिल्ली में भाजपा नेताओं, केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों, दूसरे भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और भाजपा समर्थक दलों व कार्यकर्ताओं की तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी को हार का मुँह देखना पड़ा।
दिल्ली में करारी हार के बाद हर किसी के मन में सवाल उठ रहे हैं कि क्या भाजपा बिहार में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर पाएगी? दूसरा यह कि नीतीश के साथ मिलकर चुनाव लडऩे की भाजपा की योजना क्या है? और अगर वह नीतीश के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है, तो फिर उसको किस स्थिति में रहना पड़ेगा? क्या नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे और भाजपा छोटी पार्टी बनकर बिहार में काम करेगी? या फिर नीतीश को मिलकर कमज़ोर करने की राजनीतिक चाल में वह इस बार कामयाब होकर अपने नेतृत्व वाली सरकार बनाएगी? भाजपा सूत्रों की मानें, तो माना तो यह जा रहा है कि दिल्ली की तरह भाजपा नेता बिहार में भी पूरी ताकत झोंकेंगे।
पार्टी के कद्दावर नेताओं का मानना है कि दिल्ली और बिहार के चुनावों में बहुत अंतर है और दोनों राज्यों के मुद्दे भी अलग-अलग हैं। साथ ही बिहार में पहले से ही भाजपा की गठबन्धन वाली सरकार है और उनकी सरकार ने बिहार में विकास किया है। इसके अलावा बिहार में भाजपा के कई स्थानीय कद्दावर नेता भी हैं। यह भी माना जा रहा है कि बिहार के चुनाव प्रचार में भाजपा नेता दिल्ली वाली अपनी प्रचार-भाषा (भडक़ाऊ भाषा) का इस्तेमाल करने से परहेज़ करेंगे, क्योंकि भाजपा के बड़े नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी पार्टी के नेताओं के बयानों को बड़ी गलती बताकर उन्हें इशारा भी कर दिया है कि वे आगे से कम-से-कम चुनाव प्रचार में ऐसी भाषा न बोलें। लेकिन इस बार बिहार के चुनाव दिल्ली से काफी प्रभावित होंगे, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
ऐसे में भाजपा के लिए बिहार जीतना ही नहीं, बल्कि गठबन्धन की ही सही, सरकार बनाना भी आसान नहीं है। दूसरी तरफ तेजस्वी यादव और तेज प्रताप सिंह अपने पिता की लालू प्रसाद यादव की साख बचाने के लिए बिहार में ज़ोर-शोर से चुनाव लड़ेंगे। हाल ही में हुए एक सर्वे में पाया गया कि लालू प्रसाद यादव की पार्टी यानी जदयू को सबसे अधिक सीटें बिहार में मिलेंगी। लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? सूत्र यह भी कहते हैं कि प्रशांत किशोर बिहार में कांग्रेस के लिए रणनीति बना सकते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि दिल्ली में दो बार शून्य पर रह चुकी कांग्रेस क्या बिहार में अपनी साख बचाने में कामयाब रह सकेगी? इधर यह भी एक धारणा बन चुकी है कि जिस पार्टी के लिए पीके चुनावी रणनीति बनाते हैं, चुनाव जीत जाती है। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि अगर बिहार चुनाव में पीके कांग्रेस के साथ खड़े होते हैं, तो क्या माना जाए कि दिल्ली में शून्य हो चुकी कांग्रेस बिहार में अच्छा प्रदर्शन कर सकेगी? क्या यह माना जाए कि बिहार में राजद के साथ मिलकर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी?
हालाँकि नीतीश कुमार को किसी भी तरह कम नहीं आँका जाना चाहिए, क्योंकि वह बिहार के कद्दावर नेता भी हैं और मुख्यमंत्री भी। उन्होंने बिहार में जो काम किये हैं, उनको जनता काफी हद तक सराहती है। लेकिन उनकी छवि के दूसरे पहलू भी हैं। पहला तो यह कि शराबबंदी के बाद काफी लोग उनसे नाराज हैं और माना जा रहा है कि सुशासन बाबू ने बिहार में शराबबंदी करके सिर्फ माफियागीरी को बढ़ावा दिया है। हाल ही में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी चुनौती दी है कि बिहार के मंत्रियों और अधिकारियों के घरों में और उनके ठिकानों पर छापा मारकर देखिए अगर उनके यहाँ शराब न निकले, तो वह राजनीति छोड़ देंगे। ऐसे में बहुत सारे सवाल तो उठते ही हैं कि बिहार में शराबबंदी हुई है या बड़े पैमाने पर शराब की माफियागीरी शुरू हुई है। तीसरी तरफ जन अधिकार पार्टी के संरक्षक और सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव भी इस बार नीतीश के लिए कम सिरदर्द साबित नहीं होंगे। बिहार में 2019 में जब बहुत विकट बाढ़ आयी थी, तो सरकार लोगों की उतनी मदद नहीं कर पायी, खासतौर से जनता का दर्द बाँटने केमामले में; जितनी पप्पू यादव ने की।
ऐसे में पप्पू यादव का राजनीतिक चेहरा काफी चमका है और माना जा रहा है कि वह लोगों के काफी प्रिय नेता बन चुके हैं। चौथी और है आम आदमी पार्टी, जो कि दिल्ली में दूसरी बड़ी जीत के साथ बाद अब बिहार में भी अपना हाथ आजमा सकती है। दिल्ली की सत्ता में काबिज़ आम आदमी पार्टी के कुछ उम्मीवारों के जीतने के आसार भी बन सकते हैं; खासतौर से बिहार में। क्योंकि इस बार दिल्ली में जिस तरह से विकास और काम के नाम पर आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने वोट माँगे और बड़ी जीत हासिल की, उसका असर तो कहीं न कहीं हर राज्य में पहुंच रहा है। इतना ही नहीं दूसरे राज्य के विपक्षी नेता इस बात से घबराये हुए हैं कि वह अब जुमलेबाज़ी और केवल चुनावी वादे करके बड़ी जीत हासिल कर भी पाएँगे या नहीं? विदित हो कि इन दिनों केजरीवाल के चर्चे दिल्ली और देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी हो रहे हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी मान रही है कि वह इस बार बिहार और उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं में अपना वर्चस्व बढ़ा पायेगी। इसके लिए उसने भी तैयारियाँ शुरू कर दी हैं।
यह भी तय है कि इस बार जिस तरह से दिल्ली के चुनावी मैदान में अनेक पार्टियाँ उतर पड़ी थीं, उसी तरह से बिहार के चुनावी मैदान में भी कई पार्टियाँ दिखेंगी। इस बार यह भी सोचने वाली बात है कि सर्वे की रिपोर्ट आते ही फिल्म अभिनेता और भाजपा के पूर्व कद्दावर नेता शत्रुघ्न सिन्हा ने लालू प्रसाद से मिलकर तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने की बात विश्वास के साथ कही और उन्हें अग्रिम शुभकामनाएँ भी दीं। इसका मतलब यह भी होता है कि शत्रुघ्न सिन्हा महागठबन्धन के समर्थन में खड़े रहेंगे, जिसका फायदा पक्के तौर पर लालू परिवार को मिल सकता है।