तहलका समय पर सरकार और माफिया में गठजोड़ का खुलासा करता रहा है। अभी पिछले अंकों की हमारी एक आवरण कथा थी; द ब्लैक ट्रूथ, सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय, खदान और परमाणु ऊर्जा मंत्रालय को इस संबंध में नोटिस भी भेजे हैं। लेकिन सभी कथाओं का समापन तार्किक नहीं होता। ऐसे में प्रकृति अपना बदला लेती है।
घटना फरवरी 2010 की है। तब के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने तमिलनाडु के कोटागिरि में ‘पश्चिमी घाट बचाओ अभियान’ पर सक्रिय कार्यकर्ताओं की तमिलनाडु में हुई बैठक में भाग लिया था। इस बैठक में कार्यकर्ताओं ने समुद्री तट से 1500 किलोमीटर के पूरे इलाके की जैव-विविधता (बायोडाइवर्सिटी) को खतरे में बताया था। साथ ही उसकी पदचाप केरल और आसपास के प्रदेशों में सुनाई भी देने लगी थी। इसकी वजह थी खुदाई, उद्योग, पनबिजली और दूसरे निर्माण कार्य। इस बैठक के बाद मंत्री ने नौ सदस्यों की पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ समिति (वेस्टर्न घाट्स इकॉलॉजी एक्सपर्ट पैनेल) गठित कर दी और पारिस्थितिकी विशेषज्ञ माधव डी गाडगिल को उसका अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।
यदि केरल सरकार ने गाडगिल समिति की रिपोर्ट पर जऱा भी ध्यान दिया होता तो में राज्य में भारी विनाश न होता। फिर मज़ेदार यह है कि इसके बाद की गठित कमेटी नें काफी कुछ ढील भी दी। अफसोस की बात है कि अप्रैल 2013 में एक उच्चस्तरीय कार्य समिति को यह जानकारी मिली कि खुद केरल सरकार ने बालू की खुदाई पर प्रस्तावित पाबंदी का विरोध किया था साथ ही ऊर्जा की परियोजनाओं पर पाबंदी और प्रदूषण बढ़ाने वाले उद्योगों पर रोक का विरोध किया था।
अब आइए, गाडगिल रिपोर्ट पर। यह रिपोर्ट 2011 में जमा हो गई थी। इसमें सुझाव दिया गया था कि खदानों के लिए नए लाइसेंस जारी किए जाएं। जहां भी खनन होना है उसकी मियाद सिर्फ पांच साल की हो यानी 2016 तक। अवैध खनन पर तत्काल रोक लगाई जाए। इस समिति ने यह जानकारी भी दी थी कि बाढ़ आने की संभावना बनती जा रही है और सरकार को पश्चिमी घाट को रक्षा के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए। लेकिन सभी सरकारों ने इस रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर दिया। कहा गया कि यह रिपोर्ट कुछ ज़्यादा ही पर्यावरण मित्र बन गई है।
इस रिपोर्ट में बताया गया था कि पूरा पश्चिमी घाट निहायत संवेदनशील क्षेत्र है। यहां न तो बड़े पैमाने पर जल संग्रह करने वाले नए बड़े बांध बनाने की ज़रूरत है और न विशेष आर्थिक इलाकों के बनाने की ही अनुमति दी जा सकती है। गाडगिल समिति नेे साफ तौर पर लिखा कि आत्ररापल्ली और गुंडिया जल परियोजनाओं को अमल में भी नहीं लाया जाना चाहिए। उसने यह सलाह भी दी कि स्टील, सीमेंट, कंक्रीट से कोई भी नया निर्माण नहीं होना चाहिए। साथ ही यह सलाह दी कि ढलान पर कोई सालाना फसल न बोई जाए।
एक टिकाऊ समाधान के रूप में समिति ने पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी प्राधिकरण (पश्चिमी घाट इकॉलॉजी अथॉरिटी) गठित करने का भी प्रस्ताव दिया जो इस भुरभुरे (फ्रटाइल) इलाके की सारी गतिविधियों पर नजऱ रखे। विकास के नाम पर इस रिपोर्ट को नजऱअंदाज कर दिया गया। आज केरल की जनता बर्बादी झेल रही है। लाखों लोग बेघर हुए हैं। मानसून खत्म होने तक मृतकों की तादाद भी बढ़ कर पांच सौ हो सकती है। विकास तो ठीक है पर इसके लिए कितनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ती है।
माधव गाडगिल ने खुद सार्वजनिक तौर पर कहा भी है कि यदि राज्य सरकारों ने उनकी रिपोर्ट में सुझाई गई सिफारिशों पर ध्यान दिया होता तो केरल में इतने बड़े पैमाने पर बर्बादी न हुई होती।