प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी को, अब किराए पर जा चुके हमारे लालकिले ने, इस स्वतंत्रता दिवस पर, तकनीकी तौर पर अंतिम बार, अपने कंधे पर खड़ा किया। हम सब ने पूरे 82 मिनट तक उनकी गिनाई उपलब्धियों पर सीना फुलाया, उनके दिखाए सपनो की चमक अपनी आंखों में बसाई, अम्बर से भी ऊपर जाने की उनकी कवितामयी ख्वाहिश से अपने को सराबोर किया और उनके साथ पूरा दम लगा कर भारत माता की जय बोली। बावजूद इसके कि मैं देश के उन 69 प्रतिशत मतदाताओं में से एक हूं, जिन्होंने 2014 की गर्मियों में नरेंद्र भाई के पक्ष में मतदान नहीं किया था, वे मेरे भी प्रधानमंत्री हैं। इसलिए मुझे लग रहा था कि कम-से-कम इस बार तो वे अपने भाजपाई-खोल से बाहर आएंगे और हमें बताएंगे कि देश सचमुच कहां-से-कहां पहुंच गया है।
लेकिन प्रधानमंत्री हैं कि सब का प्रधानमंत्री बनने को तैयार ही नहीं हैं। सो, वे अपनी सियासी जन्मघुट्टी के मुताबिक़ संघ-प्रचारक की मुद्रा में ही बोले। उनके बोले हुए में कितना सच था, वे जानते हुए भी नहीं जानते होंगे, लेकिन देश तो जानता ही है। इसलिए उनके बिगुल से सवा चार साल की सरकारी उपलब्धियों की धुन सुन कर मेरे तो पैर नहीं थिरके। नरेंद्र भाई प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उन्हें यह कहने से कौन रोक सकता है कि पहले के किसी गैऱ-भाजपाई प्रधानमंत्री ने इस देश के लिए कुछ किया ही नहीं, लेकिन मैं चूंकि एक अदना पत्रकार हूं इसलिए यह नहीं कहता कि हमारे प्रधानमंत्री ने सिंहासन संभालने के बाद कुछ किया ही नहीं है। उन्होंने बहुत कुछ एक साथ करने की कोशिश की है। अपनी इस हड़बड़ी में वे ऐसा गच्चा खा गए हैं कि कुछ ख़ास न हो पाने का मलाल, लगता है कि, उन्हें भी अब भीतर-ही-भीतर कचोटने लगा है। इसीलिए लालकिले की प्राचीर से सफाई देने लगे कि वे क्यों इतने बेसब्र हैं, क्यों इतने बेचैन हैं, क्यों इतने व्याकुल हैं, क्यों इतने व्यग्र हैं, क्यों इतने अधीर हैं और क्यों इतने आतुर हैं?
मुझे उनसे इसलिए सहानुभूति नहीं है कि वे क्यों इतने बेसब्र वगैरह-वगैरह हैं। मुझे तो इसलिए उन पर दया-सी आती है कि वे क्यों इतने बेख़बर हैं कि उन्हें इसका अहसास तक नहीं है कि सवा चार साल में उनके प्यारे देशवाािसयों के एक बहुत बड़ें हिस्से को अपने सब्र का, अपने चैन का, अपने शांत-चित्त होने का, अपनी एकाग्रता का, अपने धीरज का और अपने गांभीर्य का कैसा-कैसा इम्तहान देना पड़ा है? आचरण, व्यवहार और क्रिया-कलापों के सदियों पुराने संस्कारों से बंधे भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री की इतनी आकुलता-व्याकुलता का कोई सबब भी तो हो! नाहक ही ‘बे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंगÓ की दर्द भरी इबारत से हर दीवार रंगी पड़ी है। रहीम ने लिखा है कि बेर की झाड़ी और केले के पेड़ का साथ भला कैसे निभे? बेर का झाड़ तो अपनी मौज में डोल रहा है, मगर उसके बेतरह हिलने-डुलने से बगल में खड़े केले के पेड़ का तो अंग-अंग फटा जा रहा है।
जैसा कि नरेंद्र भाई मानते हैं, हो सकता है कि जिन साठ वर्षों में देश को भाजपा-सरकारों का सौभाग्य नहीं मिला, उस दौरान सचमुच कुछ नहीं हुआ हो। अगर ऐसा होता तो हमारे आज के प्रधानमंत्री को इस तरह आगा-पीछा देखे बिना दिन-रात काम करना काम क्यों करना पड़ता? लालकिले से उन्होंने 2013 और 2018 की रफ़्तार का फ़कऱ् हमें बताया। लेकिन यह नहीं बताया कि ऐसी कौन-सी मालिश-विधि उनके पास है, जिसने भारत के सूखे-पांखरे बदन को रातों-रात गामा-पहलवान बना दिया? नरेंद्र भाई हमारे देश को अम्बर से ऊपर ले चलें तो हम से ज़्यादा ख़ुश कौन होगा? हमें कौन-सा पाताल में पड़े रहने का शौक़ है? मगर बिना ख़ास सोचे-समझे, बिना किसी तैयारी के, महज़ अपनी झौंक पूरी करने के लिए, जिस अंतरिक्ष-गुब्बारे पर उन्होंने भारत को लाद दिया है, उसने मुल्क़ की हड्डी-पसली एक कर दी है।
जिन्हें यह यात्रा सुखद लग रही है, वे अपनी जानें; मैं तो इतना जानता हूं कि हमारे प्रधानमंत्री के प्यारे देशवासियों में से तीन-चौथाई से ज़्यादा तो दर्द से बिलबिला रहे हैं। लेकिन अगर नरेंद्र भाई को जऱा भी इल्म होता तो क्या वे लालकिले से इसका जि़क्र तक न करते? ईमानदारी के उत्सव में कंधे-से-कंधा मिला कर साथ देने वाले अपने देशवासियों के दर्द को ले कर क्या वे इतने उदासीन रहते? यह तो अच्छा है कि वे बेसब्र हैं। लेकिन यह घातक हैं कि वे बेख़बर हैं। इसलिए यह सोच-सोच कर मुझे रात भर नींद नहीं आती है कि एक बेख़बर चौकीदार के साए तले हम कब तक महफूज़़ रह पाएंगे?
प्रधानमंत्री आश्वस्त हैं कि उन्होंने सत्ता के गलियारों से दलाली ख़त्म कर दी। उन्हें गर्व है कि वे भाई-भतीजावाद हिंद महासागर में तिरोहित कर आए हैं। उनका सिर ऊंचा है कि लाखों छद्म-कंपनियों पर ताला लगा कर चाबी उन्होंने अपनी जेब में रख ली है। मगर मैं प्रधानमंत्री से भी ज़्यादा आश्वस्त हूं कि प्रधानमंत्री को ख़ुद की पार्टी की राज्य सरकारों के गलियारों की कोई जानकारी ही नहीं है। उन्हें यह मालूम ही नहीं है कि देसी-परदेसी अफ़सरशाही के बरामदों में किस के भाई-भतीजे क्या कर रहे हैं? वे इस तथ्य से आंखें फेरे हुए हैं कि आज भी मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता और सूरत जैसे टापुओं का दुबई, सिंगापुर, हांगकांग और मॉरीशस जैसे द्वीपों से कितना ख़ुशनुमा बिरादराना क़ायम है?
इसलिए लालकिले पर खड़े हो कर बोले गए शब्दों से ज़्यादा बड़ी तो प्रधानमंत्री की वह ख़ामोशी है, जो पता नहीं क्या-क्या जवाब मांग रही है। ऐसा क्यों है कि आजकल नरेंद्र भाई नोट-बंदी की बात करने से लजा रहे हैं? वे हमें यह क्यों नहीं बताते कि रिज़र्व बैंक के हाथों पर ऐसी भी कौन-सी मेहंदी लगी है कि वह पुराने नोट अब तक नहीं गिन पाया है? क्यों वे पड़ौसी देशों से संबंधों के मसले पर बगले झांक रहे हैं? वे भारत के महाशक्ति बनते वक़्त इस बात का जि़क्र करने से क्यों बचते हैं कि दुनिया की बाकी महाशक्तियों से हमारे संबंधों का समीकरण किस दिशा में जा रहा है? नरेंद्र भाई के संकल्पों के लिए अब भी लोग अपनी बची-खुची काया खपाने को तैयार बैठे हैं, मगर पता तो चले कि आखिऱ उन्होंने तय क्या कर रखा है?
मुझे अपने प्रधानमंत्री के कुछ गुण बहुत पसंद है। कहां क्या बोलना है, वे जानते हैं। नफ़े को तौलना वे जानते हैं। अदा से डोलना वे जानते हैं। अपनी मंजि़ल उन्हें हमेशा से मालूम थी और उसे हासिल करने के सफऱ में लोकतांत्रिक यातायात के नियमों का पालन करने में उनकी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है। प्रधानमंत्री बनने के बाद लालकिले से जब वे पहली बार बोले और दस साल के लिए फिऱकापरस्ती-स्थगन का आह्वान किया तो मेरा रोम-रोम खिल उठा था। मगर इन सवा चार साल में वे सारी कोंपले कुम्हला गईं, जिनके भरोसे हम अच्छे दिनों की आस लगाए बैठे थे। उनके ताज़ा संबोधन के बाद तो हरियाली की रही-सही उम्मीद भी झुलस गई। अगर अगले साल भी हम लालकिले की छाती पर नरेंद्र भाई को ही चढ़ा पाएंगे तो भारत प्रजातांत्रिक दरिद्रता के अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका होगा।
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।