शिवेन्द्र राणा
लोक प्रशासन किसी भी राष्ट्र के प्रशासनिक संगठन का वह भाग है, जो एक विशिष्ट राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करता है। सरकार के निर्णयों को कार्य रूप में लागू करने का यह एक साधन है। यह सरकार की वह कार्यकारी भुजा है, जिसके द्वारा सरकार अपने उद्देश्य और लक्ष्य को प्राप्त करती है। मूलत: सार्वजनिक धन पर आधारित यह नौकरशाही जनता की नौकर है। वैसे ही जैसे निर्वाचित नेतृत्व वर्ग जनता का नौकर है। प्रतिनिधित्व की परिभाषा को भारतीय नौकरशाही के नज़रिये से देखें, तो परिदृश्य भिन्न नज़र आएगा।
इसी दूसरे परिदृश्य की वजह से नौकरशाही अमूमन बेलगाम दिखती है। कानपुर देहात में अतिक्रमण हटाओ अभियान के दौरान प्रशासन की दोषपूर्ण कार्यशैली के कारण एक माँ-बेटी की ज़िन्दा जलकर मौत हो गयी। विश्व सामाजिक न्याय दिवस (20 फरवरी) के अवसर पर यह हुआ। देश में आजकल सामाजिक न्याय की बड़ी-बड़ी तक़रीरें हो रहीं हैं। किन्तु यह कैसा सामाजिक न्याय है? भारत में सामाजिक न्याय का विमर्श बड़ा ही चयनित और कभी-कभी विद्रूप होता है। यह भारतीय लोकतंत्र के प्रति नौकरशाही की निष्ठुरता, उसके घटियापन का प्रतीक है। सरकारों की शह पर प्रशासनिक अधिकारी विशुद्ध मनमानी पर उतर आये हैं। वे सडक़छाप गुंडे-अपराधियों जैसी भाषा बोल रहे हैं। वास्तव में नौकरशाही ही इस देश की अधिष्ठाता बन चुकी है। सरकार किसी भी दल की हो, नौकरशाही के समक्ष बौनी ही नज़र आती है। यहाँ तक की राजनीतिक दलों के शीर्ष नेता अपने और अपने कार्यकर्ताओं के सम्मान के लिए भी इन्हें तरजीह देने को तत्पर दिखते हैं।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस शासन के दौरान एक रैली में भाजपा नेताओं को थप्पड़ मारने वाली महिला अधिकारी ने सारे भाजपा शासन में पार्टी नेताओं के विरोध को धता बताते हुए मनचाही नियुक्ति पा ली। वहीं उत्तर प्रदेश में प्रशासनिक अनुशासन का चीरहरण करते हुए माफिया मुख़्तार अंसारी का विधायक बेटा चित्रकूट जेल के अधिकारियों की सहायता से उसे अपने हिसाब से चला रहा है। कहीं एक महिला तहसीलदार ग्रामीणों को- ‘अपनी पर आ गयी न…’ जैसी भाषा में धमकाती है। कर्नाटक में महिला आईएएस और आईपीएस अधिकारी निजी मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से भिड़ी हुई हैं। बिहार में दो आईपीएस अधिकारी गाली-गलौज में लगे हैं। एक आईएएस अधिकारी अपने मातहतों को भद्दी गालियाँ बकता है।
बक्सर के चौसा में ज़मीन मुआवज़े हेतु आंदोलनरत किसानों के साथ पुलिस प्रशासन दुव्र्यवहार एवं मारपीट करता है और उन पुलिस वालों का कुछ नहीं बिगड़ पाता। ऐसी प्रशासनिक दुरावस्था केवल भाजपा शासित राज्यों में ही नहीं है, बल्कि दूसरे अन्य दलों की सरकारें भी नौकरशाही की मनमानी और अनुशासनहीनता रोक पाने में अक्षम थीं और आज भी हैं। केंद्र सरकार लगातार सुशासन (गुड गवर्नेंस) की बात कर रही है, किन्तु इसके मुख्य आधार नौकरशाही ने इसका अर्थ संगठित भ्रष्टाचार कर दिया है। भ्रष्टाचार की लगाम अब जन-प्रतिनिधियों के हाथों से निकलकर नौकरशाही के क़ब्ज़े में है, जो बेलगाम भी है।
कार्मिक मंत्रालय की रिपोर्ट को स्वीकार करें, तो पिछले वर्ष 158 आईएएस अधिकारियों ने अपनी सम्पत्ति का विवरण नहीं दिया। सन् 2020 में यह संख्या 146 तथा सन् 2019 में 128 थी। इनमें 64 अफ़सर ऐसे थे, जिन्होंने लगातार दो साल और 44 अफ़सरों ने तो लगातार तीन साल तथा 32 अफ़सरों ने तीन साल से भी अधिक समय से सम्पत्ति का वार्षिक विवरण नहीं दिया है। ऐसा नहीं है कि नौकरशाही में भ्रष्टाचार पहले नहीं था; लेकिन अब उसका स्वरूप वीभत्स और ढिठाई में परिवर्तित होता जा रहा है।
एक तो अभद्रता, ऊपर से इनकी आकंठ भ्रष्टाचार में लिप्त संरचना। आज आम जनता में नेताओं की तरह ही लोक प्रशासन नौकरशाही के प्रति भी घृणा का भाव बढ़ा है। वह अपनी दुर्दशा के लिए राजनीतिज्ञों से अधिक नौकरशाही को ज़िम्मेदार मानती है। लेकिन नौकरशाही के पास भी अपने तर्क हैं। पुलिस-प्रशासन से जुड़े अधिकारी आये दिन अपनी अकर्मण्यता छुपाने के लिए राजनीतिक वर्ग पर अनावश्यक हस्तक्षेप का दोषारोपण करते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि वे ख़ुद चाटुकारिता एवं निकम्मेपन के कारण राजनीतिक हस्तक्षेप आमंत्रित करते हैं।
उदाहरणस्वरूप जब कोई कमज़ोर, मज़लूम व्यक्ति अपनी शिकायतें लेकर प्रशासन के समक्ष उपस्थित होता है, तो अधिकारी उसका समाधान तलाशने के बजाय उसे दौड़ाते हैं। डाँट देते हैं। डराते हैं। या फिर रिश्वत के लिए परेशान करते हैं। अंतत: निराश व्यक्ति समाधान हेतु विकल्प के रूप में अपने इला$के के दबंग और बाहुबली के पास जाता है। उनके सामने प्रशासन विनीत रूप से करबद्ध खड़ा हो जाता है और व्यक्ति की सुनवाई त्वरित रूप से हो जाती है। इसके दो प्रभाव होते हैं- एक तो प्रशासन की नपुंसकता जनता के समक्ष ज़ाहिर हो जाती है और दूसरा, ऐसे बाहुबली जनता के लिए रॉबिन हुड जैसे मसीहा बन जाते हैं। इसके बाद यही बाहुबली और रसूख़दार व्यक्ति नेता, विधायक मंत्री बनकर प्रशासन के सिर पर बैठ जाता है और जन-समर्थन के बूते सालोंसाल सत्ता में अपनी हनक बरक़रार रखता है। इस तरह देखें, तो सत्ता में बाहुबल के बढ़ते प्रभाव के पाश्र्व में नौकरशाही की भी एक निकृष्ट भूमिका है। दूसरी भाषा में कहें, तो अपराध और राजनीति का भस्मासुर पैदा करने की ज़िम्मेदार नौकरशाही भी है।
ऐसा नहीं है कि आम जनता ही इनके दुव्र्यवहार से प्रताडि़त होती हैं। जन-प्रतिनिधि जैसे ग्राम प्रधान एवं ज़िला स्तर के पंचायत सदस्य ही नहीं, बल्कि विपक्षी दल से सम्बन्धित हों तो ये विधायक-सांसदों को भी नहीं बख़्शते। नौकरशाहों द्वारा नेताओं को निर्वाचन के पश्चात् विजय का प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाना भी उनके जनप्रतिनिधिओं के समक्ष अहंकारपूर्ण रवैये के पीछे एक बड़ा कारण हैं। वे स्वयं को उनसे श्रेष्ठ मानते है। ब्रिटिश-काल में चुनाव आयोग का वजूद नहीं था। नौकरशाही ही चुनाव का संचालन करती थी, जिससे ये परम्परा बनी हुई है। व्यवस्था यह हो कि कम-से-कम विधानसभा और लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों का प्रमाण-पत्र उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त आंग्ल भाषा का सिविल सेवा में वर्चस्व भी उसकी औपनिवेशिक मानसिकता का एक अन्य वजह है। अंग्रेजी भाषी वर्ग हमेशा से अपने को देश के बाक़ी लोगों की अपेक्षा विशिष्ट और संभ्रांत मानता है। उस पर से दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से यूपीएससी की परीक्षा में अंग्रेजी भाषी प्रतिभागियों को तरजीह दी जाती रही है। सन् 2012 के बाद तो यह प्रक्रिया और तीव्र गति से बढ़ी तथा भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों के चयन के अवसर अत्यंत सीमित हो गये हैं। इससे उस संभ्रांतवादी मानसिकता को संबल मिलता है, जो आम भारतीय को निम्न कोटि का नागरिक मानती है। संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों का मत था- आईसीएस वर्ग को उसकी सही जगह दिखा देनी चाहिए। यह वही वर्ग था, जिसने ब्रिटिश सरकार के दमनकारी क़ानूनों को पूरे मनोयोग से लागू करने में रुचि ली थी और उसके दमनात्मक कार्यों में बराबर के सहभागी रहे थे। किन्तु तब सरदार वल्लभ भाई पटेल आईसीएस की ढाल बन गये। हालाँकि वे स्वयं भी इनकी क्रूरता और दमन भुगत चुके थे। आईसीएस को अंग्रेजी सरकार के लिए स्टील फ्रेम कहा जाता था। स्वतंत्र भारत में ये वर्ग लोकतांत्रिक सरकार के लिए भी स्टील फ्रेम बना रहा। कहने का अर्थ यह है कि समय बदला, सत्ताएँ और रवायतें बदलीं, आईसीएस संवर्ग आईएएस में तब्दील हुआ; किन्तु नौकरशाही अपनी साम्राज्यवादी शैली में ही जीती रही।
तो जिस प्रशासनिक तंत्र को भारत के विकास के लिए यथावत् स्वीकार कर लिया गया, वही आज भारत के विकास में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। चुनावों के पश्चात् सत्ता परिवर्तन से जनता को यह उम्मीद होती है कि नौकरशाही की परिस्थितियाँ बदलेंगी। किन्तु पिछले 75 वर्षों में सरकारें तो बदलती रहीं; लेकिन नौकरशाही की कार्यशैली और व्यवहार में कोई बदलाव नहीं हुआ। अलबत्ता चुनावों में प्रशासनिक सुधार के बड़े-बड़े दावे करने वाले दलों की सरकारों को ज़रूर उसने अपने अनुकूल ढाल लिया। वर्तमान केंद्र सरकार की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है।
नौकरशाही ख़ुद को सरकार क्या न्यायपालिका से भी ऊपर समझती है? नोएडा अथॉरिटी की सीईओ के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तो चंदौली के डीएसपी के ख़िलाफ़ अपर सत्र न्यायाधीश चतुर्थ ने ग़ैर-जमानती वारंट जारी तक किया। क्योंकि ये लोग अपनी व्यस्तता बताकर न्यायालय के आदेश पर भी उपस्थित होने को तैयार नहीं थे। सारे दिन फेसबुक, ट्विटर पर प्रशासनिक नैतिकता का ज्ञान देने वाले ऐसे नौकरशाह न्यायपालिका तक का सम्मान नहीं करते। इनमें इतनी हिम्मत इसलिए आती है, क्योंकि इन्हें पता है कि इनके पास विस्तृत तंत्र है, जो इन्हें किसी भी दंडात्मक व्यवस्था से सुरक्षित रखेगा। असल में इन्होंने एक तरह से लोकतंत्र में अपनी समानांतर सत्ता खड़ी कर रखी है।
लाज़िमी है कि जो नौकरशाही न्यायपालिका का सम्मान नहीं करती, उससे आम जनता के सम्मान की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
भारतीय नौकरशाही के कार्य-व्यवहार और आचरण के अवलोकन से प्रतीत होता है कि राजनीतिक चिंतक हॉब्स की लेवियाथन (एक राक्षस) सरकार नहीं, बल्कि स्वयं नौकरशाही है। यह यत्र-तत्र-सर्वत्र की स्थिति में है। वर्तमान का कालखण्ड नौकरशाही के लिए स्वर्ण-युग है। शासन-प्रशासन ही नहीं, बल्कि राजनीति, समाज से लेकर धार्मिक संस्थानों तक में इसका पर्याप्त दख़ल है। अब रामजन्मभूमि न्यास में नृपेंद्र मिश्रा को रखने का औचित्य नहीं समझ आता। निर्माण तकनीक के लिए मेट्रो मैन ई. श्रीधरन हो सकते थे, अन्य व्यवस्था हेतु सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हो सकते थे; किन्तु धार्मिक संस्थान में एक नौकरशाह की क्या आवश्यकता है? वैसे भी भाजपा सरकार ने साहित्य अकादमी से लेकर शिक्षण संस्थानों तक में ऐसे नौकरशाहों को भर दिया गया है, जहाँ कि उन्हें नहीं होना चाहिए।
रही बात वर्तमान भाजपा सरकार द्वारा नौकरशाही को अनावश्यक प्रश्रय देने की, तो यदि उसके मन में कहीं भी अध्यक्षात्मक शासन स्थापित करने का विचार है, तो उसे इसका भी एक बार खुलकर प्रयास कर ही देना चाहिए; ताकि देश की जनता भी निर्णय कर सके कि क्या उसे ऐसा मंत्रिमंडल चाहिए, जो मात्र संसद के बजाय मात्र राष्ट्र-प्रमुख के प्रति जवाबदेह हो? वैसे भी केंद्र से लेकर राज्यों की भाजपा सरकारों ने जिस तरह से सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारियों एवं न्यायाधीशों की भर्ती पार्टी और सरकार से लेकर संसद तक कर रखी है, उससे सरकार और नौकरशाहों की महत्त्वाकांक्षा साफ़तौर पर ज़ाहिर हो जाती है। सरकार, पार्टी या समर्थक चाहें जितने भी तर्क दें; लेकिन स्वतंत्र भारत में इतनी बेलगाम नौकरशाही का दौर कभी भी नहीं रहा है।
इतिहास अपने न्याय निर्णयन में निष्पक्ष होता है। वह किसी सत्ताधारी दल या विचारधारा का पक्षधर नहीं होता। आज से 50 साल बाद जब वर्तमान सरकार के कार्यशैली की समीक्षा की जाएगी, तब उसे नौकरशाही की अनैतिकता को प्रश्रय देने और उसकी मनमानी के समक्ष असहाय स्थिति के लिए याद किया जाएगा।
(लेखक पत्रकार हैं।)