‘तुम कौन हो?’ ‘मैं बेताल हूं.’ ‘और तुम! तुम भी बेताल हो क्या?’ ‘नहीं तो…’ ‘तो यूं क्यों लटके हुए हो?’ ‘क्या केवल बेताल ही लटक सकता है इस देश में?’ ‘बेताल की लटकने की तो आदत है, मगर तुम बेताल का साथ क्यों दे रहे हो?’ ‘अरे बेवकूफ! मैं लटका नहीं हूं, लटकाया गया हूं.’ ‘किसने लटकाया है?’ ‘जन गण मन के भाग्य विधाताओं ने, और किसने!’ ‘मगर तुम्हारे शरीर में इतने घाव कैसे?’ ‘ इसे संसदीय भाषा में संशोधन कहते हैं.’ ‘कितने वर्षों से लटके हो?’ ‘याद नहीं…’ ‘बताओ न!’ ‘मोटे तौर पर यह समझ लो कि तुम्हारी जैसी दो पीढ़ियां तो बड़ी हो गई हैं.’ ‘तुम इतने बडे़, मतलब बुजुर्ग तो नहीं लगते!’ ‘तुम्हारी शंका की वजह क्या है?’ ‘अगर तुम बरसों से लटके हुए हो, तो तुम्हारे बाल-दाढ़ी-नाखून बढ़ने चाहिए थे, मगर ऐसा नहीं है.’ ‘मैं सच कह रहा हूं. मैं बरसों से लटका हुआ हूं.’
‘माना, फिर भी तुम्हारे बाल-दाढ़ी-नाखून बढे़ क्यों नहीं!’ ‘काट दिए गए, सब काट दिए गए. मेरे नाखूनों पर तो विशेष कृपादृष्टि की गई. उन्हें एक-एक करके काटा जा रहा है.’ ‘किसने काटे?’ ‘वही जन गण मन के भाग्य विधाता…’ ‘मगर क्यों?’ ‘ वे मुझे सुंदर-सा… सुंदर-सा क्या, वास्तव में सुंदर बनाना चाहते हैं!’ ‘माफ करना, मगर ऐसे तुम कब तक लटके रहोगे?’ ‘ जब तक मेरे मुंह में दांत बचा रहेगा, तब तक.’ ‘दांत…’ ‘यह देखो! देखो, मेरे मुंह में कितने कम दांत बचे हुए हैं.’ ‘सचमुच, तुम बहुत ही उम्रदराज हो. तुम्हारे तो अधिकांश दांत गिर गए है.’ ‘गिरे नहीं तोडे़ गए हैं.’ ‘तोडे़ गए हैं! ’ ‘भयभीत न हो, लोकतांत्रिक भाषा में कहता हूं, तोडे़ नहीं निकाले गए हैं.’ ‘मगर क्यों?’ ‘ताकि मैं काट न सकूं.’ ‘ वह सब तो ठीक है मगर, ऐसे लटके-लटके तो एक दिन तुम मर जाओगे!’ ‘घबराओ नहीं, मैं मरूंगा नहीं.
वे मुझे मरने नहीं देंगे.’ ‘कौन?’ ‘ च्च…च्च… च्च…’ ‘ समझ गया! समझ गया! मैं बताता हूं, वही जन गण मन के भाग्यविधाता न!’ ‘शाबास!’ ‘ थैंक्यू! मगर मुझे तुम्हारे ऊपर दया आती है.’ ‘ऐसा भला क्यों?’ ‘तुम न जीवित ही हो, न तुम्हें मर कर मुक्ति ही मिल रही है.’ ‘मैं कर भी क्या सकता हूं सिवाय इंतजार करने के.’ ‘अच्छा, मैं कुछ कर सकता हूं!’ ‘तुम क्या कर सकते हो?’ ‘अगर मैं नहीं तो, जनता तो कुछ कर सकती है न!’ ‘जनता… कुछ जानते भी हो! जनता का मतलब आधुनिक लोकतंत्र की शब्दावली में भीड़तंत्र हो गया.’ ‘तब!’ ‘तब क्या?’ ‘तुम्हारा उद्धार कैसे होगा?’ ‘सब जन गण मन के भाग्यविधाता की इच्छा पर निर्भर करता है.’ ‘और देश की इच्छा… देश की इच्छा का कुछ नहीं!’ ‘देश!’ ‘तुम हंस क्यों रहे हो?’ ‘देश, देश का मतलब समझते हो!’
‘अब तुम्हीं समझाओ!’ ‘देश यानी जन गण मन के भाग्यविधाताओं का समूह.’ ‘तुम आधुनिक लोकतंत्र की आधुनिक शब्दावलियों के मानी मत समझाओ! उसे अपने पास ही रखो . मुझे बस यह बताओ कि तुम धरातल पर कब उतरोगे या यूं ही लटके रहोगे?’ ‘धरातल पर तब उतरूंगा, जब मुझमें इतनी ही शक्ति बची रह जाए कि चल-फिर न सकूं. जहां उतार कर बैठाया जाए, वहां बैठूं तो बैठा ही रहूं. चलने की कोशिश करूं, तो चल बसूं.’ ‘ऐसा क्यों भला? ‘क्योंकि जिस दिन धरातल पर सुंदर नहीं अपने शक्तिशाली रूप में मैं आ गया, तो जन गण मन के कई माननीय-सम्माननीय भाग्यविधाता लटक जाएंगे. समझे अहमक!’
अब मैं क्या कहता! मैं लटकते लोकपाल और उसके साथ लटक रहे बेताल को वहीं लटका हुआ छोड़ घर आ गया. बेताल बहुत खुश था. उसका अकेलापन दूर भगाने के लिए उसको एक साथी मिल गया था. शायद इसलिए!
-अनूप मणि त्रिपाठी