न्यूज चैनलों पर सचमुच ‘खबरें’ लौट आई हैं. और क्या स्पीड के साथ लौटी हैं! सिर चकराने लगता है. कहीं स्पीड न्यूज है, कहीं फटाफट खबरें हैं, कहीं सुपरफास्ट खबरें हैं, कहीं 20-20 खबरें हैं और कहीं दो मिनट में 15 खबरें हैं. गोया खबरें न हों, बुलेट ट्रेन हों. एक चैनल पर सचमुच बुलेट खबरें हैं जिसका दावा है कि उसके बुलेटिन में खबरें बुलेट से भी तेज रफ्तार से दी जाती हैं. फटाफट और धड़ाधड़ खबरों का एक पूरा चैनल ‘तेज’ पहले से है.हालांकि यह कोई नया ट्रेंड नहीं है और हिंदी के न्यूज चैनलों पर पिछले दो-ढाई साल से स्पीड न्यूज के कई बुलेटिन चल रहे हैं, लेकिन इधर यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है. चैनलों में अब कम से कम समय में अधिक से अधिक खबरें देने की होड़-सी शुरू हो गई है. हालत यह हो गई है कि हिंदी के सबसे शालीन माने जाने वाले चैनल एनडीटीवी-इंडिया पर सुबह से लेकर शाम तक हमेशा 20-20 खबरें चलती रहती हैं.
ऐसा लगता है, जैसे दर्शकों को खबरें बतायी या सुनाई नहीं जा रही हैं बल्कि उन पर खबरों की बमबारी की जा रही है
ऐसा लगता है, जैसे दर्शकों को खबरें बताई या सुनाई नहीं जा रही हैं बल्कि उन पर खबरों की बमबारी की जा रही है. माफ कीजिएगा, मजाक नहीं कर रहा हूं. सचमुच, चैनल स्पीड न्यूज के नाम पर खबरों की बमबारी कर रहे हैं. विश्वास न हो तो स्पीड न्यूज के साथ चलने वाले तेज बैकग्राउंड म्यूजिक को सुनिए, ऐसा लगता है जैसे मशीनगन से धड़ाधड़ गोली दागी जा रही हो या तोप से गोले दागे जा रहे हों. बिलकुल उसी अंदाज में एक के बाद एक खबरें भी दागी जाती हैं.
ऐसा लगता है कि चैनल दर्शकों को बिलकुल संभलने का मौका नहीं देना चाहते हैं. दर्शक जब तक एक खबर को देखता और समझने की कोशिश करता है, उसके सामने दूसरी, फिर तीसरी और फिर खबरों की बाढ़-सी आ जाती है. कहना मुश्किल है कि खबरों की इस भीड़ के बीच दर्शक कितनी खबरों को याद रख पाते हैं, कितने दर्शक खबरों की इस बमबारी के बीच उनके अर्थ और मायने समझ पाते हैं और कितने उन खबरों के राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक महत्व से परिचित हो पाते हैं.
सच पूछिए तो खबरों की इस भीड़ में हर खबर की अपनी पहचान, अपना व्यक्तित्व, महत्व और अर्थ गुम-सा हो जाता है. खबरें बेमानी-सी लगती हैं. नतीजा, संसद में 2जी और काॅमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार पर होने वाली चर्चा और हंगामे की खबर या अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डावांडोल स्थिति या ऐसी कोई और महत्वपूर्ण खबर और कई छोटी-मोटी खबरों में कोई फर्क नहीं रह जाता है.
सच पूछिए तो इससे किसी को शिकायत नहीं हो सकती है कि चैनल अधिक से अधिक खबरें दिखाएं. पूरे देश और उसके विभिन्न इलाकों की खबरों को बुलेटिन में जगह मिले. राजनीति ही नहीं बल्कि विदेश, बिजनेस, शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, मनोरंजन और मानवीय रुचि की खबरें भी दिखाई जाएं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी खबरों को एक ही बुलेटिन में घुसेड़ दिया जाए. खबरों को बिना उनकी पृष्ठभूमि और संदर्भ के और उनके महत्व और प्रभाव को अनदेखा करते हुए ऐसे प्रस्तुत किया जाए कि उनका कोई मायने-मतलब न रह जाए. यह और कुछ नहीं बल्कि खबरों की आत्मा को मारने जैसा है. यही खबरों का ‘डंबिंग डाउन’ है जिसका मतलब होता है कि खबरों को गूंगा-बहरा, बेमानी, सतही और हल्का-फुल्का बनाना. ऐसी खबरों की भीड़ में सिर्फ सूचनाएं और सूचनाएं होती हैं. यह कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि दर्शकों को सूचनाएं नहीं चाहिए या सूचनाओं का कोई महत्व नहीं है. लेकिन खबर सिर्फ सूचना नहीं है. वह सूचनाओं को इकठ्ठा करने, उनकी छानबीन और उन्हें उनके महत्व के मुताबिक तरतीब देना है. सूचनाओं को संदर्भ और पृष्ठभूमि के साथ रखने और उन्हें मायने-मतलब देने के बाद ही खबर पूरी होती है. लेकिन फटाफट खबरों में न तो यह संभव है और न होता है.
साफ तौर पर यह दर्शकों को एक निष्क्रिय रिसीवर और बेवकूफ समझने जैसा है. गोया वह सिर्फ सूचनाओं का भूखा है. लेकिन सच यह है कि खबरों की यह बमबारी दर्शकों के लिए सूचना अपच का कारण भी बन रही है. आखिर इतनी सारी सूचनाएं उसके किस काम की हैं? यही नहीं, चैनलों पर स्पीड या बुलेट न्यूज के कारण न सिर्फ एंकर और रिपोर्टर अप्रासंगिक होते जा रहे हैं बल्कि खबरों का यह मशीनीकरण न्यूजरूम के सभी गेटकीपरों यानी संपादकों को बेमानी बना रहा है. आखिर संपादकों की भूमिका क्या है? क्या खबरों को मायने-मतलब और उनके समाचार मूल्य के मुताबिक महत्व और प्राथमिकता देने की जिम्मेदारी गेटकीपरों की नहीं है?
लेकिन चिंता की बात यह है कि स्पीड न्यूज या बुलेट खबरें धीरे-धीरे चैनलों की मुख्यधारा बनते जा रहे हैं. अगर एनडीटीवी-इंडिया जैसा चैनल सुबह 6 बजे से शाम 4 बजे तक सिर्फ 20-20 खबरें दिखा रहा है तो अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि अन्य बुलेटिनों में भी महत्वपूर्ण खबरों के पैकेजों को छोटा से छोटा करने का दबाव कितना अधिक होगा.