पिछले साल से हमारी गली की एक बुज़ुर्ग़ महिला कुछ अजीब व्यवहार करती नज़र आ रही है। ख़ुद अधिकतर समय बिना मास्क के रहने वाली उक्त महिला किरायेदारों को देखकर इतनी दूर भागती है, जैसे मानो उनमें ही कोरोना वायरस हो। बहुत-से लोगों को उस बुज़ुर्ग महिला का यह बर्ताव बिल्कुल अच्छा नहीं लगता; भले ही कोरोना-काल में यह उनके भी हित में हो। वह इसलिए भी कि शारीरिक दूरी बनाकर रखना एक अलग बात है और कूदकर दूर भागना दूसरी बात। ताज़्ज़ुब यह है कि उक्त महिला गली में लगातार महिला पंचायत करती है और दिन-दिन भर कभी इसके, तो कभी उसके दरवाज़े पर भीड़ लगाकर बैठी रहती है। अभी हाल ही में उसके बेटे की शादी हुई है, जिसमें कोरोना वायरस से बचाव के लिए तय सभी सरकारी दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ायी गयीं। ऐसे लोगों को क्या कहेंगे?
देखने में आया है कि जबसे कोरोना वायरस फैला है, तबसे लोग एक-दूसरे से खुलकर नहीं मिल रहे हैं। अब ज़्यादातर लोग हाथ मिलाने, पास बैठने, बात करने से घबराते दिख रहे हैं। मुझे यह लगता है कि यह कोरोना हम इंसानों बीच घृणा और भेदभाव फैलाने का एक साधन-सा बन चुका है, जिसे अगर इसी तरह बढऩे दिया, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम और हमसे ज़्यादा हमारे बच्चे पहले से ही उगी नफ़रत की खरपतवार और कँटीली झाडिय़ों को बढ़ाकर उनमें ख़ुद ही उलझ-उलझ कर अकेलेपन और असहयोग की पीड़ा से तड़पेंगे।
हम पहले से ही तमाम धर्मों, वर्णों, जातियों, भाषाओं, बोलियों, रंगों, वेशभूषाओं, त्योहारों, संस्कृतियों, खान-पान, रहन-सहन और क्षेत्रवाद जैसे पिंजरों में इस तरह क़ैद हैं कि लोग आपस में सरोकार होते हुए भी एक-दूसरे से भेदभाव और नफ़रत करते हैं। ऐसा सब नहीं करते। लेकिन जितने करते हैं, वह पूरे मानव समाज के जीवन को दुश्वार करने के लिए काफ़ी है। इन सब बीमारियों से निजात पाने का एक ही तरीक़ा है, और वह यह कि हमें सियासियों, कट्टवादियों और धार्मिक अन्धविश्वासों तथा उन्माद के चक्कर में पडऩे से बचना है। यह सही है कि हमें कोरोना वायरस नाम की इस महामारी से ख़ुद को और दूसरों को बचाने के लिए सुरक्षा उपायों का पालन करना होगा; लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम आपस में इतनी दूरी बढ़ा लें कि आने वाली पीढिय़ाँ इस दूरी को चलन समझकर जीवन में उतार लें और धीरे-धीरे यह चलन संस्कार बन जाए। क्योंकि जब कोई बुराई संस्कार बन जाती है, तो उससे लोगों को छुटकारा दिला पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन-सा हो जाता है। हम पहले से ही आपस में इतनी दूरियाँ बढ़ा चुके हैं कि पड़ोसियों तक से अब मतलब नहीं रखना चाहते, रिश्तेदारी हमें वही अच्छी लगती है, जो बहुत क़रीब की हो; हमारी ज़रूरत की हो। हाँ, अगर कोई पैसे से बड़ा हो जाता है, तो उसे ज़रूर हम जबरन अपना रिश्तेदार बताते-मानते हैं, भले ही उसकी नज़रों में हमारी कोई औक़ात हो या न हो।
कभी-कभी मैं विचार करता हूँ कि मानव समाज का यह माहौल हुआ कैसे? आपस में दूरियाँ बढ़ाने, एक-दूसरे को जीने न देने, परेशान करने, भेदभाव और नफ़रत करने की सीख हमें किसने दी? इस मामले में मेरा स्पष्ट मानना है कि इस तरह की सीख हमें धर्म के नाम पर आडम्बर करने वाले धर्म के ठेकेदारों और राजनीतिक चूल्हे पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले नेताओं ने दी है, जिसे हम आज तक नकार नहीं पा रहे हैं। जबकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि ये लोग सदियों से हमारा दोहन कर रहे हैं। लेकिन धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और अवसरवाद की अफीमों का नशा हमारे दिल-ओ-दिमाग़ पर इस तरह तारी है कि हम इसे छोडऩा ही नहीं चाहते। हमें धार्मिक और राजनीतिक नेताओं के चक्कर में क्यों पडऩा चाहिए? जबकि हम जानते हैं कि हमें अपने जीवन के निर्वाह के लिए ख़ुद ही परिश्रम करके अपना जीवन चलाना है। ख़ुद ही अपनी पहचान बनानी है; और ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता भी ख़ुद ही बनाना है; जो कि निश्छल, परम् ज्ञानी, निष्कपट, निर्मोही और निर्लोभी गुरु बताएगा या स्वयं ईश्वर ही दिखाएगा। फिर हमें इन ठगों के चक्कर में क्यों पडऩा चाहिए? क्यों इनकी हाँ-में-हाँ मिलानी चाहिए? क्यों इनके कहने पर भेदभाव, नफ़रत, लड़ाई-झगड़ा और पापकर्म करने चाहिए? क्यों मान लेना चाहिए कि धार्मिक और राजनीतिक स्वार्थी जो कह रहे हैं, वही ठीक है? क्यों मान लेना चाहिए कि ये लोग ही सही हैं, बाक़ी सब कुछ और हर कोई ग़लत?
आपने कभी सोचा है कि ये जो धार्मिक और राजनीतिक लोग हमें आपस में बाँटकर रखते हैं और हमेशा बाँटकर रखना चाहते हैं; वे आपस में कितने एक हैं? कोरोना वायरस के भयाक्रांत संक्रमण के दौर में भी उनमें बेतक़ल्लुफ़ ताल्लुक़ात रहे। एक-साथ उठे-बैठे; अन्दरख़ाने पार्टियाँ कीं; बैठकें कीं; रैलियाँ कीं; यहाँ तक कि कई बिना मास्क के भी रहे। और आम लोगों ने बिना मास्क के डण्डे खाये, चालान कटवाये।
मैं यह नहीं कहता कि महामारी से बचने के लिए तय दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करना चाहिए; लेकिन नियम-क़ानून तो सभी के लिए समान हैं और रहने भी चाहिए। फिर भी अगर ऐसा नहीं है, तो भी जन-सामान्य को आपस में इतनी दूरियाँ नहीं बनानी चाहिए कि ये दूरियाँ भविष्य में भेदभाव और नफ़रत की बुनियाद बन जाएँ और आने वाली पीढिय़ाँ इन बुराइयों को एक संस्कार या संस्कृति मानकर अपनाने लगें।