बे-मौसम बारिश से बुन्देलखण्ड के किसानों का हाल बेहाल है। यहाँ के किसानों का कहना है कि होली के त्योहार के बाद हर किसान यह उम्मीद करने लगता है कि उनकी फसल पक गयी है; बस कटाई के बाद वह बाज़ार मेें बेंचकर अपनी मेहनत की कमाई से सरकारी-गैर सरकारी कर्ज़ चुकायेगा और अपने काम-काज, जैसे बच्चों की पढ़ाई, शादी वगैरह करेगा; कपड़े बनवायेगा। पर इस बार 7 मार्च और 13-14 मार्च को हुई बारिश से उनकी फसल पूरी तरह से चौपट हो गयी। इस बेमौसम बारिश ने किसानों की फसलें चौपट कर दीं और अब उनके सामने आर्थिक संकट अलावा सरकारी कर्ज़ चुकाना भी विकट चुनौती बना हुआ है। इस बारे में तहलका के विशेष संवाददाता ने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड के किसानों की समस्याओं को करीब से जाना। किसानों ने बताया कि बुन्देलखण्ड के किसानों की दुदर्शा कभी सूखे की वजह से होती रहती है, तो कभी बे-मौसम बारिश की वजह से। उन्होंने कहा कि सन् 2016 में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि 2022 तक देश के किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। तब किसानों को लगा था कि किसानों के दिन फिरेंगे और किसान खुशहाल होंगे। लेकिन किसानों की आय में कोई इज़ाफा नहीं हुआ। ऊपर से किसानों के सिर पर कुदरत का कहर भी किसी-न-किसी रूप में मुसीबत बनकर टूटता रहता है। हालाँकि, केंद्र सरकार किसानों के लिए काम भी कर रही है; ताकि किसानों को आर्थिक तंगी का सामना न करना पड़े। सरकार ने पहल भी की है और उसका लाभ मिल रहा है। लेकिन बे-मौसम बारिश से हुई किसानों की जो फसलें चौपट हुई हैं, उनका सरकार को तुरन्त मुआवज़ा देना चाहिए और किसानों का कर्ज़ भी माफ करना चाहिए, ताकि किसान सुकून से जीवन-यापन कर सकें।
अब बात करते हैं उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले झाँसी, जालौन, महोबा, हमीरपुर और बाँदा ज़िले की। यहाँ के किसानों का कहना है कि 13 मार्च को बारिश के साथ ओले गिरने से उनकी फसलें पूरी तरह से नष्ट हो गयीं। किसानों का कहना है कि इस बार सर्दी का सितम अभी तक चल रहा है। जो कुछ फसल बची हुई है, वह सर्दी के कारण पक नहीं पा रही है। इसके कारण उनको काफी नुकसान हो रहा है। झाँसी ज़िले के किसान प्रकाश चन्द्र का कहना है कि सराकार को किसानों के लिए अलग से आयोग बनाना चाहिए, ताकि आयोग बिना देरी किये किसानों की समस्याओं का समाधान कर सके। क्योंकि बुन्देलखण्ड के किसान भुखमरी के कगार पर हैं। बाँदा ज़िले के किसान राजेश शुक्ला ने बताया कि यह अजीब और दु:खद है कि जैसे ही किसान खेतों पर गेहँू, मटर, चना और खड़ी दलहन की फसलों को काटने की तैयारी कर रहे थे, बारिस के साथ ओले भी गिरने लगे। अब स्थिति यह है कि ओले, बारिश के कारण जो फसलें नहीं कट सकीं या कटी फसलें खेत में पड़ी रह गयीं, वो अब खेतों में ही सडऩे लगी हैं। यहाँ के किसानों ने ज़िलाधिकारी हीरा लाल को एक ज्ञापन देकर नुकसान के मुआवज़े की माँग की है। किसानों का कहना है कि नुकसान के लिए सरकार कोई ठोस पहल करे, ताकि किसानों को राहत मिल सके। राजेश शुक्ला ने बताया कि नरैनी, करतल, बदौसा और मटौध में तो छोटे किसानों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट बना हुआ है। महोबा ज़िले के चरखारी, ऐंचाना और कबरई के किसानों ने बताया कि अब तक मार्च के महीने में अच्छी-खासी गर्मी पडऩे लगती थी, जिससे किसानों की फसल कटकर बाज़ारों में आ जाती थी। लेकिन इस बार सर्दी खत्म होने से पहले बारिश भी हो गयी, जिससे गर्मी पड़ ही नहीं रही है, तो फसलें कैसे पकें? किसान राहुल ने बताया कि बुन्देलखण्ड में किसानों को किसी-न-किसी रूप में परेशानी का सामना करना ही पड़ता है। जैसे इस बार किसानों को लग रहा था कि खेती में की गयी मेहनत का फल उनको अच्छा मिलेगा, लेकिन 12 और 13 मार्च को हुई बारिश ने किसानों के अरमानों पर पानी फेर दिया। सारी मेहनत बेकार हो गयी। अब यहाँ के किसानों को सरकार से उम्मीद है कि वह किसानों को सही मुआवज़ा दे; ताकि किसान अपना जीवनयापन कर सकें। जालौन के किसान डब्बू और प्रमोद का कहना है कि यहाँ के किसानों ने आत्महत्या तक की है। कभी सूखे की वजह से, तो कभी बे-मौसम बारिश और अन्य आपदा से फसल बर्बाद होने के चलते। क्योंकि किसान बुआई के समय साहूकार से और बैंक से कर्ज़ लेता है और फसल खराब होने पर कर्ज़ समय पर लौटा नहीं पाता है; जिसके चलते आत्महत्या तक कर लेता है। डब्बू किसान का कहना है कि मटर और गेहूँ की फसल आने वाली थी। पर बारिश और ओले पडऩे से सब बर्बाद हो गयी। हमीरपुर के किसान अनुपम कहते हैं कि किसानों की िकस्मत में तो साफ लिखा है कि मेहनत करो और खुद खाने के लिए जूझो। सरकार कहती है कि किसानों के नुकसान की भरपाई की जाएगी। लेकिन भरपाई के नाम पर न के बराबर पैसा दिया जाता है। ऐसे में किसान फटेहाल और लाचार-सा भटकता फिरता है। उन्होंने कहा कि छोटे किसानों का हाल इसलिए बेहाल है, क्योंकि उनकी चार से छ: बीघा या उससे भी कम खेती होती है। ऐसे में छोटे किसान सरकार और साहूकार से कर्ज़ लेकर जो लगात लगाते हैं, वह भी कई बार नहीं निकल पाती है और वे कई परेशानियों से जूझते रहते हैं।
यही हाल मध्य प्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर और दतिया ज़िलों का है। यहाँ भी 13 और 14 मार्च को हुई बारिश ने किसानों को रोने को मजबूर कर दिया। टीकमगढ़ के मजना, बम्हौरी, बड़ागाँव, पलेरा के किसान धीरज, दीपक और विनोद ने बताया कि उनकी खती 19 बीघा है। उन्होंने सरकार से तो कर्ज़ नहीं लिया है, पर अब फसल नष्ट हो गयी है, तो सरकार से कर्ज़ लेना होगा। क्योंकि घर चलाना मुश्किल होगा। उन्होंने बताया कि यहाँ के किसान पलायन तक करते हैं, क्योंकि किसानों को सरकार और पैसे वाले लोग मज़दूर जैसा मानते हैं। उनको किसानों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में किसान भगवान भरोसे खेती करते रहते हैं और किसानी करते-करते उनका जीवन तमाम हो जाता है। छतरपुर और दतिया के किसान अनूप और राधेश्याम का कहना है कि किसानों को वोट बैंक की तरह सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ इस्तेमाल करती हैं। सियासतदाँ चुनाव के दौरान तो किसानों की हित की बात करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद थोड़ी-बहुत राहत बमुश्किल देते हैं। उन्होंने बताया कि इस समय सही मायने में सरकार को किसानों की आॢथक मदद की ज़रूरत है, ताकि किसान अपना दैनिक जीवनयापन कर सकें। क्योंकि एक ओर तो फसल नष्ट हो गयी है, दूसरा कर्ज़ ले रखा है, जिसे चुकाना सम्भव नहीं है, ब्याज अलग बढ़ रहा है। उन्होंने बताया कि उस पर मध्य प्रदेश में सरकार गिरने से किसानों और मुसीबत में आ गये हैं। क्योंकि इस समय कुछ विधायक नयी सरकार बनाने में लगे हैं, तो कुछ सरकार गिरने का रोना रो रहे हैं। ऐसे में किसान किसके पास जाएँ? अधिकारी सुनते नहीं हैं। इसलिए किसान अधिकारियों के पास जाने से बचते हैं।
टीकमगढ़ के किसान नेता घनश्याम शर्मा ने बताया कि बुन्देलखण्ड में किसानों, खासकर छोटे किसानों का भविष्य कभी उज्ज्वल नहीं रहा है। क्योंकि सरकारें तो बस ऐलान करती हैं कि 2021 में यह होगा, 2022 वो होगा। पर होता कुछ नहीं है। मुआवज़ा तो देना दूर, किसानों की समस्याएँ तक सुनने वाला कोई नहीं है। बैंक वालों से साठगाँठ न हो, तो उन्हें कर्ज़ तक नहीं मिलता है। साहूकारों का एक गिरोह है। भाजपा की सराकर हो या कांग्रेस की हो, दोनों सरकारों के जनप्रतिनिधियों के सरक्षण साहूकारों पर रहता है और ये लोग किसानों में महँगी ब्याज दर पर कर्ज़ देते हैं। किसान मजबूरी में साहूकारों से कर्ज़ लेता है। कर्ज़ न चुका पाने की स्थिति में साहूकार किसानों से उनका खेत ले लेते हैं। बाद में किसान अपने ही खेत में साहूकार की मज़दूरी करने को मजबूर होता है। घनश्याम शर्मा ने बताया कि ऐसा नहीं कि शासन-प्रशासन को कुछ पता नहीं है; सब कुछ पता है। लेकिन किसानों की सुनवाई कहीं नहीं है।