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मुजफ्फरनगर में हुए भीषण दंगों को बीते तीन महीने हो गए हैं. इस घटना के बाद जो हो रहा है उससे लगता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अब न्याय और विश्वास बहाली के बजाय इस जुगत में लगा है कि मामले को कैसे रफा-दफा किया जाए. भारत में पिछले एक दशक के दौरान हुए सबसे भयानक इन दंगों में 59 लोगों की जान चली गई थी और 50 हजार से भी ज्यादा बेघर हो गए थे. दंगों के पीड़ित अब मुजफ्फरनगर, शामली और गाजियाबाद में बने अलग-अलग राहत शिविरों में रह रहे हैं. एक तरफ इन शिविरों में ठंड से निपटने के अपर्याप्त इतंजाम के चलते नवजात बच्चों की मौत की खबरें आ रही हैं तो दूसरी तरफ जांच एजेंसियां अब भी उन छह पीड़ितों का बयान नहीं ले सकी हैं जिनके साथ दंगों के दौरान कथित तौर पर बलात्कार हुआ था.
बलात्कार का एक भी आरोपित अब तक गिरफ्तार नहीं हुआ है. बल्कि मुजफ्फरनगर के जोगिया खेड़ा राहत शिविर में रह रहे एक पीड़ित का कहना है कि जिला अस्पताल के डॉक्टरों ने उसकी पत्नी का यह कहकर मजाक उड़ाया कि न तो वह जवान है और न खूबसूरत जो कोई उसके साथ बलात्कार जैसी हरकत करे. इस व्यक्ति का कहना था, ‘हमने यह बात अधिकारियों को भी बताई और पुलिस को भी, लेकिन हमें उम्मीद नहीं कि वे इसे गंभीरता से लेंगे. वे तो बलात्कार के ही आरोप की जांच करने में ऐसा ढीलापन दिखा रहे हैं.’
जांच में हो रही इस देरी पर जो तर्क दिए जा रहे हैं उनमें से कुछ तो बहुत अजीब हैं. दंगों की जांच करने के लिए बने विशेष जांच दल के इंचार्ज और एएसपी मनोज झा कहते हैं, ‘शुरुआत में हमारी टीम में कोई महिला अधिकारी नहीं थी जो इस तरह के मामलों से निपटती.’ जब हम उन्हें बताते हैं कि तहलका ने बलात्कार के ऐसे पांच आरोपित देखे हैं जो अपने गांवों में आज भी गिरफ्तारी के किसी डर के बिना आराम से घूम रहे हैं तो झा कहते हैं, ‘हमें उन शिकायतकर्ताओं तक पहुंचने में बहुत समय लगा जो अलग-अलग राहत शिविरों में रह रहे थे.’ झा यह भी कहते हैं कि जांच की दिशा क्या हो, यह तय करने से पहले उन पहाड़ सरीखी जानकारियों की ठीक से पड़ताल करनी थी जिनमें आपस में ही कई विरोधाभास थे. वे कहते हैं, ‘एक मामला तो ऐसा है जिसमें पीड़ित कुछ बता रही है और उसका एक रिश्तेदार कुछ और ही बता रहा है.’
हालांकि विशेष जांच दल की भी अपनी समस्याएं हैं. उदाहरण के तौर पर, जब यह बना तो इसके दो हफ्ते बाद तक तो अधिकारियों के पास इधर-उधर जाने के लिए वाहन तक नहीं थे. इस दल में दो टीमें हैं जिनमें दो एएसपी, चार डिप्टी एसपी और 54 इंस्पेक्टर व सब इंस्पेक्टर हैं.
विशेष जांच दल के पास अभी जो आंकड़े हैं उनके मुताबिक दंगों के दौरान हुए अपराधों के सिलसिले में कुल 568 प्राथमिकियां दर्ज की गई हैं जिनमें 6,405 लोगों को आरोपित बनाया गया है. ये दंगे मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत, मेरठ और सहारनपुर जिलों में हुए थे जिनमें बलात्कार, हत्या, आगजनी, लूट, दंगे के लिए भड़काना जैसे अपराधों के लिए मामले दर्ज किए गए हैं. तहकीकात के दौरान अब तक आरोपितों में 225 नाम और जोड़े गए हैं, जबकि 216 लोगों के नाम प्राथमिकी से हटाए गए हैं. अब तक कुल 275 गिरफ्तारियां हो गई हैं, जबकि 392 और लोगों की गिरफ्तारी के लिए आदेश जारी हो चुके हैं. इनमें 45 गैरजमानती वारंट भी हैं.
विशेष जांच दल का दावा है कि तहकीकात जनवरी के आखिर तक खत्म हो जाएगी. लेकिन फिलहाल इसकी जो स्थिति है उसे देखकर यह मुमकिन नहीं लगता. मुजफ्फरनगर में एसएसपी के रूप में तैनात रह चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं, ‘खतरा इस बात का है कि अब कहीं तय समय सीमा का पालन करने की जल्दी में जांच में कई झोल न छोड़ दिए जाएं जिससे कोर्ट में आरोपितों के खिलाफ मामला कमजोर हो जाए.’
इस बीच, दंगों के बाद मुजफ्फरनगर और इसके आस-पास के इलाकों में हत्या की छिटपुट घटनाएं बढ़ी हैं. इनमें से ज्यादातर मामलों में पीड़ितों को पहले घात लगाकर घेरा गया और फिर उन्हें पीट-पीटकर मार डाला गया. सितंबर से लेकर अब तक मुजफ्फरनगर में 24 से भी ज्यादा इस तरह की हत्याएं हो चुकी हैं. आशंकाएं जताई जा रही हैं कि ये हत्याएं चुपचाप चल रहे टकराव के एक अभियान का हिस्सा हो सकती हैं जिसके तार उस सामुदायिक नफरत से जुड़े हैं जिसकी चपेट में यह पूरा इलाका आया हुआ है. जाट और मुस्लिम समुदाय के बहुत-से नेता यह बात मानते हैं कि दोनों ही समुदायों के कुछ हिस्सों में अब भी गुस्सा उबल रहा है. उन्हें लग रहा है कि उनके साथ अन्याय हुआ है. स्थानीय लोग बताते हैं कि बदले की इसी भावना के चलते हाल ही में खामपुर गांव में जाट समुदाय के एक व्यक्ति और मोहम्मदपुर राय सिंह गांव में तीन मुस्लिम नौजवानों की हत्या कर दी गई. हालांकि स्थानीय प्रशासन इस बात से इनकार करता है कि इन हत्याओं का सांप्रदायिक तनाव से कोई लेना-देना था, लेकिन राज्य सरकार अब कोई चूक करते दिखना नहीं चाहती. अपनी गंभीरता दिखाने के लिए उसने आगरा के आईजी आशुतोष पांडे को आईजी (मेरठ) का भी अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया है. काम के लिहाज से पांडे की छवि अच्छी मानी जाती है और 1998-2001 के दौरान मुजफ्फरनगर में बतौर एसपी के रूप में अपनी तैनाती में उन्होंने कानून और व्यवस्था को जिस तरह काबू में रखा उसके लिए अब भी उन्हें याद किया जाता है. उस दौरान दर्जनों कुख्यात अपराधी पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए थे. सूत्र बताते हैं कि अपने असर का इस्तेमाल करते हुए पांडे पिछले कुछ समय से अलग-अलग समुदाय के नेताओं के साथ बैठकें कर रहे हैं ताकि आपसी विश्वास, सुरक्षा और एकता की बहाली हो सके. मुजफ्फरनगर में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं, ‘पांडे गांववालों और समुदाय के नेताओं के साथ घंटों बैठकें कर रहे हैं. वे स्थानीय प्रेस के प्रतिनिधियों के साथ भी खूब वक्त गुजार रहे हैं और उनका भरोसा जीतने की कोशिश कर रहे हैं. इसका मकसद खबरों के ऐसे कवरेज से बचना है जिससे सांप्रदायिक सद्भाव और शांति के रास्ते में बाधा आए.’
हालांकि पांडे जैसे पुलिस अधिकारियों के ऐसे सराहनीय प्रयासों के बावजूद इस दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति का पूरी तरह से अभाव दिखता है. उस सामाजिक ताने-बाने को फिर से बहाल करने में राजनीतिक नेतृत्व की कोई दिलचस्पी नहीं लगती जो दंगों से तार-तार हो गया है. नई दिल्ली स्थित एक संगठन सेंटर फॉर पॉलिसी एनालिसिस (सीपीए) की रिपोर्ट भी कुछ ऐसा ही कहती है. सीपीए की एक टीम ने मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में बने राहत शिविरों का दौरा किया था. इस टीम में जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मांदर, पत्रकार सीमा मुस्तफा और सुकमार मुरलीधरन जैसे चर्चित लोग शामिल थे. टीम ने उत्तर प्रदेश सरकार की नीयत पर गंभीर सवाल उठाए हैं और उसका मानना है कि दंगों से पैदा हुई खाई पाटने में सरकार की कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखती. रिपोर्ट जारी करते हुए मांदर ने सरकार से मांग की कि वह उस नीति पर फिर से विचार करे जिसके तहत उन लोगों को पांच लाख रु का मुआवजा दिया जा रहा है जो शपथपत्र पर यह लिखकर देंगे कि वे अब अपने गांवों को नहीं लौटेंगे. हालांकि मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों में सिर्फ एक वर्ग को आर्थिक मदद दिए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख दिखाते हुए सरकार से यह फैसला वापस लेने को कहा था. अदालत ने राज्य सरकार से कहा था कि वह नई अधिसूचना जारी करके हिंसा प्रभावित सभी लोगों को समान मदद दे. प्रदेश सरकार ने भी इसे गलत माना था और इस अधिसूचना को वापस लेने का वादा किया है.
अब तक राहत कैंपों में रह रहे करीब 900 परिवारों ने ऐसे शपथपत्रों पर हस्ताक्षर कर दिए हैं. मांदर मानते हैं कि ऐसी पहल से ग्रामीणों के बीच एक स्थायी खाई खिंच जाएगी. उनका कहना था, ‘इसकी बजाय सरकार को इन परिवारों की मदद और समर्थन करना चाहिए और सुरक्षा का एक माहौल बनाने की कोशिश करनी चाहिए ताकि लोग आश्वस्त होकर अपने घरों को लौट सकें.’ उन्होंने सवाल किया कि आखिर सरकार को राहत शिविर बंद करने की इतनी जल्दी क्यों है. सीपीए की टीम के मुताबिक 2002 में हुए गुजरात दंगों के बाद लगाए गए राहत शिविर छह महीने बाद बंद किए गए थे जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगाए गए ये कैंप दंगों के सिर्फ तीन महीने बाद समेटे जा रहे हैं.
टीम ने इन राहत कैंपों में व्याप्त नारकीय हालात की तरफ भी ध्यान खींचा. हमने भी पाया कि सच्चाई ऐसी ही है. उदाहरण के लिए, मुजफ्फरनगर के लोई गांव के एक शिविर में करीब 3,500 लोग इस ठंड में कपड़े के टेंटों में रह रहे हैं. कई महिलाओं ने अपने बच्चों को इन्हीं शिविरों में जन्म दिया है. मुजफ्फरनगर और शामली में इन शिविरों से बच्चों की मौत की खबरें आने के बाद बीते दिनों उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिए कि खबरों की सत्यता की जांच की जाए और इन शिविरों में ठंड से बचाव के लिए तत्काल समुचित प्रबंध किए जाएं. खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए. अदालत ने 21 जनवरी तक सरकार से इस मामले में अपनी रिपोर्ट देने को कहा है. उधर, पीड़ित आरोप लगाते हैं कि भले ही जिला प्रशासन दावा कर रहा हो कि डॉक्टर शिविरों में नियमित रूप से आ रहे हैं लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है.
लोई के पूर्व मुखिया अब्दुल जब्बार बताते हैं, ‘पिछले तीन महीने के दौरान करीब डेढ़ हजार नौजवान रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ निकल गए हैं. हमारा भविष्य शांतिपूर्ण होगा इस बारे में सरकार कोई भी उम्मीद जगाने में नाकाम रही है. पांच लाख रुपये के मुआवजे की पेशकश के बाद यहां 280 परिवारों नेे ऐसे एफिडेविट पर दस्तखत कर दिए हैं कि वे अब अपने गांव नहीं लौटेंगे. सरकार कुछ नहीं कर रही. सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है. समुदाय के लोगों की मदद के बिना इन परिवारों का ऐसे मुश्किल हालात से निपटना बहुत मुश्किल होता.’
कुल मिलाकर देखें तो पीड़ितों ने मान लिया है कि पुरानी स्थिति की बहाली लगभग नामुमकिन है. दंगों के तीन महीने बाद हाल यह है कि फुगाना, लिसाड़, कुटवा और कुटवी के जो मुस्लिम परिवार राहत शिविरों में रह रहे हैं वे अब अपने गांव लौटने से इनकार करते हैं. जब्बार कहते हैं, ‘फुगाना गांव के जिन 350 परिवारों के घर दंगों में जल गए थे उनमें से कोई अब वापस नहीं लौटना चाहता. बल्कि मुआवजे का जो पैसा मिला है उससे वे मुस्लिम बहुल इलाकों में जमीन खरीदकर वहीं रहना चाहते हैं. दंगों की वजह से अब वे दूसरे समुदाय के लोगों के आसपास रहने से डरने लगे हैं.’ लोगों ने अपनी संपत्ति को भी बेचना शुरू कर दिया है. ऐसे एक मामले में बीते दिनों शामली जिले के लाख गांव में एक मुस्लिम परिवार ने अपना मकान और जमीन अपने पड़ोसी जाट परिवार को बेच दी. इस परीवार के तीन भाइयों, में से एक नवाब का कहना था, ‘हमने जो देखा उसके बाद मैं जानता हूं कि अब हम यहां कभी वापस नहीं आ सकते.’ नवाब का परिवार भी शामली के उन 680 परिवारों में से एक है जिन्होंने अपने गांव वापस न लौटने के बदले सरकार से पांच लाख रु का मुआवजा लिया है.
फुगाना उन इलाकों में से हैं जहां सबसे ज्यादा हिंसा हुई थी. यहां 16 लोग मारे गए थे और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के सारे घर फूंक दिए गए थे. बलात्कार के जो छह मामले दर्ज हुए हैं वे सारे फुगाना पुलिस स्टेशन में ही दर्ज हुए हैं. इनमें से पांच कथित रूप से दंगों के दौरान हुए जबकि एक राहत शिविर में.
मनीष गुप्ता सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मुजफ्फरनगर में रहते हैं. नेशनल एलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट्स से जुड़े गुप्ता कहते हैं कि प्रशासन ऐसे कदम उठा रहा है जिससे राहत शिविरों में रह रहे पीड़ित अपने गांवों में लौटकर न जाएं. यह बताता है कि उसमें दूरदृष्टि का अभाव है. वे कहते हैं, ‘इससे एक खतरनाक परंपरा स्थापित हो रही है. हम सब जानते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगे का मुसलमानों और जाटों के बीच नफरत का उतना लेना-देना नहीं था जितना इस बात से कि इन्हें संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों को चलते जान-बूझकर भड़काया गया. ये दो समुदाय यहां लंबे समय से शांतिपूर्वक रह रहे थे. पड़ोसी जिले मेरठ में बड़े-बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए, लेकिन मुजफ्फरनगर में तब भी कुछ नहीं हुआ.’
राष्ट्रीय लोक दल के नेता अरुण पुंडीर कहते हैं कि ये दोनों समुदाय लंबे समय से एक-दूसरे पर निर्भर रहे हैं और इलाके में गन्ने की खेती ने इस निर्भरता को और मजबूत किया था. वे कहते हैं, ‘जहां जाटों के पास गन्ने की बड़ी-बड़ी जोतें हैं वहीं काम करने वालों का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय से आता है. दोनों समुदायों का इस तरह अलग-अलग इलाकों में बस जाना न सिर्फ सामाजिक ताना-बाना छिन्न करेगा बल्कि दीर्घकालिक रूप से देखा जाए तो इलाके की अर्थव्यवस्था के लिए भी नुकसानदेह होगा.’
आसान रास्ते खोजने की जगह राहत और पुनर्वास की ऐसी कोशिशें होनी चाहिए जो दोनों समुदायों के लोगों के बीच आई दरार को भर सकें. लेकिन अलग-अलग कवायदें जिस तरह से चल रही हैं उनसे साफ है कि ऐसा नहीं हो रहा.