बीमार होते सरकारी अस्पताल

देश की आबादी लगातार बढ़ रही है। मरीज़ों और मर्ज़ों की संख्या भी उसी तेज़ी से बढ़ रही है। बढ़ती मरीज़ों की संख्या के हिसाब से देश में सरकारी अस्पतालों की संख्या काफ़ी कम है। बढ़ते मरीज़ों के इलाज के लिए इन अस्पतालों की दशा में सुधार होना चाहिए, पर नहीं हो रहा है। कई सरकारी अस्पतालों की दशा तो पहले से भी ख़राब हुई है।

सीधे शब्दों में कहें, तो बीमारों का इलाज करने के लिए देश भर में बने सरकारी अस्पताल ख़ुद बीमार हैं। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों को छोड़ दें, तो पूरे देश में बाक़ी सरकारी अस्पतालों की यही दशा है। सामान्य लोगों के लिए इन सरकारी अस्पतालों में इलाज कराना पहाड़ पर चढऩे की तरह मुश्किल हो गया है। अस्पतालों में बढ़ती बीमार लोगों की भीड़ और उनके इलाज में होती देरी से देश में हर साल लाखों मरीज़ दम तोड़ देते हैं।

यह हाल छोटे-मोटे सरकारी अस्पतालों का ही नहीं, बल्कि देश के जाने-माने सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स का भी है। एम्स में सामान्य बीमारों के धक्के खाने का हाल इसी से देखा जा सकता है कि वहाँ हज़ारों लोग अस्पताल के बाहर अपना या किसी अपने का इलाज कराने के लिए महीनों पड़े रहते हैं। देश के लोगों के टैक्स से चल रहे सरकारी अस्पतालों में उन्हीं लोगों को इलाज नहीं मिल पाता, जिनके लिए इन अस्पतालों की बुनियाद रखी गयी थी।

एम्स का तो हाल ही यह है कि वहाँ किसी सामान्य बीमार को महीनों इलाज नहीं मिलता, पर वीआईपी लोगों, सांसदों, मंत्रियों को तत्काल लग्जरी निजी अस्पतालों की तरह इलाज की सुविधा उपलब्ध रहती है। हाल यह है कि अगर किसी गम्भीर मरीज़ को इलाज के लिए बेड मिला हुआ है और उसका बहुत ज़रूरी इलाज भी हो रहा है, पर अगर उसी बीच कोई वीआईपी मरीज़ आ जाता है, तो पहले वाले मरीज़ को उसकी गम्भीर हालत पर बिना तरस खाए ज़मीन पर या स्ट्रेचर पर डाल दिया जाता है।

इतना ही नहीं, एम्स में किसी बीमारी के इलाज के लिए कोई मरीज़ ओपीडी में दिखाने के लिए अपना पर्चा बनवाता है, तो उसका नंबर कब आएगा, इसका भी कोई भरोसा नहीं। सम्भव है कि उसे 15 दिन की तारीख़ मिल जाए, या फिर यह भी सम्भव है कि उसे छ: महीने भी लग जाएँ। पर सांसदों और मंत्रियों के बीमार पडऩे पर उनके अस्पताल पहुँचने से पहले ही सारी सुविधाएँ मौज़ूद रहती हैं।

यहाँ सवाल यह उठता है कि जब एम्स जैसे प्रतिष्ठित और बड़े अस्पताल की यह दशा है, तो छोटे शहरों और गाँव-देहात में बने सरकारी अस्पतालों की क्या दशा होगी?

सरकार के थिंक-टैंक नीति आयोग ने पिछले साल देश के 707 ज़िला अस्पतालों को 10 प्रमुख मानकों पर परखा था। अपनी अध्ययन रिपोर्ट ऑन बेस्ट प्रैक्टिसिस इन द परफॉर्मेंस ऑफ डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में आयोग ने 2017-18 के आँकड़े जुटाये थे। इस अध्ययन में पाया गया था कि देश के कुल 707 ज़िला अस्पतालों में 27 फ़ीसदी अस्पतालों में 100 बेडों पर सिर्फ़ 29 डॉक्टर हैं। 88 अस्पतालों में नर्सों की संख्या औसतन ठीक है। 399 अस्पतालों में पैरामेडिकल स्टाफ की संख्या भी उचित मिली। पूरे देश में सिर्फ़ 89 अस्पताल के सभी सपोर्ट सर्विस मापदंड पर खरे उतरे। सिर्फ़ 21 अस्पतालों में डायग्नोस्टिक सर्विस उपलब्ध थी। पर बाक़ी अस्पतालों में किसी-न-किसी तरह की कमियाँ मिलीं। विदित हो कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का प्रबंधन की मुख्य ज़िम्मेदारी राज्यों की है। स्वास्थ्य क्षेत्र की समूची नीति और रेगुलेटरी फ्रेमवर्क को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय निर्धारित करता है।

सवाल यह है कि सरकारी अस्पतालों की दशा इतनी ख़राब क्यों है? जबकि केंद्र सरकार की ओर से पयाप्त स्वास्थ्य बजट जारी किया जाता है। यह तब है, जब देश भर में केंद्र सरकार के जन औषधि केंद्र हैं, जहाँ आधे दाम में दवाएँ मिलती हैं। देश में एम्स में सीजीएचएस, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना, प्रधानमंत्री आयुष्मान भारत हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर मिशन जैसी योजनाएँ हैं, जिनके चलने के बावजूद भी सामान्य मरीज़ों को इलाज के लिए धक्के खाने पड़ते हैं।

हाल ही में एम्स के नये निदेशक डॉक्टर एम. श्रीनिवास ने लोकसभा सचिवालय के संयुक्त सचिव वाईएम कांडपाल को एक पत्र लिखकर बताया था कि सिटिंग एमपी (मौज़ूदा सांसदों) को सुचारू तरीक़े से इलाज मिले, इसके लिए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिड्यूर (एसओपी) तैयार कर लिया गया है। पत्र में एम्स के निदेशक डॉक्टर एम. श्रीनिवास ने बताया कि सांसदों को ओपीडी, इमरजेंसी में दिखाने और भर्ती होने के हालात के लिए क्या-क्या व्यवस्था रहेगी। उन्होंने एम्स में सांसदों के इलाज के लिए सभी सुविधाओं के उपलब्ध कराने के लिए अस्पताल एडमिनिस्ट्रेशन ने एक कंट्रोल रूम और 24 घंटे के लिए एक ड्यूटी ऑफिसर तैनात कर दिया है। ये ड्यूटी ऑफिसर एक डॉक्टर होगा, जिसकी ज़िम्मेदारी बीमार सांसद को बिना देरी के सही और सुचारू इलाज दिलाना होगा। सांसदों को ज़रूरत पडऩे पर एम्स में फोन करने के लिए तीन लैंडलाइन नंबर के अतिरिक्त एक मोबाइल नंबर भी जारी किया गया है। अगर ज़रूरत हुई, तो मेडिकल ऑफिसर उस विभाग के एचओडी से भी सम्पर्क करेगा।  इस पत्र के सार्वजनिक होने से सवाल उठने लगे, तो एम्‍स के चीफ एडमिनिस्‍ट्रेटिव ऑफिसर देव नाथ साह ने पत्र लिखकर बताया कि मौज़ूदा सांसदों को मेडिकल केयर को लेकर एम्‍स की ओर से जारी किये गये आदेश को तत्‍काल प्रभाव से वापस ले लिया है। अब एम्‍स में सांसदों को वीआईपी ट्रीटमेंट नहीं मिलेगा।

लेकिन सांसदों और मंत्रियों का तो पहले से ही एम्स में तत्काल प्रभाव से इलाज होता है। एम्स में पिछले तीन-चार दशक से जिस तरह से वीआईपी कल्चर चलन है, उसके चलते बाक़ी सामान्य मरीज़ धक्के ही खाते रहते हैं। महीनों से गम्भीर बीमारियों से जूझ रहे मरीज़ों का तत्काल इलाज नहीं होता है।

2022-23 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के लिए 86,201 करोड़ रुपये आवंटित किये हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग को इस बजट का 96 फ़ीसदी हिस्सा दिया गया है। स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग को चार फ़ीसदी बजट दिया गया है।

पिछले साल कोरोना के प्रकोप के दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जारी अपने एक बयान में कहा था कि भारत में स्वास्थ बजट और डॉक्टरों की कमी है। इसके अलावा 2020-21 में केंद्र सरकार ने पाँच फ़ीसदी स्वास्थ्य सेस शुरू किया। अब यह सेस कुछ मेडिकल उपकरणों पर कस्टम्स ड्यूटी की तरह लगाया जाता है, ताकि देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने में मदद मिल सके। सरकार का अनुमान है कि 2020-23 में इस स्वास्थ्य सेस (कस्टम्स) से 870 करोड़ रुपये जमा हो सकते हैं।

सवाल यह है कि आज़ादी के बाद देश में निजी अस्पतालों की भरमार हो चुकी है। पर वहीं सरकारी अस्पतालों का निर्माण वर्ष 2014 के बाद बहुत धीमी गति से हुआ है, जिसमें कि दिल्ली के कई नये अस्पतालों को अगर निर्माण से दूर कर दिया जाए, तो इस दौरान शायद ही कोई अस्पताल बना हो।

सन् 2006 से सन् 2022 के बीच सीएजीआर से स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग का आबंटन 13 फ़ीसदी बढ़ा था। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण से सम्बन्धित स्टैंडिंग कमेटी ने अस्पतालों के लिए और बजट की माँग करते हुए कहा है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान विभाग जितनी राशि की माँग करता रहा है, उसे उससे कम राशि आवंटित की जाती है। फिर भी 2015-16 से पहले बजट का 100 फ़ीसदी या उससे ज़्यादा बजट का उपयोग किया जाता रहा है। वित्त वर्ष 2020-21 में देश में स्वास्थ्य पर स्वास्थ्य मंत्रालय ने केंद्रीय स्वास्थ्य बजट से 19 फ़ीसदी अधिक 77,569 करोड़ रुपये ख़र्च किये। ऐसे ही 2021-22 में भी केंद्रीय स्वास्थ्य बजट से 16 फ़ीसदी अधिक ख़र्च बताया गया है।