वर्तमान निर्वाचित बिहार विधानसभा का कार्यकाल दिसंबर, 2020 में समाप्त हो जाएगा। इसके दो महीने पहले चुनाव सम्बन्धी प्रक्रिया शुरू होनी है। इसलिए अंदाज़ा है कि अक्टूबर-नवंबर में बिहार के विधानसभा चुनाव होंगे। हालाँकि चुनाव आयोग ने अभी मतदान की तारीखों की घोषणा नहीं की है, लेकिन बिहार में चुनावी हलचल होने लगी है।
अमित शाह तो बिहार में वर्चुअल रैली भी कर चुके हैं। इसके लिए उन्होंने पूरे बिहार में जगह-जगह 72,000 एलईडी भी लगवाये। शाह की इस रैली में तकरीबन 144 करोड़ का खर्चा हुआ। हालाँकि लॉकडाउन में मज़दूरों की दुर्दशा पर ध्यान न देने के बाद उनकी इस वर्चुअल रैली की लोगों ने जमकर निंदा की। और चीन द्वारा भारतीय सैनिकों पर हमले के बाद तो बिहार के लोगों का गुस्सा इतना बढ़ गया कि लोगों ने कई जगह एलईडी भी तोड़ डाले।
वहीं नीतीश कुमार की गाड़ी पर ईंट-पत्थर फेंके गये। इसका मतलब साफ है कि बिहार के लोग मौज़ूदा भाजपा-जद(यू) की गठबन्धन सरकार से खुश नहीं हैं। इससे यह तो तय है कि सुशासन बाबू यानी नीतीश पहले की अपेक्षा लोगों के प्रिय नहीं रहे और उनकी धूमिल हुई है।
ऐसे में उनका फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन क्या उन्हें हराना इतना आसान होगा? क्योंकि शराबबन्दी करके नीतीश अधिकतर महिलाओं की समर्थन हासिल कर चुके हैं। लेकिन लॉकडाउन में मज़दूर वर्ग की उन्होंने काफी उम्मीदें भी तोड़ीं, जिससे न केवल गरीब, बल्कि मध्यम वर्ग और उनके पक्ष में खड़ा एक सम्पन्न तबका भी नीतीश के खिलाफ हो गया है।
सवाल यह है कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव के जेल में जाने और हिंदुस्तान अवाम मोर्चा (हम) प्रमुख जीतनराम मांझी का प्रभाव कम होने के बाद अब कौन ऐसा है, जो जनता दल (यूनाइटेड) यानी जद(यू) प्रमुख और बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उर्फ सुशासन बाबू को टक्कर दे सके? क्योंकि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव में फूट डालकर, सरकार गिराकर भाजपा के साथ जद(यू) का गठबन्धन करके सरकार बनाने वाले सुशील मोदी जिस तरह सुशासन बाबू के समकक्ष रहकर इस बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे थे, उनके वो सपने तो चकनाचूर होते नजर आ रहे हैं।
यह इस वजह से है, क्योंकि लोगों का असली गुस्सा भाजपा के प्रति तो था ही, लॉकडाउन में सुशील मोदी ने ऊपर से यह और कह दिया कि प्रवासी मज़दूरों को बुलाने के लिए सरकार के पास बसें नहीं हैं। यही वजह है कि जनता के बीच उनकी छवि पहले से और खराब हो गयी। राजद की बात करें, तो महागठबन्धन में शामिल दलों द्वारा लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव को नीतीश के मुकाबिल खड़ा करके देखा जा रहा है। भाजपा छोड़ चुके दिग्गज नेता शत्रुघ्न सिन्हा तो लालू प्रसाद यादव से मिलकर यहाँ तक कह चुके हैं कि तेजस्वी यादव बिहार का भविष्य हैं। वैसे शत्रुघ्न सिन्हा के बयान को हल्के में नहीं लिया जा सकता। वे न केवल अनुभवी नेता हैं, बल्कि बिहार की बड़ी जनसंख्या उन्हें आज भी आदरभाव से देखती है और बिहार के गौरव के रूप में उनकी इ•ज़त करती है। यह बयान देकर उन्होंने एक तरह से बिहार के कम-से-कम 15 फीसदी मतदाताओं को तेजस्वी को अगले मुख्यमंत्री के रूप में देखने पर विचार करने का आह्वान कर दिया था। अब तेजस्वी पूरी तरह सक्रिय भी हो चुके हैं। लेकिन मांझी के महागठबन्धन से अलग होने की खबरें भी ज़ोर पकड़ रही हैं।
लेकिन जनता में तेजस्वी यादव की भी अपने पिता की तरह छवि नहीं है। माना कि वे युवा नेता हैं और युवाओं को उनसे काफी उम्मीदे हैं, लेकिन प्रौढ़ और बुजुर्ग तबका उन पर भरोसा नहीं कर पा रहा है। वहीं युवा वर्ग भी कई खेमों में बँटा हुआ है। शायद यही वजह है कि अब तेजस्वी यादव की नींद भी उचटने लगी है। उनकी नींद उचटाने वाले दो तथ्य हैं। पहला है बिहार के चुनाव का नज़दीक आना और दूसरा है- पप्पू यादव का बढ़ता वर्चस्व।
पहले वाले मामले में वे लॉकडाउन में हो रही मज़दूरों की दशा का रोना रोकर बिहार की जद(यू)-भाजपा सरकार की नीतियों की कमियाँ गिनाने और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी को विलेन बताने की कोशिश करने में लग गये हैं। दूसरी ओर पप्पू यादव की जग प्रशंसा को देखते हुए, वे जनता का और भरोसा जीतने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि पप्पू यादव जिस तरह लोगों को मदद कर रहे हैं, उस तरह किसी नेता ने अभी तक नहीं की है। वैसे पप्पू यादव की बढ़ती लोकप्रियता से न केवल तेजस्वी यादव, बल्कि बिहार के सत्ता पक्षों और बाकी विपक्षी नेताओं में घबराहट बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि लॉकडाउन में भीड़ इकट्ठी करने के नाम पर पप्पू यादव के खिलाफ दो बार एफआईआर भी हो चुकी है।
चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों का इंतजार
बिहार विधान सभा के चुनाव लेकर चुनाव आयोग के दिशानिर्देश मिलते ही सभी दल प्रचार-प्रसार शुरू कर देंगे। एक अनुमान है कि बिहार चुनाव पाँच चरणों में सम्पन्न होंगे। मतदान लगभग 20 अक्टूबर के बाद से शुरू होकर नवंबर के पहले सप्ताह में सम्पन्न हो जाएँगे और चुनाव परिणाम 10-11 नवंबर के आसपास तक आ जाएँगे। हालाँकि चुनाव कब-से-कब तक होंगे? यह तो चुनाव आयोग की घोषणा के बाद ही साफ हो पायेगा। लेकिन बिहार में देश के गृह मंत्री और भाजपा नेता अमित शाह की वर्चुअल रैली ने यह साफ कर दिया है कि चुनाव समय पर होंगे। क्योंकि बिहार के निर्वाचन विभाग में भी चहल-पहल बढ़ गयी है। विभागीय आधिकारियों के मुताबिक, राष्ट्रीय निर्वाचन आयोग के भी कार्यालय में सामान्य कामकाज शुरू हो गया है।
चुनाव आयोग जैसे ही दिशा-निर्देश देगा, बिहार में मतदाता सूची में नाम शामिल करने की कार्रवाई शुरू हो जाएगी। वैसे मतदाता सूची में नाम शामिल करने का कार्य जनवरी 2020 में शुरू हुआ था और मतदाता सूची का पहला प्रकाशन हो भी गया था। लेकिन महामारी ने हालात बिगाड़ दिये और लॉकडाउन के चलते बाकी मतदाताओं का भौतिक सत्यापन नहीं हो पाया; जिससे सूची में मतदाताओं के नाम शामिल नहीं किये जा सके, जिस पर अब काम होगा।
विधानसभा चुनाव से पहले विधान परिषद् चुनाव
बिहार विधानसभा चुनाव में 243 सीटों पर मतदान होगा। बिहार में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले होने 6 जुलाई, 2020 को वाले विधान परिषद् (एमएलसी) के चुनाव होने हैं। एमएलसी का चुनाव अब तक हो चुका होता, लेकिन कोरोना वायरस के चलते हुए लॉकडाउन की वजह से इन्हें टाल दिया गया था। वैसे एमएलसी के चुनावों को प्रदेश की सत्ता का सेमीफाइल कहना गलत नहीं होगा। यह चुनाव विधानसभा सदस्यों के द्वारा चुनी जाने वाली एमएलसी की 9 सीटों पर होंगे। ऐसे में सभी दलों के नेता विधानसभा चुनाव से पहले एमएलसी चुनावों में अपनी-अपनी जीत पक्की करने की कोशिश में लगे हैं।
विदित हो कि एमएलसी की जिन 9 सीटों पर चुनाव होने हैं, उनमें से 6 सीटों पर अकेले जनता दल (यूनाइटेड) यानी जद(यू) का कब्ज़ा रहा है, जबकि तीन सीटों पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) काबिज़ रही है। माना जा रहा है कि बिहार वालों का मिज़ाज अब बदला हुआ है, इसलिए दोनों दलों की सीटें कम होने की काफी सम्भावनाएँ हैं। हो सकता है कि इसका फायदा राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस को मिले। ऐसे में अगर भाजपा और जद(यू) एमएलसी के चुनावों में हार जाती है, तो विधानसभा चुनावों के नतीजों पर अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं रह जाएगा। इसीलिए भाजपा और जद(यू), दोनों के लिए यह चुनाव अहम माना जा रहा है। विदित हो कि बिहार के 9 एमएलसी सदस्यों का कार्यकाल 6 मई को ही पूरा हो गया था। इन सदस्यों में नीतीश सरकार में मंत्री अशोक चौधरी और विधान परिषद् के कार्यकारी सभापति रहे मो. हारून रसीद के अलावा पी.के. शाही, सतीश कुमार, सोनेलाल मेहता, हीरा प्रसाद बिन्द, राधामोहन शर्मा, कृष्ण कुमार सिंह व संजय प्रकाश शामिल हैं।
एमएलसी समीकरण
फिलहाल बिहार में कुल 243 विधानसभा सदस्य (विधायक) हैं, जिनमें जद(यू) के 70, भाजपा के 54 और लोजपा के दो हैं। वहीं विपक्षी दलों में राजद के 80, कांग्रेस के 26 और अन्य दलों के 11 विधायक हैं।
मौज़ूदा समीकरण के हिसाब से एमएलसी की एक सीट के लिए 27 विधायकों की ज़रूरत होगी। इस तरह तीन राजद के तथा कांग्रेस के एक सदस्य का चुना जाना तय है। जबकि जद(यू) को तीन सीटें तब मिलेंगी, जब लोजपा और एक निर्दलीय विधायक के समर्थन उसे मिलेगा। वहीं भाजपा अपने विधायकों के दम पर दो सीटें जीत सकेगी। इस तरह से एमएलसी चुनाव में ही जद(यू) को तीन और भाजपा को एक सीट का नुकसान होने की सम्भावना है, जबकि राजद और कांग्रेस को फायदा मिलने की उम्मीद है। कुछ राजनीतिज्ञों का मानना है कि एमएलसी चुनावों का असर विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। हालाँकि जद(यू), भाजपा, लोजपा, राजद का मानना है कि एमएलसी चुनाव को विधानसभा चुनाव से जोडक़र नहीं देखा जा सकता। सत्ताधारी जद(यू) और भाजपा का तो यहाँ तक कहना है कि बिहार में इस बार फिर एनडीए की सरकार बनेगी।
तेजस्वी की मुश्किलें
बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव चाहते हैं कि वह मुख्यमंत्री बनें। लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि महागठबन्धन में शामिल बहुत से नेता उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा मनाने को तैयार नहीं हैं। जबकि राजद पहले ही उनके नाम पर मुख्यमंत्री चेहरा होने की पक्की मुहर लगा चुकी है। लालू परिवार में अभी तेज प्रताप सिंह को लेकर कोई खास फैसला नहीं किया गया है। हालाँकि पहले तेज प्रताप सिंह को विधान परिषद् (एमएलसी) में भेजने के कयास लगाये जा रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
पप्पू यादव बनेंगे रोड़ा
आजकल बिहार के अधिकतर लोगों की पसन्द बन चुके राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव राजद की जीत में खासा रोड़ा बन सकते हैं। क्योंकि जनता में बढ़ते उनके प्रभाव का तोड़ किसी के पास नहीं है। इसका कारण है कि वह दिल खोलकर लोगों की मदद करते हैं। चाहे फिर यह मदद किसी के द्वारा उन पर किये गये अत्याचार के खिलाफ हो या पैसे से। इतना ही नहीं, वे जब तक सांसद रहे, उनके दिल्ली आवास पर हमेशा देश भर से उनके संसदीय क्षेत्र से आये दर्ज़नों मरीज़ रहते थे। उनके खाने और रहने की पूरी व्यवस्था यहाँ तक की अस्पतालों में उनके इलाज के लिए सिफारिश करने में वे कभी पीछे नहीं रहे। यहाँ तक कहा जाने लगा कि पप्पू यादव के आवास को मरीज़ों का आश्रम कहा जाने लगा था। बिहार में भी उन्होंने बाढ़ के दौरान से लेकर लॉकडाउन तक में लोगों की जमकर मदद की।
यादवों की खटपट भी बड़ी समस्या
बिहार में यादव वोटबैंक तीन हिस्सों में बँटा हुआ है। एक, जो बड़ा हिस्सा है, वह लालू प्रसाद यादव की पार्टी की तरफ है। दूसरा हिस्सा पप्पू यादव की तरफ है और तीसरा हिस्सा शरद यादव की तरफ। वहीं पप्पू यादव की दंबग यादवों से भी खटपट रही है। ऐसे में भले ही पप्पू यादव बिहार में खूब लोकप्रिय हो चुके हैं, लेकिन सभी यादव उन्हें पसन्द नहीं करते और न ही वे लोग, जो दबंग हैं। क्योंकि बिहार में दबंगों का आज भी वर्चस्व है। ऐसे में केवल आम लोगों का भरोसा जीतकर चुनाव जीतना आसान नहीं है।
पैर जमाने की कोशिश में ओवैसी
बिहार की सियासत में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी अपने पैर जमाने की कोशिश में हैं। उन्होंने बिहार विधानसभा चुनावों के लिए कमर कस ली है। इसकी तैयारी में बिहार के 22 ज़िलों की 32 सीटों पर अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी है। बाकी सीटों पर भी पार्टी अपने उम्मीदवार उतारेगी। एआईएमआईएम ने समान विचारधारा वाले दलों के साथ बिहार में गठबन्धन के भी संकेत दिये हैं। एआईएमआईएम ने जिन 32 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की है, वे मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं। मगर इनमें दो सीटें आरक्षित हैं और बाकी 30 सीटें सामान्य जाति के लिए हैं। विदित हो कि बिहार में ओवीसी की पार्टी एआईएमआईएम के उम्मीदवार कमरुल होदा पिछले साल विधानसभा उप चुनाव में किशनगंज सीट से विजयी हुए थे, जिससे पार्टी का बिहार में खाता खुल गया था। वैसे अगर देखा जाए, तो भाजपा को मुस्लिम वोट मिलने के अच्छे आसार नहीं हैं; ऐसे में दूसरी पार्टियों को भी मुस्लिम वोट कम ही मिलेगा। क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा तबका ओवैसी की पार्टी के पक्ष में है। माना जा रहा है कि इसका सीधा राजनीतिक नुकसान राजद को उठाना पड़ेगा।
प्रवासी मज़दूर भी करेंगे मतदान
भाजपा और जद(यू) की मुश्किल यह है कि इस बार प्रवासी मज़दूर, जो अधिकतर चुनावों के दौरान बाहर ही हुआ करते थे, इस बार बड़ी संख्या में मतदान करेंगे। चुनाव आयोग ने एक विशेष अभियान चलाकर इन मज़दूरों का नाम मतदाता सूची में जोडऩे का काम शुरू कर दिया है। बाहर से आये सभी मज़दूरों को मतदाता सूची से जोडऩे के दौरान यह देखा जाएगा कि ये मज़दूर अपने पैत्रिक निवास स्थान में मतदाता सूची में शामिल हैं या नहीं। अगर किसी मज़दूर का नाम मतदाता सूची में नहीं होगा, तब ही उसका नाम जोड़ा जाएगा। विदित हो कि लॉकडाउन के दौरान बिहार के 25 लाख से अधिक प्रवासी मज़दूर राज्य में लौट आये हैं। इतनी बड़ी संख्या किसी भी पार्टी की हार-जीत प्रभावित करने के लिए काफी है।
सोशल डिस्टेंसिंग का होगा पालन बढ़ सकती है बूथों की संख्या
बिहार में फिलहाल 7 करोड़ 18 लाख से अधिक मतदाता हैं। वहीं राज्य में बूथों की संख्या 73,000 है। इस हिसाब से हर बूथ पर 1,000 के आसपास मतदाता मतदान करेंगे। यही नहीं हर बूथ पर मतदाताओं को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना पड़ेगा। महामारी को देखते हुए बूथों की संख्या बढ़ाने के सवाल पर फिलहाल चुनाव आयोग ने कोई जवाब नहीं दिया है। इस मामले में चुनाव आयोग का कहना है कि वैसे तो लोग अब खुद ही जागरूक हैं, लेकिन कोरोना वायरस को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के निर्देशों का पालन कराया जाएगा।
इस बार ईवीएम एम-3 और वीवीपैट से होगा मतदान
इस बार बिहार विधान सभा चुनाव में एम-3 मॉडल की ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) मशीनों से मतदान कराया जाएगा; जिनमें वीवीपैट (वोटर वैरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) का उपयोग किया जाएगा। बिहार के उप मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी बैजू नाथ सिंह के अनुसार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश से एम-3 मॉडल की ईवीएम और वीवीपैट मशीनें मँगवायी जाएँगी।
बता दें कि अक्सर यह देखा जाता है कि हर चुनाव के बाद हारने वाली पार्टियाँ अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ती हैं और चुनाव में धाँधलेबाज़ी का आरोप लगाती हैं। इसलिए अब निर्वाचन आयोग ने निर्णय लिया है कि ईवीएम एम-3 यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन मार्क-3 का इस्तेमाल किया जाएगा। आयोग के सूत्रों के अनुसार, ईवीएम की चिप केवल एक बार ही इस्तेमाल की जा सकती है। इस चिप के सॉफ्टवेयर को न ही पढ़ा जा सकता है और न ही इसे इंटनेट से जोड़ा जा सकता है। अगर कोई इस मशीन को खोलने की कोशिश करेगा, तो यह मशीन छेड़छाड़ करने वाले की फोटो खींचकर खुद बन्द हो जाएगी। इसके अलावा ईवीएम मार्क-3 में 384 प्रत्याशियों की जानकारी रखी जा सकती है।
वहीं, वीवीपैट को ईवीएम के साथ जोड़ा जाता है। इसका काम होता है ईवीएम में दबाये गये बटन वाले चुनाव चिह्न की पर्ची प्रिंट करके बाहर निकालना, जिसे मतदाता देख सकता है।