कल तक कानूनी नुक्तों और अदालतों का सहारा लेने वाले अरविंद केजरीवाल ने अपने पहले राजनीतिक कार्यक्रम की शुरुआत दिल्ली में बिजली के कटे हुए कनेक्शन जोड़कर की. अगला हमला सीधे सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा पर किया और डीएलएफ के साथ-साथ हरियाणा सरकार को भी कठघरे में खड़ा कर दिया. फिर उन्होंने कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद के ट्रस्ट के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार की वह चिट्ठी खोज निकाली जिसके मुताबिक ट्रस्ट ने राज्य के 17 शहरों में फर्जी दस्तखतों के सहारे सरकारी अनुदान बांटने का दावा किया था. इन तमाम चोटों से बिलबिलाई कांग्रेस बस यह शिकायत कर पा रही है कि अगर केजरीवाल के पास सबूत हैं तो वे अदालत जाएं, मीडिया जाकर सस्ती लोकप्रियता क्यों बटोर रहे हैं.
लेकिन केजरीवाल अदालत क्यों जाएं? अब वे उस सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि नहीं हैं जो अदालतों में जनहित याचिकाएं डालती है, वे उस राजनीतिक समाज के नुमाइंदे हैं जो अपनी वैधता जनता की अदालत से हासिल करता है. इस लिहाज से केजरीवाल ने अपना पहला राजनीतिक दांव पूरे कौशल से खेला है और उन लोगों को मायूस किया है जो यह मानकर चल रहे थे कि अण्णा हजारे के अलग हो जाने से उनकी कोई अपील नहीं रह जाएगी. दिल्ली में बढ़े हुए बिजली बिलों का मुद्दा सफलतापूर्वक उठाकर केजरीवाल ने साबित किया है कि वे जनता की नब्ज पहचानने की सही कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन लोकपाल बिल से बिजली के बिल तक चली आई इस राजनीति की असली चुनौतियां अभी बाकी हैं. हमारे नेताओं की बहुत सतही कतार में अरविंद केजरीवाल दूसरों से अलग इसलिए भी दिखाई पड़ रहे हैं कि वे सरकारी कागज बहुत ध्यान से पढ़ते हैं और इसलिए व्यवस्था की गड़बड़ियों को अचूक ढंग से पहचान पाते हैं. उनकी निजी ईमानदारी और इससे पैदा साहस भी उन्हें ऐसा नायक बनाते हैं जिसके पीछे राजनीतिक दलों से ऊबी-अघाई शहरी नौजवान पीढ़ी चलने को तैयार हो जाए. दरअसल केजरीवाल को मिल रहे व्यापक समर्थन का एक बड़ा आधार अब तक यह शहरी मध्यवर्ग बनाता रहा है. बेशक, बिजली-पानी जैसे जरूरी मुद्दों पर बिल्कुल सड़क की लड़ाई लड़ते हुए वे इस समर्थन आधार का और भी विस्तार कर सकते हैं, उसमें निम्नवर्गीय और मेहनतकश जमातों को जोड़ सकते हैं.
लेकिन राजनीति इतने भर से नहीं सधती, वह कहीं ज्यादा मुश्किल इम्तिहान लेती है. उसके लिए सरकारी कागज पढ़ने से आगे जाकर कुछ वैचारिक पढ़ाई भी करनी पड़ती है, अपनी रणनीति को ही नहीं, अपने आप को भी बदलना पड़ता है. भारत जैसे जटिल देश में, जिसकी 70 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के आस पास रहती हो, एक वास्तविक राष्ट्रीय नेतृत्व अंततः अपने आप को वर्गच्युत करके, इन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए ही उभर सकता है.
अगर केजरीवाल सामाजिक बराबरी और न्याय की अंतिम लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो उन्हें अपनी पूरी राजनीति का नए सिरे से खाका बनाना होगा
केजरीवाल जब इस दिशा में बढ़ेंगे तो अण्णा हजारे के बाद उन्हें अपने दूसरे सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी प्रशांत भूषण से भी टकराने की नौबत आ सकती है. इसमें शक नहीं कि भूषण एक संवेदनशील नागरिक हैं और उन्होंने इस देश में मानवाधिकार से जुड़े मुद्दों की अदालती लड़ाई को कई नए मुकाम दिए हैं, लेकिन अंततः वे अब तक उस सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे ही हैं जो सत्ता का चरित्र पूरी तरह बदलना नहीं, उसे बस इतना सुधारना चाहती है कि वह कुछ मानवोचित और न्यायोचित लगे और उसमें उसके हित सुरक्षित रहें. यह अनायास नहीं है कि अपनी वकालत से कमाए करोड़ों रुपये का बिल्कुल कानूनी ढंग से निवेश करते हुए भूषण परिवार ने नोएडा से लेकर पालमपुर तक ढेर सारी जायदाद खरीदी है. लेकिन यह कानूनी कमाई इस नैतिक तर्क की उपेक्षा से ही बनी है कि एक-एक सुनवाई के लाखों रुपये लेने वाली वकालत से न्याय होता नहीं, खरीदा ही जाता है और आखिरकार किसी अमीर आदमी की झोली में जाने को अभिशप्त होता है. जाहिर है, देर-सबेर केजरीवाल और उनकी टीम को आचरण की शुचिता संबंधी नियम बनाते हुए अपने आप से यह सवाल भी पूछना होगा कि वे वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों को भी नियंत्रित करना जरूरी मानते हैं या नहीं.
संभव है, यह सब न करते हुए भी केजरीवाल राजनीति में कामयाब हो जाएं- इस अर्थ में कि उनकी अब तक नामविहीन पार्टी को कुछ सीटें या उन्हें कोई अहम ओहदा मिल जाए. लेकिन अगर वाकई वे बदलाव की राजनीति करना चाहते हैं, अगर वाकई वे सामाजिक बराबरी और न्याय की अंतिम लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो उन्हें अपनी पूरी राजनीति का नए सिरे से खाका बनाना होगा. यह अच्छी बात है कि राजनीति में आने के लिए उन्होंने दो अक्टूबर का दिन चुना और उससे पहले जो छोटी-सी किताब लिखी, उसका नाम स्वराज रखा. इससे लगता है कि वे अपने को गांधी की विरासत से जोड़ना चाहते हैं. लेकिन राजनीतिक गांधी अहिंसक और सत्याग्रही गांधी से कहीं ज्यादा जटिल हैं, वे कहीं ज्यादा तीखी मांग करते हैं. केजरीवाल ने फिलहाल अपनी राजनीति का जो खाका पेश किया है, वह तो बस एक सुधारवादी एजेंडा है जिसमें या तो लालबत्ती, बंगले, वीआइपी सुरक्षा से दूर रहने की नैतिकतावादी घोषणाएं हैं या फिर सबको न्याय, रोजगार और उचित कीमत दिलाने के भावुक वादे- उसमें उन नए रास्तों की तरफ इशारा नहीं है जिनके जरिए यह संभव होगा.
ठीक है कि यह अभी इब्तिदा ही है और इसी वक्त सारे सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए, न सबके जवाब मांगे जाने चाहिए, लेकिन यह जरूरी है कि केजरीवाल अपनी और भारतीय समाज की वास्तविक राजनीतिक चुनौतियां वक्त रहते पहचानें. वक्त जिस तेजी से आता है, उससे ज्यादा तेजी से बीत भी जाता है, यह एहसास केजरीवाल से ज्यादा किसे होगा जिन्होंने पिछले ही साल एक आंदोलन को तूफान में बदलते और फिर उसे राख होकर बिखरते सबसे करीब से देखा है.