बिजली पर बेपरवाही

बिजली की भारी किल्लत से जूझ रहा बिहार अगले पांच साल में ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का लक्ष्य लेकर चल रहा है. राज्य सरकार अपने पुराने बिजली घरों की मरम्मत करा रही है और नए बिजली घर बना रही है. कुछ समय पहले औरंगाबाद जिले के नबीनगर में एक बिजलीघर का शिलान्यास करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि जल्द ही बिहार को बाहर से बिजली लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी.  

लेकिन यह भविष्य की बात है. बिहार के वर्तमान पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि यहां बिजली निगलने वाले खिलाडि़यों की एक फौज है और उन खिलाडि़यों को विजेता बनाने वाले रेफरी भी मैदान में अपनी पूरी ऊर्जा लगाते हैं. जब तक इस भ्रष्ट गठजोड़ पर नकेल नहीं कसी जाती तब तक बिजली के मोर्चे पर भविष्य में आत्मनिर्भरता के कोई खास मायने नहीं लगते. राज्य विद्युत बोर्ड ने बिहार विद्युत नियामक आयोग को 2011 के जो आंकड़े बताए हैं उनके हिसाब से 57 प्रतिशत से अधिक बिजली का ‘एयर ट्रांसमिशन ऐंड कॉमर्शियल लॉस’ हो जाता है. यानी 100 रुपये की बिजली है तो उसमें सरकार को 57 रुपये से ज्यादा का नुकसान है. यह नुकसान एक रिकॉर्ड की तरह है. देश के सभी राज्यों में यह नुकसान होता है. लेकिन बिहार में नुकसान के इस खेल को देखें तो साफ लगता है कि यह नुकसान जितना होता नहीं, उससे ज्यादा कहीं सुनियोजित तरीके से कराया जाता है. 

लेकिन पहली व्यवस्था के पंगु होने और दूसरी के आने के बीच के वक्त का हिसाब-किताब जब होगा तब शायद एक और कीर्तिमान कायम हो. 

बिहार सरकार फिलहाल 500 मेगावाट बिजली की खरीदारी कर रही है. इसमें 300 मेगावाट बिजली एनटीपीसी विद्युत व्यापार निगम लिमिटेड से 4.31 रुपये की दर से तथा 200 मेगावाट अडानी ग्रुप से 4.41 रुपये की दर से ली जा रही है. इतनी महंगी खरीदी गई बिजली में यदि 57 प्रतिशत से अधिक नुकसान हो तो यह सवाल अहम हो जाता है. जानकार बताते हैं कि मानकों के हिसाब से यह नुकसान 29 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए. ऊर्जा क्षेत्र में सुधार के लिए तय हो रहे मानदंड को मानें तो यह नुकसान 15 प्रतिशत में सिमटकर रहना चाहिए था. लेकिन बिजली को लेकर भविष्य के सपने में मगन महकमे में यह सवाल हाशिये पर है. राज्य विद्युत बोर्ड के प्रवक्ता हरेराम पांडेय कहते हैं, ‘नुकसान 40 प्रतिशत के करीब ही होगा. किन्हीं विशेष परिस्थितियों के रिकॉर्ड के आधार पर आप 57 प्रतिशत नुकसान की बात कर रहे हैं’. हम उन्हें ध्यान दिलाते हैं कि पिछले तीन साल से विद्युत विभाग के निगरानी कोषांग की पुलिस की गतिविधि ही बिजली चोरी को रोकने-रुकवाने को लेकर लगभग ठप पड़ी हुई है तो बिजली चोरी में एक रिकॉर्ड क्यों नहीं बन रहा होगा. पांडेय कहते हैं, ‘विद्युत बोर्ड अपने तरीके से विशेष पुलिस बल क जरिए बिजली चोरों पर छापेमारी कर रहा है. हम विभाग में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ भी लोगों को आगाह करते रहे हैं.’

पर असल सवाल यह है कि आखिर क्यों 1992 में गठित उस विद्युत विभाग निगरानी कोषांग को अचानक पंगु होना पड़ा जो बना ही बिजली चोरी रोकने के लिए था. क्यों आज यह स्थिति है कि कोषांग की पुलिस आज बिजली चोरी होते हुए देखकर भी तमाशबीन बनने को विवश है, क्योंकि उसे अब यह अधिकार नहीं है कि वह बिजली चोरों के खिलाफ कोई कार्रवाई करे? राज्य के ऊर्जा विभाग के प्रधान सचिव अजय नायक  कहते हैं, ‘57 नहीं, यह नुकसान करीब 46 प्रतिशत है.’ वे यह भी बताते हैं कि समस्या को दूर करने के लिए पटना में वितरण व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी है. वे और योजनाएं भी गिनाते हैं. निगरानी कोषांग विभाग पंगु बना दिया गया है तो बड़े चोर कैसे पकड़े जाएंगे, पूछने पर नायक कहते हैं, ‘दूसरे रास्ते बिजली चोरों को पकड़ने की कोशिश जारी है. बिजली के अलग से न्यायालय बनाकर त्वरित कार्रवाई भी की जा रही है.’ यानी बिजली बोर्ड से लेकर ऊर्जा विभाग तक इस सवाल का ठोस जवाब नहीं मिल पाता कि आखिर बिजली की चोरी रोकने के लिए बने निगरानी कोषांग को क्यों पंगु बनाया गया. लेकिन थोड़ा अतीत में जाने पर मामला कुछ-कुछ साफ होता है. जो दस्तावेज तहलका को मिले हैं, उनमें बड़े खेल के संकेत मिलते हैं. 

बात 2008 की है. विद्युत निगरानी कोषांग के महानिदेशक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आनंद शंकर हुआ करते थे. उनके निर्देश पर बिजली के बड़े खिलाडि़यों पर छापेमारी शुरू हुई. कई केस दर्ज हुए. इनमें एक केस नंबर 67/2008 भी था जो दादीजी स्टील नाम की एक कंपनी के खिलाफ था. निगरानी कोषांग को पता चला कि ऐसी ही चोरी को लेकर बिजली बोर्ड ने कई प्रतिष्ठानों से टैंपर्ड मीटर जब्त किया था और बिजली चोरी के ठोस साक्ष्य भी मिले थे, लेकिन बोर्ड की ओर से बिजली के उन चोरों के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं कराया जा सका था. जब दादीजी स्टील पर मामला दर्ज हुआ तो आनन-फानन में बोर्ड ने भी कइयों पर मामले दर्ज करा दिए. लेकिन इतने दिन तक चुप्पी क्यों साधे रहा, इसे स्पष्ट नहीं किया जा सका. फिर बिजली बोर्ड अध्यक्ष स्वप्न मुखर्जी ने एक रास्ता निकाला और घोषणा की कि जिन प्रतिष्ठानों या उपभोक्ताओं के मीटर टैंपर्ड हैं वे इसकी स्वैच्छिक घोषणा करें. राज्य में करीब 28 लाख उपभोक्ता हैं, लेकिन 52 बड़े उपभोक्ताओं ने ही यह घोषणा की कि उनका मीटर टैंपर्ड है और उसे बदला जाए. 

खेल यहीं पर हुआ. जिन उपभोक्ताओं के टैंपर्ड मीटर जब्त किए गए थे, उन्होंने भी स्वैच्छिक घोषणा की बहती गंगा में हाथ धोया और बोर्ड ने भी उन पर मेहरबानी की. जिस स्टील कंपनी के खिलाफ निगरानी कोषांग ने कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू कर दी थी और जिसके मामले में तीन साल की सजा के साथ करीब 20 करोड़ रु जुर्माने की संभावना थी,  उसने भी करीब दो माह बाद स्वैच्छिक घोषणा करके अपने बचने का रास्ता निकाल लिया और मात्र एक करोड़ का जुर्माना भरकर छुट्टी पाने की कोशिश की. लेकिन बात बड़ी थी. आनंद शंकर सख्त छवि वाले अधिकारी थे  इसलिए उन्होंने कई और बड़ी मछलियों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया. तभी उनका तबादला हो गया. उनकी जगह 27 फरवरी, 2009 को दूसरे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मनोज नाथ आए. नाथ ने पाया कि बिजली बोर्ड के तब के अध्यक्ष स्वप्न मुखर्जी ने स्वैच्छिक घोषणा की आखिरी तिथि 5 जुलाई, 2008 की तय सीमा गुजर जाने के बाद भी स्वैच्छिक घोषणा को स्वीकारा है और बड़े खेल के रास्ते खोले हैं. साथ ही यह भी कि बिजली के जिन चोरों को टैंपर्ड मीटर के साथ पकड़ा गया था उन्हें भी स्वैच्छिक घोषणा का लाभ देकर सरकारी खजाने को भारी नुकसान पहुंचाया गया और चोरों को खुली छूट दी गई.

बिजली से ही राज्य में विकास का रास्ता खुलेगा है. लेकिन जो बिजली है, उसमें आधे से अधिक यूं ही व्यर्थ हो जा रही है

नाथ ने बोर्ड के अध्यक्ष पर केस किया. अध्यक्ष ने स्वीकारा भी कि दादीजी स्टील को स्वैच्छिक घोषणा का लाभ नहीं मिलना चाहिए था. लेकिन इसी बीच ‘आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास’ वाला खेल हुआ. जिस रोज महानिदेशक मनोज नाथ ने केस दर्ज कराया, उसी रोज अध्यक्ष ने भी नाथ पर केस दर्ज करा दिया. उनका आरोप था कि नाथ ने उनसे बिजली बोर्ड परिसर, जहां विद्युत निगरानी कोषांग महानिदेशक का कार्यालय है, सुसज्जित कार्यालय की मांग की और इसे  में मानने पर उनके साथ दुर्व्यवहार किया और फिर यह विद्वेषपूर्ण केस भी किया. इससे मामले का रुख ही बदल गया. बिजली बोर्ड के अध्यक्ष ने बिजली चोरी के सार्वजनिक मामले को निजी दायरे में समेटने की कोशिश की. नतीजतन पूर्व महानिदेशक आनंद शंकर द्वारा बिजली चोरी का मामला दर्ज करवाने और फिर बाद में महानिदेशक मनोज नाथ द्वारा स्वैच्छिक घोषणा के खेल से संबंधित मामला दर्ज करवाने का मामला अदालत में पहुंचा. पटना हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि भारतीय विद्युत अधिनियम, 2003 के तहत कोषांग पुलिस को ऊर्जा चोरी से किया गया कदाचार दर्ज करने का अधिकार ही नहीं है. हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया, बिजली बोर्ड इसे सिर आंखों पर लेकर लौट गया और तब से विद्युत निगरानी कोषांग नख-दंतहीन संस्था बनकर रह गया है. 

जानकार बताते हैं कि न्यायालय को जो सबूत और साक्ष्य उपलब्ध कराए गए थे, उस आधार पर फैसला सही है. लेकिन बड़ा सवाल कुछ और है. बिहार सरकार ने ही दो दशक पहले विद्युत निगरानी कोषांग को शुरू किया था. इसने दो दशक में बिजली चोरी के कई मामले उजागर किए और कई केसों को इसके जरिए एक अंजाम तक पहुंचाया जाना था. सवाल यह है कि उसी संस्था के अचानक अधिकारविहीन होने का फैसला सरकार ने स्वीकार कैसे कर लिया. सरकार और बिजली बोर्ड ने इस फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट का रुख क्यों नहीं किया? यह सवाल इसलिए अहम है कि इस फैसले के कुछ माह पहले ही जब नौबतपुर के एक किसान पर 60 हजार रुपये की बिजली चोरी का मामला बना था और हाई कोर्ट ने विद्युत अधिनियम, 2003 के तहत एक ऐसा ही फैसला सुनाया था तो बिजली बोर्ड सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था. सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर, 2010 में साफ कहा था कि ऊर्जा चोरी के मामले में पुलिस को 2007 में हुए विद्युत अधिनियम के संशोधन के बाद के ही नहीं, इससे पहले के मामलों में भी केस दर्ज करने का अधिकार है. 

नाथ कहते हैं, ’साफ है कि बिजली बोर्ड यह मामला इरादतन हार गया क्योंकि हाई कोर्ट के सामने समान मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात बताई ही नहीं गई. बोर्ड ने यह भी नहीं सोचा कि इसका क्या असर पड़ेगा. निगरानी कोषांग ने अब तक जो केस दर्ज किए होंगे वे सब खारिज होने शुरू हो जाएंगे और सरकार को यह जवाब देना होगा कि निगरानी कोषांग के जरिए दो दशक से बिजली चोरों को पकड़ने और उन पर  कार्रवाई की जो कवायद होती रही, वह गलत थी.’ जानकार बताते हैं कि इस फैसले से स्टील कंपनी पर 20 करोड़ रुपये के जुर्माने वाला मामला तो ठंडे बस्ते में गया ही, और भी कई नुकसान हुए. मसलन जिन 52 उपभोक्ताओं ने स्वैच्छिक घोषणा का लाभ उठाया था उनमें दस ऐसे भी थे  जो आदतन बिजली चोर रहे थे और जिनसे मोटा राजस्व वसूला जाना था. दो और बड़े उपभोक्ताओं से भी करीब 160 करोड़  वसूले जाने थे, जिन पर 2005 में ही मामला दर्ज हुआ था. लेकिन हाई कोर्ट के फैसले की आड़ में अब यह राजस्व उगाहने की बात तो दूर, पहले दर्ज हुए मामले भी खुर्द-बुर्द हो सकते हैं. 

क्या यह खेल सिर्फ बिजली बोर्ड का है? या इसमें एक बड़ा गठजोड़ लगा हुआ है? पुलिस ने इस मामले को मुख्यमंत्री तक पहुंचाया. मनोज नाथ के बाद इस पद पर आए ढौंढियाल ने भी कहा कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए और दो बड़े उपभोक्ता, जिनसे 160 करोड़ वसूले जाने हैं, उनके मामले में तो सुप्रीम कोर्ट जरूर जाना चाहिए.  सूत्र बताते हैं कि सरकार की ओर से भी बात आई कि सुप्रीम कोर्ट में जाएंगे. इस संदर्भ में 21 जुलाई, 2011 को ही अभ्यावेदन भेजा गया था और उस आधार पर 90 दिन के अंदर सुप्रीम कोर्ट में मामला जाना चाहिए था लेकिन अब तक वह जस-का-तस पड़ा हुआ है. हम बिजली बोर्ड के अध्यक्ष पीके राय से बात करने की कोशिश करते हैं, लेकिन बात नहीं हो पाती. विभाग की ओर से हरेराम पांडेय ही फिर से उपलब्ध होते हैं. लेकिन बोर्ड क्यों सुप्रीम कोर्ट नहीं गया, इसका जवाब देना वे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात बताते हैं. राज्य के विकास आयुक्त अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं, ‘निगरानी वाला मामला तो हाई कोर्ट का है, लेकिन बिजली चोरी रोकने के लिए हम लोग नए कदम उठा रहे हैं. वितरण की नई व्यवस्था की जा रही है और बिजली चोरी रोकने के लिए अलग से थाना खोलने का प्रस्ताव तैयार हुआ है. इससे बहुत हद तक अंकुश लगेगा.’