तहलका के स्त्री विशेषांक के लिए स्त्री आधुनिकता पर लिखते हुए यह एहसास तक नहीं था कि इसी बीच एक ऐसी सुन्न कर देने वाली घटना हमारे सामने आएगी जिससे अचानक स्त्री की आजादी का मुद्दा एक भयावह और वीभत्स अनुभव वाले इलाके में दाखिल हो जाएगा जिससे आंख मिलाते भी हमें कुछ असुविधा होगी. 16 दिसंबर की रात दिल्ली की एक बस में एक लड़की के साथ हुए वहशी सलूक के अंधेरे में और उस पर पैदा राष्ट्रव्यापी गुस्से की रोशनी में कई नए सवाल हमारे सामने हैं.
पहली बात तो यह कि इस पूरे प्रसंग ने फिर से याद दिलाया है कि समाज में स्त्री को अब तक बराबरी और सम्मान के साथ देखने का अभ्यास नहीं है. वह एक ऐसी उपस्थिति है जो घर-परिवार में पिताओं और भाइयों की सदाशयता के सहारे सुरक्षित रह सकती है और बाहर निकलती है तो उसे छींटाकशी से लेकर बलात्कार और हत्या तक झेलने पड़ सकते हैं. निर्भया के साथ हुए सलूक पर देश भर में लड़कियों का जो गुस्सा दिखा वह सिर्फ एक बलात्कार पर नहीं, इस नितांत निजी अनुभव पर भी था कि हर रोज सड़क पर निकलते हुए वे भी किसी दामिनी जैसी ही असुरक्षित होती हैं और उन्हें रोज जो तिल-तिल यातना झेलनी पड़ती है वह किसी भी दिन बलात्कार जैसी खौफनाक वारदात में भी बदल सकती है. इस गुस्से का सबसे सकारात्मक पहलू यही है कि लड़कियां पहली बार अपनी आजादी के हक में इतनी उग्रता के साथ खड़ी हुई हैं और पहली बार वे बलात्कार जैसे डरावने अनुभव से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं. पहली बार इस खुलेपन के साथ यह कहा जा रहा है कि बलात्कृता अपराधी नहीं होती, उसकी इज्जत नहीं जाती, इज्जत उनकी जाती है जो यह अपराध करते हैं.
यह सवाल जायज है कि जिस देश में हर 18 मिनट पर एक बलात्कार होता हो, वहां सिर्फ एक घटना ने इतनी प्रतिक्रिया पैदा की तो क्या इसलिए कि यह वाकया दिल्ली का था, ऐसी लड़की के साथ हुआ था जो अपने दोस्त के साथ फिल्म देखकर निकल रही थी और उस बस में हुआ था जिसमें दिल्ली की लड़कियां रोजाना सफर करती हैं. अगर गहराई से देखें तो यह पूरा प्रसंग अपने खौफनाक ब्योरों के साथ बहुत सारे ऐसे बिंदु समेटे हुए है जो भारत में स्त्रीत्व की दुखती हुई रगों को बहुत भीतर तक छूते हैं. कायदे से बहुत सारे लोग शायद ऐसी बस में बैठने से बचते, बैठने के बाद छींटाकशी होने पर वे बदमाशों से लड़ने की जगह बस से उतरने की कोशिश करते, बहुत सारी लड़कियां अपनी लड़ाई शायद उस तीखेपन से नहीं लड़ पातीं जिससे उस जांबाज लड़की ने लड़ी. हम इसे ही समझदारी मानते हैं, इसी के तहत सड़क के शोहदों से उलझने से बचते हैं और शाम ढलते बेटियों को घर लौटने की हिदायत देते हैं. लेकिन 16 दिसंबर की रात इस समझदारी का व्याकरण बिल्कुल दूसरा था. लड़की अपने दोस्त के साथ फिल्म देखने के बाद बस में बैठी, लड़की पर छींटाकशी के बाद दोस्त ने शोहदों से झगड़ा मोल लिया. लड़की ने भी बिल्कुल बराबरी की लड़ाई लड़ी- अपने हाथों से, नाखूनों से, दांतों से. यह दुस्साहस ही इतना नागवार गुजरा कि बदमाशों ने इस लड़की के साथ बेरहमी भरा सलूक किया. कुल मिलाकर देखें तो यह लड़ाई अनायास बराबरी के लिए, अधिकार के लिए, शाम ढले घर से निकलने, अपने दोस्त के साथ घूमने की आजादी के लिए लड़ी गई एक मर्मांतक लड़ाई में बदल गई, जिसमें लड़की ने घुटने नहीं टेके, अपनी जान गंवाई.
शायद यही वह साहस है जो लड़ते-लड़ते मारी गई इस लड़की ने जंतर-मंतर से लेकर इंडिया गेट और दूसरे शहरों के चौराहों पर उतरी लड़कियों को दिया है. इस घटना के बाद की प्रतिक्रियाएं तीन तरह की हैं. एक तो वाकई उन लड़कियों की प्रतिक्रिया है जो निर्भया में अपनी छवि देख रही हैं और महसूस कर रही हैं कि घर से बाहर निकलने और बराबरी हासिल करने के लिए इस अन्याय का प्रतिकार जरूरी है. दूसरी प्रतिक्रिया मीडिया और कुछ वैसे संगठनों की है जो इन लड़कियों के पक्ष में खड़े हैं लेकिन जिनकी अपनी जरूरतें उन्हें इस प्रतिक्रिया को चोरी-छिपे अपने हक में इस्तेमाल करने को उकसा रही हैं. इस पूरे आंदोलन के दौरान वास्तविक गुस्से को नकली नारेबाजी में, और प्रतिरोध के मुद्दों को विरोध की मुद्रा में तब्दील करने की कोशिश भी दिखी. बलात्कारियों को सरेआम फांसी या उनका रासायनिक वंध्याकरण या फिर बलात्कार के लिए कड़ी सजा के एलान की मांग ऐसी ही जड़ों से उखड़ी मांग थी. रातों-रात न्याय लेने के उत्साह में यह समझने का धीरज खो जाता है कि ऐसा तुरंता और लोकप्रियतावादी न्याय, व्यवस्थाओं और वर्चस्ववादियों को रास आते हैं क्योंकि इसकी आड़ में वे अपने ज्यादा बड़े अन्यायों का सिलसिला जारी रख सकते हैं.
बहरहाल, तीसरी प्रतिक्रियाएं ऐसे ही वर्चस्ववादियों की थीं जिनका वैचारिक आसन इन लड़कियों के तेवरों से डोलता दिखा. आसाराम बापू, मोहन भागवत, रामदेव और अबू आजमी जैसे लोग फौरन लड़कियों के लिए अपने-अपने उपदेश लेकर चले आए- उन्हें लड़कों के साथ नहीं घूमना चाहिए, देर रात बाहर नहीं रहना चाहिए, बदमाशों के बीच पड़ जाने पर विरोध नहीं करना चाहिए, अबला होने की दुहाई देनी चाहिए, दया की भीख मांगनी चाहिए आदि-आदि. इन वर्चस्ववादियों को लड़कियों के लिए बराबरी, सम्मान या अधिकार का सवाल पूरी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी लगने लगता है. अपने दोस्त के साथ फिल्म देखकर बस से घर लौट रही दामिनी ने दरअसल इसी व्यवस्था को चुनौती दी और इसकी सजा भुगती. बलात्कारियों को तो हम फांसी दे दें, ऐसे छलात्कारियों का क्या करें जो कहीं दबी और कहीं ऊंची आवाज में इस मामले में लड़की की गलती भी देख रहे हैं?