आम चुनाव 2019 से यह ज़रूर जाहिर हो गया कि आज़ादी के 72 साल बाद भी देश में सांप्रदायिक ताकतें बहुत मज़बूत हैं। देश की सत्ता में पांच साल रहने के बाद तो अब आतंक को बुरा नहीं मानते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भोपाल से सांसद के चुनाव मे उतार कर इस बहस को लगातार चलते रहने का मौका ज़रूर बना दिया है।
अपने चुनाव प्रचार की शुरूआत करते हुए ही प्रज्ञा ठाकुर ने आंतकवाद का मुकाबला करते हुए मारे गए पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की मौत की वजह अपना शाप बताया था। बाद में इस पर माफी मांग ली। लेकिन कुछ ही दिन बाद जब वह दूसरी चुनावी सभा को जा रही थीं तो उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के दोषी नाथूराम गोडसे को महान देशभक्त बताया। जब शोर मचा तो मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष को उन्होंने इस बयान पर अपनी सफाई भेज दी। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि साध्वी ने भले ही माफी मांग ली हो लेकिन अब वे उन्हें निजी तौर पर माफ नहीं कर सकेंगे। लेकिन अब यक्ष प्रश्न यह है कि भाजपा का राष्ट्रवाद क्या है? क्या संविधान के प्रति इसकी निष्ठा है? क्या यह सांप्रदायिक आवरणों से बाहर आकर कभी भारती स्वरूप अपना सकेंगी।
जब भी देश में भाजपा सत्ता में आती है तो देश के बहुलतावादी नज़रिए से यह कभी समहित नहीं हो पाती। भाजपा के अध्यक्ष और देश के प्रधानमंत्री इस बार प्रज्ञा के चलते बड़ी दुविधा में आज फंसे हैं। इसका असर मतदान के साथ ही देश की भावी राजनीति पर भी पडऩा ही है। हालांकि प्रधानमंत्री ने पार्टी अध्यक्ष की मौजूदगी में प्रज्ञा से उनके वक्तव्यों पर दस दिन में अपनी सफाई देने को कहा है। प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष ने हाल-फिलहाल सार्वजनिक तौर पर प्रज्ञा की टिप्पणियों से खुद को अलग कर लिया है, हालंाकि यह मुद्दा काफी बड़ा है।
प्रज्ञा ने अपने बयान में गोडसे की खासी तारीफ की। उसे देशभक्त कहा। यह नई बात भी उसने उसी भरोसे से कही जिस भरोसे से उसने पहले कहा था कि हेमंत करकरे की मौत उसके श्राप से ही हुई।
हेमंत करकरे ही एंटी टेरिस्ट स्कवाड के वह अधिकारी थे जिन्होंने मालेगांव धमाके की जांच की थी। आतंकवादियों से मुकाबला करते हुए वे मुंबई में 26/11 को शहीद हो गए थे। तब भी भाजपा के बड़े नेता उसकी टिप्पणी से खासे बेचैन हुए थे।
लेकिन प्रज्ञा ठाकुर ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर जो बयान पहले दिया और उस पर जो सफाई दी उससे भी यह बात साफ हुई कि पूरे मामले में जो मुद्दे दरकते रहते हैं वे उभरते ही रहेंगे वे दबेंगे नहीं। दरअसल महात्मा गांधी पर संघ परिवार और भाजपा में हमेशा सहमति-असहमति का दौर-दौरा देश में चलता रहा है। हाल फिलहाल गांधी का नाम भाजपा के लिए भारतीय जनमानस को अपने पक्ष में करने में उपयोगी है, इसलिए वे गांधी के विरोध में भी ही नहीं जाना चाहते। लेकिन आरएसएस का मान और विचार घटाना भी नहीं चाहते। उधर सारी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ माहौल गहराता जा रहा है। हालांकि भाजपा भी संघ परिवार की तरह मानती है कि हिंदू आतंकवादी नहीं होता। जबकि देश का पुरातन इतिहास जो महाकाव्यों में है उसमें हिंसा ही मुखर रही है।
सम्मान राष्ट्रपिता का भी नहीं।
भारत अद्भुत है। यहां समाज में धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण की आज़ादी है। यहां देशवासियों की बेरोजग़ारी, मंहगाई, अशिक्षा, स्वास्थ्य, पानी आदि की ज़रूरतों को पूरा करने पर विचार नहीं होता। बल्कि उन मुद्दों पर ज़्यादा शोर-शराबा होता है, जिनका देश के विकास से कोई लेना-देना नहीं है।
पिछले दिनों भोपाल से सांसद होने के लिए प्रज्ञा ठाकुर उम्मीदवार थी। इनके दो बयानों से पूरे देश में सिहरन सी दौड़ गई। इनका एक बयान था कि पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे उसके ‘श्राप’ से मारे गए। करकरे मुंबई में 26/11 को आतंकवादियों का मुकाबला करते हुए मारे गए। उन्हें देश ने सम्मानित भी किया था। दूसरा बयान था, नाथूराम गोडसे देशभक्त थे। पूरा देश जानता है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी पर गोली चलाई थी। उन्हें इसकी सज़ा भी मिली थी। बाद में प्रज्ञा ने क्षमा याचना की थी।
लेकिन अफसोस देश में इस बदलाव के समर्थन में जो बयान केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगडे और एक सांसद नलिन कुमार कटील के जारी हुए। उन्होंने माफी मांग ली और बस!