जनवरी की दस्तक के साथ ही कड़ाके की सर्दियाँ स्वाद के चटोरों के चेहरों पर जितनी चमक ला सकती हैं, उससे कहीं ज़्यादा रौनक़ बाघ के तस्करों के चेहरों पर आएगी। जानकारी के मुताबिक, अवैध आखेट मारे गये बाघों की खालें, हड्डियों और अन्य अंग तस्करी के ज़रिये थाईलैंड और म्यांमार की सीमा पर जा रहे हैं। गोल्डन सिटी के नाम से कुख्यात मंडी में इनकी हाट ऐसे लगती है, जैसे हमारे यहाँ सब्ज़ियों की। इस पूरे गोरखधंधे को वन्य जीवन व्यापार (वाइल्ड लाइफ ट्ऱेड) कहा जाता है। चीन, तिब्बत सरीखे देशों में बाघ के अंगों की माँग ज़्यादा होने से भारत में बाघों के शिकार की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ रही है। इस बाबत हो रहे नित नये ख़ुलासे इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि स्थानीय शिकारी 20-30 हज़ार से दो लाख तक के मुनाफ़े के लाभ में बाघों केा मौत के घाट उतार रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बाघों के अंगों को 25 से 30 लाख तक में बेचा जा रहा है।
जानकारों का कहना है कि सरिस्का से बाघों के अंग गुडग़ाँव और दिल्ली से सीमा पार कर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पहुँचते हैं। सूत्रों का कहना है कि बाघों के पैरों के नाखून का इस्तेमाल ज़्यादातर तांत्रिक क्रियाओं के लिए किया जाता है तिब्बत में बाघों की हड्डियों का उपयोग शक्तिवर्धक दवाएँ बनाने के लिए किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय संगठन ट्रैफिक की ताजा रिपोर्ट ‘स्किन एंड बोन्स’ से इसका ख़ुलासा होता है।
रिपोर्ट बताती है कि जनवरी, 2000 से जून, 2022 तक के बीच 50 देशों में 3,377 बाघों के बराबर अंगों की तस्करी की गयी। इन वर्षों में तस्करी को 2,205 घटनाएँ सामने आयीं। भारत में जनवरी, 2018 से जून, 2022 के बीच ही 165 घटनाएँ हुईं। मतलब साफ़ है कि भारत से तस्करी ज़्यादा हो रही है। हालाँकि विशेषज्ञ इस रिपोर्ट को विश्वसनीय नहीं मानते। इसकी वजह चीन थाईलैंड, इंडोनेशिया अफ्रीकी देशों में टाइगर का पालतू होना है। यानी वन्य जीव कानून होने के बावजूद तस्करी अपेक्षाकृत आसान है। इसलिए केस भी कम होंगे।
सम्भवत: यही वजह रही कि रणथंभौर टाइगर रिजर्व से बाघों को कोटा स्थित मुकुंदरा हिल्स टाइगर रिजर्व में शिफ्ट करने की माँग पहले कुतर्कों में उलझ कर रह गयी। इसकी वजह थी रणथंभोर रिजर्व में महज तीन साल के बाघ की रहस्यमय मौत को लेकर अजब-ग़ज़ब पहेलियाँ बुझाने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया था। हालाँकि वन विभाग के सूत्र इन चर्चाओं को ख़ारिज करते हैं कि यह घटना बाघ और मानवों के बीच संघर्ष का नहीं आखेट का नतीजा थी। हालाँकि जब लोग रणथंभोर के फलोदी की रेंज के डागरवाड़ा गाँव के इस साल के बच्चे की मौत बाघ से हमले में होने की बात करते हैं, तो बाघ-मानव संघर्श के कयासों को बल मिलता नज़र आता है। लेकिन सूत्र अवैध आखेट की सम्भावना से भी इनकार नहीं करते। अलबत्ता इस बात को ग़लत बताते है कि रणथंभोर भी आगे चलकर अवैध आखेट सरिस्का बन जाएगा?
शुरुआत राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने रणथंभौर के बाघों को कोटा रिजर्व में शिफ्ट करने की अनुमति जारी कर दी थी। लेकिन वन महकमा इनको जोड़ों या फिर इकलोते बाघों को भेजने पर आनाकानी में अड़ा रहा; जबकि वन्य जीव प्रेमी भी इस बात से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि बाघों या जोड़ों की बजाय बाघिनों को भेजा जाए। उनका तर्क था कि कोटा स्थित मुकुंदरा हिल्स में दो बाघ और एक बाघिन मौजूद है। यदि बाघिन भेजी जाती है, तो नया अभयारण्य जल्द से जल्द आबाद हो सकेगा।
वन्य जीव प्रेमियों ने केंद्र सरकार से भी इस बात का आग्रह किया। लेकिन आस-पास के इलाक़ों में मानवीय गतिविधियों और अवैध आखेट के चलते वन्यजीव प्रेमी बाघों की सुरक्षा को लेकर मुतमईन नहीं थे। उनका कहना था कि इस मामले में वन महकमा आज भी डाँवाडोल है। अभी भी वन विभाग मुकुंदरा में बसे हज़ारों लोगों का विस्थापन कर उन्हें गाँवों से सुरक्षित नहीं निकाल पाया है। ऐसे में मुकुंदरा हिल्स में बाघों का कुनबा बढऩे के साथ बाघ और मानवों के बीच टकराव को बढ़ाएगा। यह स्थिति तो बाघ संरक्षण की कोशिशों को भी मटियामेट कर देगी। पीपुल्स फॉर एनीमल्स संगठन के प्रदेश प्रभारी ने इन अंदेशों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री को भी पत्र लिखा था। उनका कहना था कहना है कि मुकुंदरा को टाइगर रिजर्व घोषित किये हुए 20 साल हो गये। लेकिन गावों के विस्थापन समस्या, तो जस-की-तस अटकी रही है।
दूसरी तरफ़ वन्यजीव प्रेमी इस बात को लेकर भी हैरान है कि इंसानी ज़िन्दगियों के साथ-साथ बेशक़ीमती बाघों को बचाने के लिए कोई दो साल पहले वन विभाग ने धोलपुर से कौटा तक के रियासतकालीन रॉयल राजस्थान टाइगर कॉरिडोर को फिर से ज़िन्दा करने की कोशिश की थी। लेकिन ताज़ुब है, ये कोशिशों आज तक भी सिरे नहीं चढ़ी? पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था ग्रीन कोर के सूत्रों का कहना है कि 10 अगस्त, 2017 को संस्था ने करौली और धौलपुर से कोटा और झिरी तक टाइगर कॉरिडोर बनाने का प्रस्ताव सरकार को भेजा था।
सभी पहलुओं पर विचार विमर्श के बाद अक्टूबर, 2017 में राज्य सरकार में इसे मंज़ूरी भी दे दी थी। इस आदेश के तहत धौलपुर से कोटा तक के कॉरिडोर को दो हिस्सों में बाँटा गया था। पहले हिस्से में धौलपुर से लेकर रणथंभोर तक का इलाक़ा शामिल कर भरतपुर की वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के केसरबाग़ को भी रणथंभोर से जोड़ दिया गया था; जबकि सवाई माधोपुर करौली और बूंदी वन क्षेत्र पहले से ही रणथंभोर के क्षेत्राधिकार में था। ग्रीन कोर संस्था का मसौदा कई बातों की तरफ़ ध्यान बँटाता है। मसलन नदियों के तटीय इलाक़ों और उनसे सटे नालों के आस-पास ही ज़्यादातर वन क्षेत्र में बाघों का पर्यावास है।
दूसरी तरफ़ कोटा से धौलपुर तक चंबल नदी और वन क्षेत्र बाघों के लिए ख़ासा मुफ़ीद रहा है। रहा सवाल बाघों की चहलकदमी का? उनके पदचिह्न इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि रणथंभौर के बाघ धौलपुर के झिरी क्षेत्र में भी आते जाते हैं। लेकिन जंगलों की कटाई और इंसानी दख़ल के चलते रियासतकालीन बाघ कॉरिडोर उजड़ता चला गया। ग्रीन कोर संस्था के सचिव डॉ. सुधीर गुप्ता राजस्थान रॉयल कॉरिडोर की योजना को अमल में लाना इसलिए ज़रूरी बताते हैं कि इससे बाघों का 150 साल पुराना खोया रास्ता उन्हें वापस मिल सकेगा। इतना ही नहीं बाघों और इंसानों का टकराव भी ख़त्म होगा। साथ ही बाघों को फलने-फूलने का पर्याप्त माहौल भी मिल सकेगा। लेकिन सवाल है कि वन महकमे ने इन स्थितियों तथा बाघ वीरू की मौत से कोई सबक़ क्यों नहीं लिया? अधिकारी बाघों को कोटा के मुकुंदरा हिल्स में शिफ्टिंग में तो जुट गये। लेकिन इस बार भी कॉरिडोर को भुला बैठे और बाघों को सीमित दायरे वाले टाइगर रिजर्व के टुकड़ों में बँटे हिस्से में छोडऩे की योजना बना ली।
इस सरकारी क़वायद पर सवाल न उठे तो क्या हो? लेकिन हक़ीक़त समझें, तो जब भी बाघों और इंसानों का टकराव बढ़ता है, अधिकारी कॉरिडोर बनाकर उनके कुदरती ठिकानों को बढ़ाने औंर अभ्यारण्यों में बसे गाँवों के विस्थापन का राग अलापने लगते हैं। लेकिन जैसे ही पुर्नवास पैकेज का ज़िक्र छिड़ता है, तो बाघों की चिन्ता में परेशान होने वाले अफ़सर लापता हो जाते हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून के वन्य जीव विशेषज्ञ डॉ. बिलाल हबीब कहते हैं- ‘राजस्थान ही नहीं दुनिया भर में टाइगर कॉरिडोर बाघों का आहार ख़त्म होने के कारण कम हुए हैं। बाघ 62 प्रजातियों के जानवरों का शिकार करता है, जबकि इनमें से 50 तो पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है।
डॉ. हबीब कहते हैं कि अगर सरकारें बाघों के प्रति गम्भीर है, तो पहले बाघों के आवास और भोजन का इंतज़ाम करना हेागा। उधार के शिकार से अब काम चलने वाला नहीं होगा। हबीब कहते हैं, एक बाघ को 50 वर्ग किलोमीटर का कोर क्षेत्र चाहिए। लेकिन प्रदेश के किसी भी अभयारण्य में बाघों को इतना क्षेत्र उपलब्ध नहीं है। इस मुद्दे से निपटने का एक ही तरीका है और वह है राजस्थान रॉयल टाइगर कॉरिडोर को फिर से ज़िन्दा करना। चकित करने वाली बात है कि सरिस्का और मुकुंदरा किसी के बीच में कॉरिडोर नहीं बन पाया; हालाँकि अब उम्मीद जगी है।