यह 1998 की बात है, युवा नेता (तब) ममता बनर्जी कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार में मंत्री थीं। वह इस बात से बहुत खफा थीं कि कांग्रेस उनके गृह राज्य पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों की बी टीम जैसी हालत में है और नेतृत्व कुछ नहीं कर रहा। विद्रोही ममता चाहती थीं कि कांग्रेस एक पार्टी के रूप में वामपंथियों से लड़े और अपना मज़बूत वजूद बनाये रखे। जब ऐसा नहीं हुआ, तो उन्होंने कांग्रेस को अलविदा कहकर अपनी अलग पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली और वामपंथियों का मज़बूत राजनीतिक विरोध करते हुए आज सत्ता में हैं। ममता की इस कहानी में ही कांग्रेस की वर्तमान हालत की दास्ताँ छिपी है। कांग्रेस ने राज्यों में खुद को बहुत कमज़ोर कर लिया है। जो राज्य कांग्रेस के हाथ में हैं, वो भी राजनीतिक षड्यंत्रों में उसके हाथ से निकल रहे हैं। मध्य प्रदेश और राजस्थान की घटनाएँ वरिष्ठ और युवा नेताओं के बीच बनी गहरी खाई का इशारा करती हैं। ऐसे में सहज ही यह सवाल उठ रहा है कि क्या कांग्रेस को एक और कामराज योजना की ज़रूरत है?
बता दें करीब 57 साल पहले दिग्गज कांग्रेस नेता कुमारस्वामी कामराज ने सरकार के पद त्यागकर संगठन को तरजीह देने का फार्मूला (जिसे कामराज योजना के नाम से जाना जाता है) सामने लाये; जिसने कांग्रेस को एक संगठन के रूप में मज़बूत किया था। आज परिस्थितियाँ उसके विपरीत हैं और कांग्रेस न तो केंद्र की सत्ता में है, न उसके सामने की प्रतिद्वंद्वी पार्टी कमज़ोर है। लेकिन एक संगठन के रूप में कांग्रेस को ज़िन्दा रखने के लिए निश्चित ही एक और कामराज योजना की आज सख्त ज़रूरत है; जिसमें नेता कमज़ोर संगठन को मज़बूत करें। निश्चित ही कुर्सियों का लालच छोड़ नेताओं को संगठन की मज़बूती के लिए काम करना होगा।
कामराज ने उस समय एक और अहम बात कही थी। उन्होंने कहा था कि कठिनाइयों का सामना करो, इससे भागो मत; समाधान खोजिए, भले ही वह छोटा हो; यदि आप कुछ करते हैं, तो लोग संतुष्ट होंगे। लेकिन आज कांग्रेस में यही सब नहीं हो रहा है। और इसका कारण कांग्रेस के भीतर ही है। वरिष्ठ और युवा नेता विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिख रहे हैं। वर्चस्व की यह जंग पार्टी में ज़मीनी स्तर की इकाइयों तक पहुँच गयी है।
राजस्थान में सचिन पायलट और उससे पहले मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जैसा संकट कांग्रेस के सामने पैदा किया, वह बताता है कि युवा नेताओं का पार्टी से मोह हो रहा है। दिल्ली में कांग्रेस से चार दशक तक जुड़े रहे एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि निश्चित ही कांग्रेस की ओवरहॉलिंग (पुनर्गठन) का वक्त आ गया है और युवाओं की एक मज़बूत टीम बनाने की ज़रूरत है, जिसमें कुछ ऐसे वरिष्ठ नेताओं की भी भागीदारी हो; जो संगठन के लिहाज़ से सक्रिय हैं।
हालत यह है कि केंद्र की मोदी सरकार की नाकामियों को भी जनता के सामने लाने के लिए पार्टी नेता उत्सुक नहीं हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी नरेंद्र मोदी के खिलाफ भले मुखर हों, वरिष्ठ नेता उनके इस मोदी विरोध को ताकत देने के लिए कहीं भी साथ खड़े नहीं दिखते। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के आसपास बुज़ुर्ग नेताओं का ऐसा गठजोड़ बन गया है, जो भले ही राजनीति में निपुण हों, लेकिन वे इसका इस्तेमाल विरोधी भाजपा से टक्कर लेने के लिए नहीं, बल्कि अपनी ही पार्टी के भीतर युवा नेतृत्व के उभरने में रोड़े अटकाने के लिए कर रहे हैं। इस नीति ने कांग्रेस को खोखला करना शुरू कर दिया है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद इस आरोप से सहमत नहीं कि वरिष्ठ नेताओं ने कोई कोठरी बना रखी है। तहलका से बातचीत में आज़ाद ने कहा कि ऐसा कहना बिल्कुल गलत है। संगठन में युवाओं की भरमार है और वे कई जगह पार्टी को नेतृत्व भी दे रहे हैं। क्योंकि हम लगातार दो बार से सत्ता में नहीं हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि कांग्रेस कमज़ोर हो गयी है; लेकिन यह सच्चाई नहीं है। कांग्रेस ही देश में ऐसा एक राजनीतिक दल है, जो सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है।
आज़ाद कहते हैं कि मोदी सरकार कोरोना से लेकर चीन तक के मुद्दे पर एक्सपोज हुई है। अर्थ-व्यवस्था का बुरा हाल है। महामारी को ठीक से नहीं सँभाल पाने के कारण करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गये हैं और जनता में मोदी नीत केंद्र सरकार के प्रति गहरी निराशा और नाराज़गी है। लेकिन भाजपा चुनी हुई सरकारें गिराने में लगी है। हाल के कई विधानसभा चुनावों में जनता ने उसे बुरी तरह नकार दिया है। जनता से समर्थन नहीं मिलने के बावजूद वह पैसे के ज़ोर पर कांग्रेस की राज्य सरकारें तोडक़र अपनी सरकारें बना रही है।
नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर एक राष्ट्रीय युवा कांग्रेस नेता ने तहलका से कहा कि निश्चित ही पार्टी में युवाओं के मन में नाराज़गी है। राहुल गाँधी को जब अध्यक्ष बनाया गया, तब उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने तीन राज्यों में सरकारें बनायीं। राफेल, अर्थ-व्यवस्था, रोज़गार, युवाओं और किसानों से लेकर तमाम मुद्दों पर राहुल ने प्रधानमंत्री मोदी से अकेले लोहा लिया। लेकिन लोकसभा के चुनाव में वरिष्ठ नेताओं ने निष्क्रियता दिखायी। वे कांग्रेस को अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देते; क्योंकि इससे उन्हें अपने अप्रासंगिक होने का डर सताने लगता है।
इस युवा नेता की यह बात कांग्रेस के भीतर युवा नेताओं और वरिष्ठों के बीच बन चुकी गहरी खाई की तरफ से इशारा करती है। यदि हाल की घटनाओं की तरफ तो देखें, तो ज़ाहिर हो जाता है कि पार्टी के भीतर युवा नेता इन बुज़ुर्ग हो चुके नेताओं से मुक्ति चाहते हैं।
सचिन पायलट के भाजपा से साठगाँठ करने के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के आरोप के बाद पार्टी के बीच युवा नेताओं ने एक के बाद एक जिस तरह पायलट के समर्थन में सुर मिलाये, वह इस बात का संकेत है कि वरिष्ठ नेताओं और उनके बीच कितनी दूरी बन चुकी है। हालाँकि यह भी सच है कि आवाज़ उठाने वाले इन नेताओं में ज़्यादातर राजनीतिक परिवारों की ही पीढ़ी के नेता है, जिन्हें काफी कम उम्र में ही सत्ता में हिस्सा मिला है।
आम युवा नेता तो खामोशी से हालात पर नज़र जमाये हैं; जो यह तो मानते हैं कि युवाओं को ज़्यादा अवसर मिलना चाहिए, लेकिन साथ ही इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि वरिष्ठ नेताओं का नेतृत्व भी साथ में ही चलना चाहिए।
जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव युवा नेता नीरज गुप्ता ने तहलका से बातचीत में कहा कि आप हाल की घटनाओं को देखें, तो पता चलेगा कि कथित विद्रोह वे युवा नेता कर रहे हैं, जिन्हें छोटी उम्र में ही पार्टी ने सब कुछ दे दिया। यह नेता ज़रूरत से ज़्यादा महत्त्वाकांक्षी हो गये हैं; जिनमें ज्योतिरादित्य और पायलट भी शामिल हैं। ज़मीन पर हम जैसे युवा नेता वैसा नहीं सोचते, जैसा पायलट आदि कर रहे हैं।
गुप्ता ने कहा कि यह ठीक है कि वरिष्ठ नेताओं को चाहिए कि वे युवाओं को प्रोत्साहित करें। युवाओं को अवसर भी मिलने चाहिए; लेकिन साथ ही यदि हम जैसे युवा नेता वरिष्ठों का अनादर करने लगें, तो यह भी गलत है। आिखर इन वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के लिए अपना सब कुछ खपा दिया है।
कांग्रेस में राजनीतिक परिवारों के लोग बहुतायत में हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इन युवा नेताओं को ही सत्ता में दूसरों के मुकाबले कहीं ज़्यादा हिस्सा मिला है और विरोध के तेवर भी इन नेताओं ने ही दिखाये हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि क्या यह युवा नेता ज़रूरत से ज़्यादा ख्वाहिशें पाल बैठे हैं? वरिष्ठ पत्रकार और कांग्रेस मामलों के जानकार एसपी शर्मा ने तहलका से कहा कि पायलट के उदाहरण से तो यही लगता है कि उन्हें सब कुछ सही मिल रहा था और कुछ साल में मुख्यमंत्री भी बन जाते। लेकिन उन्होंने अति महत्त्वाकांक्षा या बहकावे में आकर सब कुछ गँवा दिया।
राजनीतिक जानकार कहते हैं कि कांग्रेस को अब ऐसे युवाओं की एक टीम तैयार करनी चाहिए, जिसे राजनीतिक समझ होने के साथ-साथ विरोधी पार्टी की गतिविधियों पर नज़र रखकर जवाब देने की क्षमता हो। विरोधी पार्टी के हर हमले का जवाब दे सके। उसकी गलत नीतियों पर घेर सके और जनता को सच्चाई से रू-ब-रू करा सके। कांग्रेस ऐसी टीम में चुने हुए विद्वान और हर क्षेत्र की समझ रखने वाले युवाओं को मौदान में उतारकर हर राज्य में रैलियाँ आयोजित करे, सत्त्ताधारी दल की जन-विरोधी नीतियों पर खुले मंच पर बहस का निमंत्रण दें और लोगों को उनके हित-अहित की सही जानकारी दे। अगर ऐसे कांग्रेस करती है, तो वह दिन दूर नहीं, जब लोगों को अपने हितों की फिक्र होने लगेगी और वे जागरूक होकर सत्त्ताधारी सरकारों से हिसाब माँगने लगेंगे।
एक बार अगर जनता जागरूक हो गयी, तो जन-विरोधी काम करने वाली सरकारों की चूलें हिलने लगेंगी और उन्हें जनहित की अनदेखी करने से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा। इसके अलावा जनता पर अत्त्याचार भी कम होंगे। किसी भी गलत नीति का विरोध करने का साहस जनता में पैदा होगा। सुशासन का नारा देकर कुशासन करने वाले नेताओं पर जनता का दबदबा बढ़ेगा और उनमें सुधार की सम्भावनाएँ बढ़ेंगी। यह एक प्रकार की क्रान्ति होगी, जो जन-जन में जाग्रत होगी, जिससे कोई भी सरकार या कोई भी मंत्री किसी तरह से जन-विरोधी काम नहीं कर सकेगा; क्योंकि उसे जनता के विरोध का डर होगा। लेकिन इसके विए कांग्रेस को अपनी धूमिल हो चुकी छवि को निखारना होगा। राहुल गाँधी ने इस ओर सार्थक प्रयास किये हैं। बाकी नेताओं को भी इसी तरह की छवि बनानी होगी।
इसके साथ-साथ जनता की देश-भक्ति और धाॢमक भावना का पूरा खयाल रखना होगा। उसे भरोसा दिलाना होगा कि उसी के बल-बूते पर देश मज़बूत हो रहा है और उसी के वोट के बल पर सत्ता का द्वार खुलता है। हर नेता उसे (जनता को) बिना भेद-भाव के फायदा पहुँचाएगा।
आलाकमान का सख्त रुख
यदि हाल के वर्षों की घटनाएँ देखें, तो पहली बार कांग्रेस आलाकमान का रुख बदला हुआ दिखा है। पायलट वाले मामले में कार्रवाई को लेकर कांग्रेस इंदिरा गाँधी के ज़माने वाली सख्त कांग्रेस दिखी है। प्रदेशों में जब कांग्रेस को अपनी सरकारों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, उसने सख्त रुख दिखाते हुए और राजस्थान में गहलोत सरकार की परवाह किये बगैर पायलट के खिलाफ फौरी तौर पर कार्रवाई की; जबकि महज़ तीन महीने पहले ही मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया वाले मामले में कांग्रेस आलाकमान निष्क्रिय-सी दिखी थी।निश्चित की आलाकमान के इस सख्त रुख से देश भर के कांग्रेस नेताओं में साफ संदेश गया है। यही कि अब नरमी नहीं बरती जाएगी और इस तरह की अनुशासनहीनता को अब स्वीकार नहीं किया जाएगा।
एआईसीसी में पदाधिकारी एक कांग्रेस नेता ने तहलका को बताया कि पार्टी नेतृत्व को गारंटी मान लेने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। पायलट को अवसर दिया गया; लेकिन उन्हें लगा कि कुछ नहीं होगा। लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई से देश भर के उन नेताओं को संदेश मिल जाना चाहिए, जो कि पार्टी (कमान) को मज़ाक बनाने की जुर्रत
करते हैं।
राजस्थान की ही बात करें, तो कांग्रेस आलाकमान ने काफी चीज़ें सामने आने के बावजूद सचिन पायलट को घर लौट आने का संदेश दिया। लेकिन इसके बाद भी वे नहीं माने, तो कांग्रेस ने सीधी कार्रवाई करते हुए पायलट को उप मुख्यमंत्री ही नहीं, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। उनके समर्थक दोनों मंत्रियों की भी यही हालत हुई और समर्थक दो विधायक भँवरलाल शर्मा और विश्वेंद्र सिंह निलंबित कर दिये गये।
राजनीतिक विश्लेषक एसपी शर्मा कहते हैं कि सबको साथ लेकर चलने की नीति अछी है; लेकिन यह हमेशा काम नहीं करती। कांग्रेस आलाकमान अभी तक इसी नीति पर चल रही थी। वह कड़े फैसले लेने से हिचकती थी और इसका कारण शायद आलाकमान के मन में यह संकोच था कि इससे यह संकेत जाएगा कि गाँधी परिवार राहुल के कारण युवाओं को पार्टी में खत्म कर रहा है, जबकि तथ्य यह है कि सोनिया गाँधी से लेकर राहुल गाँधी तक ने युवाओं को बेहतर अवसर दिये।
कांग्रेस के विपरीत भाजपा की तरफ देखें, तो वहाँ आलाकमान में कांग्रेस जैसी लचक या दरियादिली नहीं दिखती। वहाँ आलाकमान सख्त है। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर अध्यक्ष जेपी नड्डा तक अनुशासन के मामले में समझौता नहीं करते। अमित शाह ने भाजपा में ऑल पॉवरफुल आलाकमान वाली जो परम्परा स्थापित की, नड्डा भी उसी पर चल रहे हैं। वहाँ कोई बगावत की सोच भी नहीं सकता।
इसके विपरीत कांग्रेस में ऐसा नहीं दिखता है। वहाँ अपने नेताओं के प्रति आलाकमान अपेक्षाकृत नरम दिखती रही है। लेकिन कांग्रेस में घटनाओं से साबित हुआ है कि सबको खुश रखने और खुलकर पद देने से आप किसी को वफादार नहीं बना सकते और इसके लिए सख्त कदम उठाने ज़रूरी होते हैं। पायलट के मामले में कांग्रेस ने अपनी इसी नीति को छोडक़र सख्त कदम उठाकर एक संदेश दिया है। पायलट राहुल गाँधी ही नहीं प्रियंका गाँधी के भी बहुत नज़दीक रहे हैं। ऐसे में उनके खिलाफ कार्रवाई अन्य नेताओं के लिए सख्त संदेश है।
कांग्रेस में नरम नीति की शुरुआत राजीव गाँधी के समय शुरू हुई। राजीव यह मानते थे कि आधुनिक समय में नेताओं की छूट का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। समन्वय की इसी नीति को सोनिया गाँधी ने भी आगे बढ़ाया। लेकिन सत्ता से लगातार दो बार बाहर रहने और दोनों बार लोकसभा में 50 के आसपास सीटों पर सिमट जाने से कांग्रेस आलाकमान कमज़ोर हुआ है। इसी ने पार्टी में अनुशासनहीनता को बढ़ाया है।
बगावत की शुरुआत राजीव गाँधी के ज़माने से ही हो गयी थी। जैसा भरोसा आज कांग्रेस और राहुल गाँधी का ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट पर था; वैसा ही भरोसा राजीव गाँधी वी.पी. सिंह और अरुण नेहरू पर करते थे। लेकिन दोनों ने उनके खिलाफ बगावत की। वी.पी. सिंह तो बाद में प्रधानमंत्री भी बने। देश भर में आज भाजपा से लेकर तमाम दलों में कांग्रेस से ही गये हुए नेता हैं और कई तो प्रमुख पदों पर रहे हैं या अभी भी हैं।
इसके विपरीत कांग्रेस में ऐसा नहीं दिखता है। वहाँ अपने नेताओं के प्रति आलाकमान अपेक्षाकृत नरम दिखती रही है। लेकिन कांग्रेस में घटनाओं से साबित हुआ है कि सबको खुश रखने और खुलकर पद देने से आप किसी को वफादार नहीं बना सकते और इसके लिए सख्त कदम उठाने ज़रूरी होते हैं। पायलट के मामले में कांग्रेस ने अपनी इसी नीति को छोडक़र सख्त कदम उठाकर एक संदेश दिया है। पायलट राहुल गाँधी के ही नहीं, प्रियंका गाँधी के भी बहुत नज़दीक रहे हैं। ऐसे में उनके खिलाफ कार्रवाई अन्य नेताओं के लिए सख्त संदेश है।
कांग्रेस में नरम नीति की शुरुआत राजीव गाँधी के समय शुरू हुई। राजीव यह मानते थे कि आधुनिक समय में नेताओं की छूट का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। समन्वय की इसी नीति को सोनिया गाँधी ने भी आगे बढ़ाया। लेकिन सत्ता से लगातार दो बार बाहर रहने और दोनों बार लोकसभा में 50 के आसपास सीटों पर सिमट जाने से कांग्रेस आलाकमान कमज़ोर हुआ है। इसी ने पार्टी में अनुशासनहीनता को बढ़ाया है।
ऐसा नहीं है कि देश में कांग्रेस इन चन्द नेताओं पर ही निर्भर है, जो सत्ता की मलाई भी चाट रहे हैं और आलाकमान को आँखें भी दिखा रहे हैं। जितिन प्रसाद, प्रिया दत्त, मिलिंद देवड़ा जैसे कई नेता, जो अपने पिता की विरासत के बूते कांग्रेस में महत्त्वपूर्ण हो गये, पायलट के मामले में जिस तरह मुखर हुए; उसे इक्का-दुक्का मामला ही माना जाएगा। राजनीतिक विश्लेषक एस.पी. शर्मा कहते हैं कि पार्टी में लाखों-लाख कार्यकर्ता हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व के प्रति वफादार हैं।
उन्होंने कहा कि पहले संजय झा और अब सचिन पायलट को लेकर जैसा सख्त रुख नेतृत्व ने दिखाया है, उसका असर तो होगा ही। इससे अनुशासनहीनता पर भी लगाम कसेगी। कांग्रेस को दोबारा खड़ा करना है, तो उसे ऐसे सख्त और अप्रिय फैसले करने होंगे।
कामराज योजना ज़रूरत
कांग्रेस जिस दौर में है, उसे आज एक और कामराज योजना की सख्त ज़रूरत है। दिग्गज कांग्रेस नेता कुमारस्वामी कामराज ने तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद 2 अक्टूबर, 1963 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने की बात कही। उनका कहना था कि कांग्रेस के सब बुज़ुर्ग नेताओं में सत्ता लोभ घर कर रहा है और उन्हें वापस संगठन में लौटना चाहिए और लोगों से जुडऩा चाहिए। उस समय देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को कामराज की यह योजना इतनी पसन्द आयी कि उन्होंने इसे पूरे देश में कांग्रेस पार्टी में लागू करने का मन बनाया। भारतीय राजनीति में यह योजना कामराज प्लान के नाम से मशहूर हुई।
कामराज योजना लागू करने के नेहरू के फैसले का नतीजा यह निकला कि उनके मंत्रिमण्डल के छ: मंत्रियों और छ: राज्यों के मुख्यमंत्रियों को त्याग-पत्र देना पड़ा। कैबिनेट मंत्रियों में भी तमाम दिग्गज शामिल थे। इनमें मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री, बाबू जगजीवन राम और एस.के. पाटिल शामिल थे। मुख्यमंत्रियों में चंद्रभानु गुप्त, मण्डलोई और बीजू पटनायक जैसे दिग्गज शामिल थे। इस सफल प्रयोग के बाद कामराज को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया।
इस योजना को देखें, तो 2014 में नरेंद्र मोदी के उदय के बाद भाजपा ने भी कमोवेश इसी तर्ज पर मार्गदर्शक मण्डल बनाया और लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों को इसमें डाल दिया। हाँ, कामराज योजना के विपरीत भाजपा ने अपने वरिष्ठ नेताओं को सरकार ही नहीं, एक तरह संगठन से भी बाहर कर दिया; जबकि कांग्रेस ने अपने नेताओं को तब संगठन और जनता से सम्पर्क का ज़िम्मा दिया था। इस लिहाज़ से देखें तो कांग्रेस की कामराज योजना कहीं बेहतर और सम्मानजनक थी।
कांग्रेस इस समय नेतृत्व परिवर्तन के दौर में है। सोनिया गाँधी कार्यवाहक अध्यक्ष हैं और जल्दी ही उन्हें अपना पद छोडक़र किसी और को यह ज़िम्मा देना है। सोनिया गाँधी 11 अगस्त, 2019 को कांग्रेस के अध्यक्ष बनी थीं। राहुल ने लोकसभा कांग्रेस की हार के बाद पद से इस्तीफा दे दिया था और पार्टी को अंतरिम अध्यक्ष बनाने में ही तीन महीने लग गये। ऐसे में पार्टी संविधान के मुताबिक, सोनिया गाँधी को एक साल पूरा होने से पहले ही अपना पद छोडऩा होगा।
बहुत ज़्यादा सम्भावना है कि राहुल गाँधी दोबारा पार्टी अध्यक्ष बनेंगे। पिछली बार जब राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाया गया था, उन्हें पूर्ण छूट नहीं थी और वरिष्ठ नेताओं का संगठन में काफी ज़्यादा हस्तक्षेप था। माना जा रहा है कि अब राहुल गाँधी सिर्फ इस शर्त पर अध्यक्ष बनने के लिए तैयार होंगे कि उन्हें संगठन में फ्री हैंड (स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार) दिया जाए।
यह सम्भावना तो नहीं है कि भाजपा की तरह कांग्रेस अपने वरिष्ठ नेताओं के लिए कोई मार्गदर्शक मण्डल बना दे; लेकिन वर्तमान नेताओं में से कुछ ऐसे हैं, जिन्हें लगभग सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा। तहलका की जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस में ओवरहॉलिंग (मरम्मत) की योजना तैयार की जा रही है। राहुल के अध्यक्ष बनते ही बड़े पैमाने पर संगठन में फेरबदल होगा। राज्यों में नये अध्यक्ष बनाये जाएँगे और इसमें युवाओं को तरजीह दी जाएगी।
सोनिया की युवा टीम
यह बहुत दिलचस्प तथ्य है कि कांग्रेस में आज जो पीढ़ी नेतृत्व पर उपेक्षा का आरोप लगाकर उससे अपने स्वार्थों के चलते छिटक रही है, उसे 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गाँधी ने तैयार किया था। सोनिया गाँधी ने न केवल इन युवा नेताओं को पार्टी में लिया, बल्कि उन्हें सरकार में पदों पर पहुँचाया। इन नेताओं में ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, संदीप दीक्षित जैसे नेता शामिल हैं। इन्हें काम करने की छूट दी गयी और सीखने का अवसर भी। लेकिन यही नेता आज बागी तेवर अपनाये हुए हैं। जहाँ सिंधिया पार्टी से जा चुके हैं और पायलट खुले रूप से बागी हो चुके हैं, अन्य भी समय-समय पर बागी तेवर दिखाते रहते हैं। यहाँ यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि सोनिया गाँधी के अध्यक्ष रहते कांग्रेस दो बार सत्ता में रहीं। इसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया और पायलट जैसे नेताओं को तो सरकार में भागीदारी मिली, लेकिन खुद उनके अपने बेटे राहुल गाँधी को नहीं। ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व पर इन नेताओं का उपेक्षा का आरोप लगाकर विद्रोह करना भी हास्यास्पद ही लगता है। राहुल उस समय संगठन के लिए ही काम करते रहे, जबकि मनमोहन के पहले कार्यकाल में कांग्रेस के भीतर बहुत-से नेताओं का सुझाव था कि राहुल को मंत्री बनाया जाना चाहिए। दूसरे कार्यकाल में तो उन्हें सरकार बनने के दो साल बाद प्रधानमंत्री बनाने का भी सुझाव आया, जिसे सोनिया गाँधी ने नहीं माना; जबकि उनके लिए ऐसा करना कठिन नहीं था। हिमाचल में विपक्ष के नेता मुकेश अनिहोत्री इसे लेकर कहते हैं कि भाजपा को पता है कि गाँधी परिवार की देश की जनता में लोकप्रियता है। सुनियोजित तरीके से भाजपा ने इस परिवार को बदनाम करने का षड्यंत्र रचा। भाजपा गाँधी परिवार पर सत्ता के मोह का आरोप लगाती है, लेकिन तथ्य इसके उलट हैं। अनिहोत्री यह भी कहते हैं कि पार्टी के लिए समर्पण भाव से काम करने वाले युवा नेताओं को हमेशा तरजीह मिली है। करीब 53 साल के अनिहोत्री खुद इसके उदाहरण हैं, जो अब हिमाचल में कांग्रेस विधायक दल के नेता हैं।
राज्यों में कमज़ोर कांग्रेस
आज देखें तो कई राज्यों में कांग्रेस वैसी ही स्थिति में है, जैसी 1998 में पश्चिम बंगाल में थी; जब ममता बनर्जी ने बागी होकर कांग्रेस को छोड़ दिया था। अर्थात् सहयोगियों के भरोसे, उनकी बी टीम के रूप में। आज की तारीख में कांग्रेस की इस हालत का विस्तार कमोवेश सभी राज्यों में हो गया है; कुछ राज्यों को छोडक़र। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण राज्यों में कांग्रेस बहुत बिखरी हालत में है। इन राज्यों में कांग्रेस को या तो सहयोगियों के रहम-ओ-करम पर छोड़ दिया गया है। वहाँ कांग्रेस का संगठन या तो बेहद लचर है या मृत-सी हालत में है। प्रियंका गाँधी को उत्तर प्रदेश में सक्रिय करने से कांग्रेस कुछ हद तक मैदान में दिखने लगी है, अन्यथा अभी तक उसकी बुरी हालत थी। यहाँ एक बहुत दिलचस्प तथ्य यह भी है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने लम्बे समय तक बुरा प्रदर्शन करते-करते अचानक 22 लोकसभा सीटें जीत ली थीं। दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस का जनाधार है; लेकिन संगठन के लचर होने से जनता उससे जुड़ नहीं पा रही। इनमें से ज़्यादातर राज्यों में कभी कांग्रेस की तूती बोलती थी। राजनीति के जानकार मानते हैं कि जब तक कांग्रेस राज्यों में खुद को दोबारा स्थापित करने की गम्भीर मुहिम शुरू नहीं करती, वो अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती। राजनीतिक विश्लेषक बी.डी. शर्मा कहते हैं कि कांग्रेस को दूसरे दलों का सहारा छोडक़र अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। उसे मज़बूत नेताओं को राज्यों में संगठन की ज़िम्मेदारी देनी होगी और पूरी ताकत से मुख्य दल के रूप में उभरना होगा। शर्मा कहते हैं कि हो सकता है इसमें कुछ समय लगे; लेकिन यही रास्ता है कि जो कांग्रेस को भाजपा के सामने खड़ा कर सकता है। उसका अभी भी व्यापक जनाधार है। उसे भाजपा के कमज़ोर होने और खुद लोगों के उसे स्वीकार करने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। यह ठीक है कि कांग्रेस पिछले लगातार दो लोक सभा चुनावों में 55 सीटों के आसपास सिमट गयी है; लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस को 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के 22.90 करोड़ वोटों के मुकाबले 11.20 करोड़ वोट मिले हैं। सीटों के लिहाज़ से देखें, तो अन्तर ज़्यादा है; लेकिन कुल वोटों के लिहाज़ से देखें. तो कांग्रेस को भाजपा से लगभग आधे वोट मिले हैं।
यह इस बात का संकेत है कि सीटों के लिहाज़ से बहुत खराब प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस को 11 करोड़ से कुछ ज़्यादा लोगों ने वोट दिये। यह संकेत करता है कि अभी भी देश में कांग्रेस का व्यापक जनाधार है और संगठन को मज़बूत करके वह भाजपा को गम्भीर चुनौती पेश कर सकने की क्षमता रखती है। नहीं भूलना चाहिए कि 2004 और 2009 में भाजपा भी कांग्रेस से लगातार दो लोकसभा चुनाव हारी थी। हालाँकि उसकी सीटें इतनी नीचे नहीं गयी थीं, जितनी कांग्रेस की गयी हैं और इसका कारण भाजपा के पास नरेंद्र मोदी का नेतृत्व होना है। भाजपा हाल के महीनों में कई मोर्चों पर फेल होती दिख रही है। कांग्रेस को इन मुद्दों को एक आन्दोलन बनाये बगैर जनता तक पहुँच बनाने में सफलता नहीं मिलेगी। उसे राज्यों में मज़बूत नेतृत्व उभारने होंगे और अपने बूते चुनाव लडऩे और जीतने की आदत डालनी होगी। बहुत-से राजनीतिक जानकारों ने सलाह दी थी कि बिहार में कांग्रेस को भाजपा से छिटके यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं को अपने साथ जोडक़र आगे करना चाहिए और चुनाव में अपने दम पर उतरना चाहिए। लेकिन कांग्रेस को देखकर लगता है कि राज्यों की जैसे उसे फिक्र ही नहीं है। यदि कांग्रेस एक मज़बूत संगठन के रूप में उभरती है, तो भविष्य में उसके बिछड़े साथी भी उसे मिल सकते हैं। लेकिन उससे पहले उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि कांग्रेस दौडऩे वाला घोड़ा है। यदि कांग्रेस खुद को दौड़ सकने वाला घोड़ा नहीं बना पाती है, तो निश्चित ही उसे भारत के राजनीतिक परिदृश्य में अपने लिए बड़ा स्थान देखने की कल्पना नहीं करनी चाहिए।
कांग्रेस में सोनिया बनाम राहुल
क्या कांग्रेस दो-फाड़ हो गयी है? राहुल और सोनिया कांग्रेस में। क्या राहुल को सोनिया के नज़दीकी बुज़ुर्ग लोगों (नेताओं) ने सिर्फ इसलिए फेल करने की कोशिश की है, क्योंकि वे राहुल के रहते अप्रासंगिक होने की तरफ बढ़ रहे थे और युवा नेता कांग्रेस का नेतृत्व ओढऩे की तैयारी कर रहे थे। दिल्ली के बन्द कमरों में बैठकर सुदूर इलाकों के टिकट तय करने वाले यह बुज़ुर्ग नेता राहुल के समय कमोवेश अप्रासंगिक हो रहे थे। राजनीति की भाषा में कहें, तो इनकी दुकान बन्द हो रही थी। यह राहुल ही थे, जिन्होंने अपने इस्तीफे के बाद यह कहने की हिम्मत की थी कि कांग्रेस को गाँधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष चुनना चाहिए। लेकिन कांग्रेस के भीतर बुज़ुर्ग नेताओं ने राहुल की इस कोशिश को बहुत योजनाबद्ध तरीके से किनारे करके अस्वस्थ चल रहीं सोनिया गाँधी को दोबारा कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया। क्या आज कांग्रेस राहुल के युवा और सोनिया गाँधी के बुज़ुर्ग साथियों के बीच बँट गयी है? या संजय निरुपम, देवड़ा, जितिन प्रसाद, प्रिय दत्त और अन्य के भीतर की बैचेनी का कोई और कारण है? राहुल के काम करने के तरीके पर नज़र दौड़ाएँ, तो साफ होता है कि वह कांग्रेस को लोकतंत्रिक तरीके से पुनर्जीवित करने की कोशिश रहे थे। ज़मीन से जुड़े लोगों और आम कार्यकर्ता की सलाह को फैसलों में शामिल करने की राहुल की कोशिश एक खुला सच है। इसी तरह टिकट वितरण में भी वह कार्यकर्ताओं की सलाह को शामिल करने पर ज़ोर दे रहे थे। बुज़ुर्ग हो रहे या हो चुके नेता इससे विचलित थे। उन्हें लग रहा था कि इससे तो पार्टी में उन्हें कोई पूछेगा तक नहीं। उन्हें यह बिल्कुल गवारा नहीं था। राहुल कांग्रेस कितने अकेले हो चुके हैं, यह उनकी गतिविधियों और उनके कट्टर समर्थकों को किनारे लगाने से ज़ाहिर हो जाता है। हाल के महीनों में संजय निरुपम, अशोक तँवर जैसे नेता इसके उदहारण हैं। उनके बनाये लोगों को सोनिया गाँधी के दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद एक-एक करके निपटा दिया गया है। राहुल जब अध्यक्ष थे, तब भी वह अपनी मर्ज़ी के फैसले नहीं कर पाते थे। साल 2018 में तीन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद मुख्यमंत्री चयन के समय ही यह साफ हो गया था। राहुल जिन्हें प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे, वह नहीं बने। आज इनमें से एक ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में हैं, जबकि सचिन पायलट बागी हो चुके हैं। बहुत दिलचस्प बात है कि कांग्रेस की जो युवा ब्रिगेड आज राहुल गाँधी के साथ है, इसे किसी और ने नहीं खुद सोनिया गाँधी ने पार्टी अधयक्ष रहते बनाया है। तब राहुल और यह सभी नेता काफी युवा थे। सोनिया ने इन्हें बेटों की तरह पार्टी के भीतर बहुत योजनाबद्ध तरीके से ताकत दी थी। लेकिन समय का फेर देखिये कि सोनिया के अध्यक्ष रहते हुए ही ये युवा नेता किनारे हो रहे हैं। इसका कारण है- सोनिया गाँधी का बुज़ुर्ग नेताओं पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर हो जाना। कांग्रेस की जैसी हालत है, उसमें शायद यह उनकी मजबूरी भी है। अन्यथा सोनिया आज से 10-11 साल पहले अध्यक्ष के नाते जितनी ताकतवर थीं, उसमें इस तरह की सम्भावनाओं के लिए जगह ही नहीं थी।
नाराज़ युवा नेताओं की कतार
कांग्रेस में युवा नेताओं की एक लम्बी कतार है। हालाँकि इनमें सबसे ज़्यादा चर्चा में वही रहते हैं, जो पहले से राजनीतिक परिवारों से हैं। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि इनमें से ज़्यादातर राहुल गाँधी के समर्थक रहे हैं। क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब में बहुत तामझाम के साथ कांग्रेस में आये थे। उन्हें राहुल ही नहीं, प्रियंका गाँधी के बहुत नज़दीक माना जाता है; लेकिन आज की तारीख में वह कांग्रेस में हाशिये पर हैं। उनके पिता भी कांग्रेस में रहे हैं। सचिन पायलट आज बागी रुख दिखा रहे हैं; लेकिन उनके पिता राजेश पायलट भी कांग्रेस के जाने-माने नेता और मंत्री रहे। प्रिय दत्त, जिन्होंने पायलट के खिलाफ कांग्रेस की कार्रवाई पर ट्वीट करके उन्हें दोस्त बताते हुए अफसोस ज़ाहिर किया था, उनके पिता दिग्गज अभिनेता संजय दत्त भी कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे। मिलिंद देवड़ा भी राजनीतिक परिवार से हैं और उनके पिता कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे हैं। उन्होंने भी पायलट को लेकर हल्का-सा बयान दिया था। वह मनमोहन सरकार में मंत्री रहे हैं। देवड़ा फिलहाल चुप हैं। हेमंत बिस्वा शर्मा, प्रियंका चतुर्वेदी, वाईएस जगन मोहन रेड्डी, संजय झा, अशोक तँवर जैसे नेता कांग्रेस से बाहर जा चुके हैं। प्रिया दत्त, संजय निरुपम जैसे रूठे हुए बैठे हैं। राहुल गाँधी के करीबी समझे मुम्बई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरुपम पार्टी के भीतर पनप रहे असंतोष और असहमति को खत्म न कर पाने के पार्टी नेतृत्व के रवैया पर खुले रूप से बोलते रहे हैं। निरुपम ने कांग्रेस आलाकमान के सामने यह सवाल उठाया कि एक के जाने से पार्टी खत्म नहीं होगी, लेकिन सब चले गये तो पार्टी में कौन बचेगा? पार्टी में युवा नेताओं की एक लम्बी कतार है, जो किसी-न-किसी रूप से रुष्ट दिखते हैं। दीपेंद्र सिंह हुड्डा, पंजाब में प्रताप बाजवा, विजय इंदर सिंह, सुनील जाखड़, नवजोत सिंह सिद्धू, मध्य प्रदेश में जीतू पटवारी, छत्तीसगढ़ में टीएस सिंहदेव, असम में गौरव गोगोई, सुष्मिता देव, कर्नाटक में दिनेश गुंडुराव, उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद, आंध्र प्रदेश में पल्लम राजू, महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण, मिलिंद देवड़ा, छत्तीसगढ़ में टी.एस. सिंहदेव जैसे नेता नाराज़ भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें से ज़्यादातर राहुल गाँधी खेमे के माने जाते रहे हैं। देखना यह है कि दलबदल करने वाले नेता कब तक और किस लालच में उन्हें कद्दावर बनाने वाली पार्टी का दामन छोडक़र भागते रहेंगे।