सन् 1998 की बात है, अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे और भारत के पोखरण में परमाणु परीक्षण से अमेरिका में नाराज़गी थी। जो बाइडन तब प्रमुख डेमोक्रेट नेताओं में शामिल थे। उस समय उन्होंने भारत का पक्ष लिया था। यही नहीं सन् 2006 में जब भारत का अमेरिका से ऐतिहासिक परमाणु समझौता हुआ, तब भी भारत को विशेष अहमियत देने वाला ड्राफ्ट, उस समय उप राष्ट्रपति बाइडन ने ही तैयार किया था। लेकिन भारत के सबसे बड़े गैर-राजनीतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) और दुनिया की सबसे बड़ी और भारत की केंद्रीय सत्ता में विराजमान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से जुड़े लोगों को बाइडन का अपनी केबिनेट में शामिल न करना भी एक बड़ी बात है। इससे कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं कि बाइडेन भारत के प्रति तो झुकाव रखते हैं, लेकिन वह भारत की वर्तमान राजनीति और मुख्य राजनीतिक पार्टी से खुश नहीं हैं। अब जबकि बाइडन राष्ट्रपति बन गये हैं, तब उनका यह रुख बहुत मायने रखता है। क्योंकि बाइडन का यह कदम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका से बेहतर निजी रिश्तों के दावों को भी पलीता है। यह भी भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होगा कि चीन के साथ उनके प्रशासिक रिश्ते कैसे होंगे? बाइडन अभी तक भारत की क्षेत्रीय सम्प्रभुता की रक्षा का समर्थन करते रहे हैं। सम्भावना है कि भारत-अमेरिका के बीच रक्षा सम्बन्धों में भविष्य में और मज़बूती आयेगी।
भारत के लिए सबसे महत्त्वपूर्व अमेरिका से रक्षा सम्बन्ध हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, ट्रंप के जाने और बाइडन के सत्ता सँभालने के बावजूद दोनों देशों के रक्षा सम्बन्धों पर असर की सम्भावना लगभग न के बराबर है। चीन के साथ सीमा पर तनाव के बीच दोनों देशों में ड्रोन से लेकर ऐंटी एयर मिसाइल जैसे हथियारों की खरीद को लेकर बातचीत की ज़मीन तैयार हो रही है। दोनों देश पहले ही रक्षा और रणनीति क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमति जता चुके हैं। चुनाव के समय अमेरिका की घरेलू राजनीति ऐसी थी कि भारत, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ट्रंप के बहुत करीब माना जाता था। हालाँकि जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद भी घरेलू राजनीति का दोनों देशों के सम्बन्धों पर खास असर पडऩे की सम्भावना नहीं है।
हाल के महीनों में 2+2 स्तर बातचीत ने दोनों देशों के बीच सहयोग की नयी कड़ी शुरू की है। बाइडन की टीम के सदस्य कर्ट कैम्पबेल, एंथनी ब्लिंकेन, मिशेल फ्लोरनी आदि को भारत के प्रति काफी सकरात्मक रुख रखने वाला माना जाता है। चीन से सीमा तनाव के दौरान ट्रंप के भारत के समर्थन में दिखने से चीन भी काफी खफा रहा था। देखना होगा कि बाइडन का इसे लेकर क्या रुख रहता है। हालाँकि जानकारों का कहना है कि हो सकता है कि बाइडन प्रशासन की चीन को लेकर तल्खी ट्रंप के समय जैसी न रहे। ट्रंप की तरह बाइडन के सार्वजनिक मंचों से चीन को कोसने की सम्भावना बहुत कम दिखती है।
बाइडन प्रशासन में उप राष्ट्रपति कमला हैरिस भारतीय मूल की हैं, जो दोनों देशों के बीच रिश्ते निभाने में बड़ा रोल अदा कर सकती हैं। इसके अलावा बाइडन की टीम में भारतीय मूल के 20 अमेरिकियों को जगह मिली है। इसे बहुत महत्त्वपूर्ण कहा जाएगा। वैसे बाइडन के पद ग्रहण से पहले अमेरिका के भावी रक्षा मंत्री जनरल (अवकाश प्राप्त) लॉयड ऑस्टिन ने कहा कि चीन पहले ही क्षेत्रीय प्रभुत्वकारी शक्ति बन चुका है और अब उसका लक्ष्य नियंत्रणकारी विश्वशक्ति बनने का है। उन्होंने क्षेत्र और दुनिया भर में चीन के डराने-धमकाने वाले व्यवहार का उल्लेख करते हुए अमेरिकी सांसदों से ये बातें कहीं। ऑस्टिन ने कहा- ‘वह (चीन) पहले ही क्षेत्रीय प्रभुत्वकारी ताकत है और मेरा मानना है कि अब उसका लक्ष्य नियंत्रणकारी विश्व शक्ति बनने का है। वह हमसे विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा करने के लिए काम कर रहा है और उसके प्रयास नाकाम करने के लिए पूरी सरकार को एक साथ मिलकर विश्वसनीय तरीके से काम करने की ज़रूरत होगी।’ इस बयान से चीन के प्रति अमेरिका की नयी सरकार की सोच का पता लगता है।
एक मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को डोनाल्ड ट्रंप के लिए वोट माँगते हुए देखा गया। देश में इसे लेकर काफी विवाद भी हुआ, हालाँकि भाजपा ने इसे दोनों के दोस्त होने की दुहाई देकर उचित बताया। अब जबकि ट्रंप व्हाइट हाउस से बाहर हो चुके हैं, यह कहा जा सकता है कि भारत को कई क्षेत्रों में इस दोस्ती के बावजूद कोई बड़ा लाभ नहीं मिला। उदाहरण के लिए व्यापार के क्षेत्र में भारत को फायदा नहीं हुआ। ट्रंप को लेकर यह साफ हो गया था कि मोदी से दोस्ती के बावजूद उनकी प्राथमिकता अपने देश के हितों की रहती थी। बाइडन प्रशासन में इसमें बड़े बदलाव की उम्मीद कम ही है। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी बाइडन के साथ कैसा व्यक्तिगत रिश्ता बना पाते हैं?
यदि बाइडन के हाल के बयानों और उनकी वेबसाइट का गहराई से अध्ययन करें, तो साफ होता है कि वह अमेरिका में देश के बने उत्पादों के बड़े समर्थक दिखते हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बाइडन प्रशासन में डाटा प्रोटेक्शन, लोकलाइजेशन, डिजिटल सर्विस टैक्स, इंटेलेक्चुअल प्रॉपटी राइट्स या इम्पोर्ट ड्यूटी से जुड़ी नीतियाँ, अमेरिकी व्यापार को ध्यान में रखकर बनेंगी। हाँ, बाइडन एच-1बी वीज़ा में भारतीयों की हिस्सेदारी और ग्रीनकाड्र्स आधारित रोज़गार में इज़ाफा कर सकते हैं। एजुकेशन सेक्टर में ट्रंप प्रशासन के समय तय की गयी स्टूडेंट-वीज़ा अवधि सीमित की थी, जिसे बाइडन वापस ले सकते हैं।
टकराव के मुद्दे
यदि पिछले तीन राष्ट्रपतियों बुश, ओबामा और ट्रंप के कार्यकाल को देखा जाए, तो भारत-अमेरिकी सम्बन्धों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है; लेकिन इनमें सुधार हुआ है। बाइडन के आने से भी भारत-अमेरिकी रिश्तों में खास बदलाव नहीं आयेगा। क्योंकि कोई ऐसा बड़ा कारण सामने नहीं, जिससे लगे कि बाइडन की भारत को लेकर नीति में कोई बड़ा बदलाव आयेगा। अटल बिहारी वाजपेयी के समय दोनों देशों के बीच रिश्तों में जो मज़बूती आयी, जो मनमोहन सिंह के दौर में और भी पक्की हुई। ट्रंप को तो मोदी अपना दोस्त कहते थे और उन्होंने ट्रंप की चुनाव के लिए मदद करने की भी कोशिश की। बाइडन के साथ मोदी के रिश्ते कैसे होते हैं, यह आने वाले समय में साफ हो जाएगा। हालाँकि व्यापार एक क्षेत्र है, जिसमें पहले से दोनों देशों के बीच कुछ समस्याएँ हैं। भारत में मेक इन इंडिया पर जिस तरह का मोदी सरकार का ध्यान है, उससे व्यापार में कुछ आशंकाएँ जानकार व्यक्त करते हैं। लेकिन बाइडन पिछले समय में भारत में सीएए और एनआरसी के अलावा जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने और राज्य का विशेष दर्जा वापस लेने को लेकर असहज टिप्पणियाँ कर चुके हैं।
डेमोक्रेट्स का एक बड़ा वर्ग शुरू से मानवाधिकार को लेकर काफी गम्भीर माना जाता रहा है। यदि आने वाले समय में इस पर बाइडन प्रशासन या डेमोक्रेट्स की तरफ से कोई बात उठती है तो भारत और प्रधानमंत्री मोदी दोनों के लिए मुश्किल घड़ी हो सकती है। अमेरिका ही नहीं, दूसरे कुछ देशों में भी सीएए और एनआरसी के अलावा जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने को लेकर मोदी सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए थे। इसके अलावा अमेरिका रक्षा क्षेत्र में अपने व्यापार हितों के प्रति बहुत सतर्क रहता है। मोदी से दोस्ती के बावजूद ट्रंप इस मामले में कभी समझौता करते नहीं दिखे थे। बाइडन उनसे अलग साबित होंगे, इसकी सम्भावना न के बराबर है। भारत के लिए रूस से एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीद को लेकर अमेरिका नाराज़ रहा है। यह मामले सामान्य रूप से चले तो ठीक है, मगर यदि किसी कारणवश गम्भीर रूप लेंगे, तो दोनों देशों के रिश्तों पर इसका काफी विपरीत असर पड़ सकता है।
लेकिन भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों की कड़ी को चीन मज़बूत करता है। चीन भारत और अमेरिका दोनों के लिए सामान रूप से चुनौती है। बाइडन भारत से अलग जाकर चीन से दो-दो हाथ नहीं कर सकते। बाइडन अपने चुनाव अभियान के दौरान चीन को लेकर सख्त रुख दिखाते रहे हैं। जानकारों के मुताबिक, चीन के खिलाफ बाइडन भारत को मज़बूत साझीदार बनाना चाहेंगे।
चीन के साथ ही भारत के रिश्तों में पाकिस्तान का भी कोण है। दरअसल अमेरिका की दक्षिण एशिया क्षेत्र में कुछ मजबूरियाँ रही हैं। इन मजबूरियों में एक अफगानिस्तान भी है, जहाँ अमेरिकी सेनाएँ अभी भी हैं। पाकिस्तान अमेरिका के लिए अफगानिस्तान के मामले में महत्त्वपूर्ण है। बाइडन भले पाकिस्तान को लेकर डबल गेम खेलने जैसी टिप्पणी कर चुके हों, लेकिन अफगानिस्तान से अपनी सेनाएँ पूरी तरह वापस करने तक वह पाकिस्तान को साथ लेकर चलेंगे। भारत के लिए समस्या बस यही है कि पाकिस्तान, जहाँ कश्मीर को लेकर इमराम खान के आने के बाद पूरी तरह भारत-विरोधी रुख अिख्तयार कर चुका है, वहीं वह पूरी तरह चीन की गोद में भी बैठ चुका है। ट्रंप के समय में मोदी पाकिस्तान पर कुछ मौकों पर दबाव डालने में सफल रहा था। क्या बाइडन ऐसी ही भूमिका भारत के लिए निभा पाएँगे? कहना कठिन है। वैसे हाल में अमेरिका के मनोनीत रक्षा मंत्री जनरल ऑस्टिन पाकिस्तान को भारत-विरोधी आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए इशारों में चेतावनी दे चुके हैं। उन्होंने यह तो कहा कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में शान्ति प्रक्रिया में सकारात्मक योगदान दिया है। लेकिन पाकिस्तान यह भी कहा कि पाकिस्तान ने भारत विरोधी आतंकवादी गुटों लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के खिलाफ जो कदम उठाये हैं, वो काफी नहीं हैं। ऑस्टिन ने कहा- ‘मैं अपने कार्यकाल में पाकिस्तान पर दबाव डालूँगा कि वह अपनी ज़मीन का इस्तेमाल आतंकवादियों के शरणस्थली के रूप में न होने दे।’
बाइडन की आव्रजन विधेयक पेश करने की योजना है। इसमें देश में कानूनी दर्जे के बिना रह रहे करीब एक करोड़ 10 लाख लोगों को आठ साल के लिए नागरिकता देने का प्रावधान होगा। एक अनुमान के मुताबिक, इसमें करीब पाँच लाख लोग भारतीय मूल के हैं। यह आव्रजन विधेयक निवर्तमान ट्रंप प्रशासन की कड़ी आव्रजन नीतियों के विपरीत होगा। बाइडन ने चुनाव प्रचार के दौरान ही आव्रजन पर ट्रंप के कदमों को अमेरिकी मूल्यों पर कठोर हमला करार दिया था। तब बाइडन ने कहा था कि वह इस नुकसान की भरपाई करेंगे।
विधेयक के तहत पहली जनवरी, 2021 तक अमेरिका में किसी कानूनी दर्जे के बिना रह रहे लोगों की पृष्ठभूमि की जाँच किये जाने की सम्भावना है। की जाएगी और यदि वे कर जमा करते हैं और अन्य बुनियादी अनिवार्यताएँ पूरी करते हैं, तो उनके लिए पाँच साल के अस्थायी कानूनी दर्जे का मार्ग प्रशस्त होगा या उन्हें ग्रीन कार्ड मिल जाएगा। इसके बाद उन्हें तीन और साल के लिए नागरिकता मिल सकती है। मुस्लिम देशों से लोगों के आगमन पर रोक समेत आव्रजन सम्बन्धी ट्रंप के कदमों को पलटने के लिए बाइडन के कदम उठाने की सम्भावना है। बाइडन ने कहा था कि वह कांग्रेस के साथ वीज़ा प्रणाली, एच 1-बी वीज़ा में सुधार करने के लिए काम करेंगे; ताकि वीज़ा पर रहने वालों को नौकरी स्विच करने की अनुमति मिल सके। इससे भारतीय कामगारों को काफी फायदा हो सकता है। बाइडन ने 1.1 करोड़ अवैध प्रवासियों को वैध बनाने का वादा किया गया था, उनके घोषणा पत्र के अनुसार, इनमें से पाँच लाख भारतीय हैं।
चीन का बदला
चीन डोनाल्ड ट्रंप से कितना नाराज़ था, यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि जो बाइडन के सत्ता सँभालते ही चीन ने बड़ा कदम उठाते हुए ट्रंप के राष्ट्रपति काल में अहम पदों पर रहे 28 अधिकारियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इनमें सबसे बड़ा नाम माइक पोम्पियो का है। ट्रंप के राष्ट्रपति कार्यकाल में अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे रॉबर्ट सी.ओ. ब्रायन पर भी चीन ने प्रतिबन्ध लगा दिया। यही नहीं चीन ने चीन-अमेरिका सम्बन्धों को खराब करने और चीन के अंदरूनी मामलों में दखल देने का आरोप लगाते हुए इन नेताओं पर प्रतिबन्धों की घोषणा की। तो क्या यह माना जाए कि चीन बाइडन से बेहतर रिश्तों की उम्मीद किये हुए हैं? क्या वह विशेष रूप से जुड़े लोगों पर प्रतिबन्ध लगाकर बाइडन के प्रति हल्का रुख दिखाना चाहता है?
चीन ने ट्रंप प्रशासन के इन लोगों पर प्रतिबन्ध की घोषणा करते हुए राष्ट्र की सम्प्रभुता के उल्लंघन का आरोप लगाया। पोम्पियो और अन्य 27 अधिकारी बैन के बाद अब चीन की सीमा में किसी भी तरह की यात्रा नहीं कर सकेंगे। दिलचस्प यही है कि चीन ने यह ऐलान तब किया, जब जो बाइडन का शपथ ग्रहण समारोह हो रहा था। चीन ने आरोप लगाया कि ये सभी लोग चीन-अमेरिका के रिश्तों को खराब करने के ज़िम्मेदार थे। सूची में पोम्पियो के अलावा रॉबर्ट सी. ओब्रायन, पीटर नेवारो, डेविड स्टिलवेल, मैथ्यू पॉटिंगर, एलेक्स अजर, कीथ क्रैच, केली डीके क्राफ्ट, जॉन आर. बोल्टन, स्टीफन जैसे नाम शामिल हैं। अब इन सभी के साथ ही इनके परिवार के सदस्य भी चीन की मुख्य भूमि के अलावा हॉन्गकॉन्ग, मकाऊ में भी प्रतिबन्धित कर दिये गये हैं और वे चीन या चीन की किसी भी कम्पनी के साथ व्यापार भी नहीं कर पाएँगे। भले चीन ने डोनाल्ड ट्रंप को लेकर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया, लेकिन ट्रंप के कार्यकाल में भी चीन के कई अधिकारियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था; जिनमें शिनजियाँग प्रान्त के गवर्नर जैसे लोग नाम शामिल थे। अब चीन के विदेश मंत्रालय ने निवर्तमान अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पेाम्पियो को महाविनाश का पुतला करार दिया और कहा कि उनके द्वारा चीन को नरसंहार और मानवता के विरुद्ध अपराध का दोषी करार दिया जाना केवल रद्दी का एक पुर्ज़ा भर है। बता दें कि चीन के वुहान में कोरोना विषाणु की उत्पति के आरोप अमेरिका और कुछ अन्य देशों ने लगाये थे। अमेरिका में तो इसे लेकर एक मामला भी दर्ज किया गया था। अभी चीन ने बाइडन को लेकर खुले तौर पर कुछ नहीं कहा है। उनके सत्ता सँभालने को लेकर भी कोई अहम प्रतिक्रिया चीन की तरफ से नहीं आयी है। बाइडन ने भी शपथ ग्रहण के बाद खुद अपने भाषण में चीन को लेकर कोई बड़ी नकारात्मक टिप्पणी नहीं की थी। हालाँकि इसके बावजूद यह तय है कि चीन के साथ अमेरिका के रिश्ते कोई मित्रता वाले तो नहीं ही होंगे।
यह माना जा रहा था कि बाइडन शुरुआत में चीन को लेकर कोई बड़ा ऐलान कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने चीन से जुड़ा कोई भी बड़ा बयान नहीं किया। वैसे अपने प्रति बाइडन के नज़रिये से चीन भी सतर्क है। विशेषज्ञ बताते हैं कि दोनों देशों के बीच सम्बन्धों में खास बदलाव नहीं आयेगा। अमेरिका में नया राष्ट्रपति बनने के बाद चीन मान रहा है कि अमेरिका कई मुद्दों को लेकर कड़ा रुख रखेगा। हालाँकि चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि नये प्रशासन के बाद चीन और अमेरिका के बीच कुछ व्यापारिक मसले हल हो सकते हैं। बाइडन टीम के सदस्य जेनेट येलेन कह चुके हैं कि अमेरिका में नया प्रशासन चीन की अमेरिका की अर्थ-व्यवस्था को कमज़ोर करने वाले तरीकों के खिलाफ दूसरे विकल्पों का भी उपयोग करेगा। येलेन, ट्रेजरी सेक्रेटरी चुने गये हैं और उनका साफ मानना है कि चीन की वजह से अमेरिकी कम्पनियों की कीमतें गिर रही हैं।
बाइडन का भाषण
शपथ लेने के बाद अपने पहले सम्बोधन में देश के अब तक के सबसे उम्रदराज़ राष्ट्रपति बाइडन ने घरेलू आतंकवाद और श्वेतों को श्रेष्ठ मानने वाली मानसिकता को हराने की लड़ाई में अमेरिका के सभी नागरिकों से शामिल होने का आह्वान करते हुए कहा कि आज हम एक उम्मीदवार की जीत का नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मकसद और लोकतंत्र की जीत का जश्न मना रहे हैं। देश के 46वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद 78 वर्षीय बाइडन ने न सिर्फ अपने वैश्विक सहयोगियों के साथ सम्बन्धों को दुरुस्त करने का वादा किया, बल्कि देश के लोगों से सच की रक्षा करने और झूठ को हराने का भी आह्वान किया।
नवंबर में घोषित चुनाव परिणाम में बाइडन की जीत को अस्वीकार करने के ट्रंप के प्रयासों का परोक्ष सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा- ‘आज अमेरिका का दिन है। लोकतंत्र की जीत हुई है।’ कोरोना वायरस संक्रमण और नस्लीय अन्याय के खिलाफ लड़ाई जैसी चुनौतियों का सन्दर्भ देते हुए बाइडन ने कहा- ‘एकजुट होकर हम बहुत कुछ कर सकते हैं। महामारी को हराने, हालात सुधारने, देश को एकजुट करने के लिए एकजुटता ही आगे का रास्ता है।’ बाइडन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वह सभी अमेरिकी नागरिकों के राष्ट्रपति हैं, उन्हें वोट देने वालों के भी और नहीं देने वालों के भी। अपने 21 मिनट लम्बे भाषण में बाइडन ने चुनौती स्वीकार करने और लोकतंत्र बहाल करने के लिए अमेरिकी नागरिकों की प्रशंसा की। उन्होंने क्रोध और विभाजन को शह देने वालों की आलोचना की और उनका विरोध करने वालों से कहा – ‘एक बार मेरी बात सुनें। सच और झूठ सब सामने आते हैं।’
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए अपने सन्देश में बाइडन ने अमेरिका के साझेदारों के साथ सम्बन्धों को दुरुस्त करने और दुनिया के साथ एक बार फिर साझेदारी बढ़ाने का वादा किया। अनुभवी नेता ने अपने भाषण में कहा- ‘हम शान्ति, प्रगति और सुरक्षा के क्षेत्र में मज़बूत और विश्वस्त साझेदारी होंगे। अमेरिका ने परीक्षा दी है और मज़बूत होकर उभरा है। हम अपने साझेदारों के साथ सम्बन्धों को दुरुस्त करेंगे और एक बार फिर दुनिया के साथ अपना मेल-जोल बढ़ाएँगे।’ बाइडन ने कहा कि हम सिर्फ अपनी शक्ति के आधार पर नेतृत्व नहीं करेंगे, बल्कि उदाहरण पेश करेंगे और उसके आधार पर आगे चलेंगे। हम शान्ति, प्रगति और सुरक्षा के लिए मज़बूत और विश्वस्त साझेदार साबित होंगे। जो बाइडन ने कहा कि देश की सीमाओं के बाहर के लिए उनका सन्देश है कि हम अपने सहयोगियों के साथ रिश्ते फिर सुधारेंगे और दोबारा दुनिया के साथ कूटनीतिक सम्पर्क बहाल करेंगे, तो एक नयी उम्मीद विश्व शान्ति के लिए दिखती है।
कई फैसले पलटे
अमेरिका की सत्ता हाथ में आते ही बाइडन ने पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पेरिस जलवायु समझौते और अमेरिका में मुस्लिम ट्रैवल बैन को खत्म करने जैसे फैसले पलट दिये। नये राष्ट्रपति ने जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते में अमेरिका की फिर से वापसी के लिए उस पर हस्ताक्षर कर दिये।
बाइडन ने पेरिस जलवायु समझौते में दोबारा शामिल होने का ऐलान करते हुए कहा कि देश की जनता से चुनाव के दौरान उन्होंने इसका वादा किया था। इसके अलावा बाइडन ने कोरोना वायरस के खिलाफ जंग तेज़ करने के इरादे से महामारी कोरोना वायरस को रोकने के एक फैसले पर दस्तखत किये। इस आदेश के मुताबिक, उन्होंने मास्क को और सोशल डिस्टेंसिंग को अनिवार्य कर दिया है। बाइडन ने अमेरिका में ट्रंप द्वारा कुछ मुस्लिम देशों और अफ्रीकी देशों के आवागमन पर रोक लगाने जैसे फैसलों को पलटते हुए इस प्रतिबन्ध खत्म कर दिया है। बाइडेन ने मैक्सिको बॉर्डर पर दीवार बनाने के ट्रंप के फैसले को भी पलट दिया और इसके लिए फंडिंग भी रोक दी। इस फैसले के बाद मैक्सिको ने जो बाइडेन की प्रशंसा की। इतना ही नहीं, अमेरिका राष्ट्रपति जो बाइडेन ने राष्ट्रपति बनने के तुरन्त बाद कीस्टोन एक्सएल पाइपलाइन के विस्तार पर भी रोक लगाने के आदेश पर दस्तखत किये हैं।
कीस्टोन एक तेल पाइपलाइन है, जो कच्चे तेल को अल्बर्टा के कनाडाई प्रान्त से अमेरिकी राज्यों इलिनोइस, ओक्लाहोमा और टेक्सास तक ले जाती है। बाइडन ने कीस्टोन एक्सएल पाइपलाइन के खिलाफ बात की थी और यहा कहा था- ‘टार सैंड्स की हमें ज़रूरत नहीं है।’
बाइडन के राष्ट्रपति अभियान का एक प्रमुख वादा कीस्टोन एक्सएल परियोजना को रद्द करने की प्रतिबद्धता थी। भविष्य में बाइडन पूर्व सरकार की ओर से शुरू की गयी कई परियोजनाओं से हाथ खींच सकते हैं। जैसे, अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय विकास वित्तपोषण के माध्यम से अर्जेंटीना में फ्रैकिंग और तेल-गैस उत्पादन को प्रोत्साहित करता है, जो पिछली बार वाका मुएर्ता परियोजनाओं के लिए हुआ। निर्वाचित उप राष्ट्रपति कमला हैरिस सहित कई अमेरिकी सीनेटरों ने इसके खिलाफ एक याचिका पर हस्ताक्षर किये थे। बाइडन ने कहा था कि वह वनों की कटाई के लिए ब्राजील के राष्ट्रपति बोल्सोनारो को जवाबदेह ठहराएँगे। अन्य देशों के साथ रैली करने और अॅमेजन की सुरक्षा के लिए 20 अरब डॉलर (करीब 1500 अरब रुपये) का समर्थन देने से शायद यह हासिल किया जा सकता है। हालाँकि स्थानीय ब्राजीलियाई समूह इस बात पर ज़ोर डालते हैं कि यह इस तरह से किया जाना चाहिए, जो ब्राजील की अमेजन के अपने हिस्से पर सम्प्रभुता को स्वीकार करता है और उसका सम्मान करता है।
हिंसा और दबाव
अमेरिका में बीते और नये साल में कुछ घटनाएँ हुईं। इनमें एक तो यह कि डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी सत्ता बचाने के लिए चुनाव में जिस तरह धाँधली के आरोप लगाकर न्यायालयों और प्रशासन पर दबाव बनाने की कोशिश की, उसमें वह सफल नहीं हुए। दो मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने भी ट्रंप की याचिकाएँ खारिज कर दीं। भारत में पिछले कुछ समय में सरकार पर जिस तरह सरकारी संस्थानों को अपनी राजनीति के हिसाब से चलाने के आरोप मोदी सरकार पर लगे हैं, उसे देखते हुए सबक लेने की ज़रूरत है। इसके अलावा जिस तरह वाशिंगटन डीसी स्थित कैपिटल हिल पर ट्रंप के समर्थक हिंसक हो गये और उन्होंने संसद में तोडफ़ोड़ और हिंसा की, जिससे गलत सन्देश गया है। पुलिस के साथ झड़प में गोली लगने से एक महिला समेत चार लोगों की मौत हो गयी। पुलिस को बड़ी मात्रा में विस्फोटक भी मिले। सेना की स्पेशल यूनिट (विशेष टुकड़ी) ने प्रदर्शनकारियों को खदेड़ा। वाशिंगटन में कफ्र्यू भी लगाना पड़ा।
न्यूक्लियर फुटबॉल की पॉवर
अमेरिका के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि कोई निवर्तमान राष्ट्रपति नये राष्ट्रपति को न्यूक्लियर फुटबॉल और कोड दिये बिना व्हाइट हाउस छोड़ गया। डोनाल्ड ट्रंप ने जब व्हाइट हाउस छोड़ा, तो उन्होंने जो बाइडन को यह दोनों चीज़ें नहीं दीं। न्यूक्लियर लॉन्च कोड एक कार्ड पर लिखे होते हैं, जिसे बिस्किट भी कहते हैं। ये न्यूक्लियर बटन जैसी कोई चीज़ नहीं है। दरअसल अमेरिका में पुराने राष्ट्रपति के पद छोडऩे और नये राष्ट्रपति के शपथ लेने के साथ न्यूक्लियर पॉवर का भी ट्रांसफर होता है। दुनिया या दुश्मन को तबाह करने की ताकत नये राष्ट्रपति के पास आ जाती है। यह न्यूक्लियर पॉवर एक काले रंग के ब्रीफकेस में बन्द होती है। इसी को न्यूक्लियर फुटबॉल भी कहते हैं। राष्ट्रपति के पास दो न्यूक्लियर फुटबॉल और उसमें दो सेट न्यूक्लियर लॉन्च कोड रखे होते हैं। न्यूक्लियर कोड एक कार्ड पर लिखे होते हैं, जिसे न्यूक्लियर बिस्किट भी कहते हैं। ये दोनों चीज़ें अमेरिकी राष्ट्रपति के पास हर वक्त रहती हैं। फुटबॉल में परमाणु हमले के लिए कोड होते हैं, इसके ज़रिये ही अमेरिकी राष्ट्रपति पेंटागन को न्यूक्लियर हमले का आदेश दे सकते हैं। ये न्यूक्लियर कोड कभी भी राष्ट्रपति से अलग नहीं होता है, जब अमेरिका में नये राष्ट्रपति शपथ लेते हैं, तो उस दौरान ही ब्रीफकेस भी एक से दूसरे के पास चला जाता है। लेकिन ट्रंप बाइडन के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुए, लिहाज़ा नये राष्ट्रपति को न्यूक्लियर लॉन्च कोड ट्रांसफर नहीं किया और उनके साथ न्यूक्लियर फुटबॉल भी फ्लोरिडा चला गया। हालाँकि इसमें रखे न्यूक्लियर लॉन्च कोड दोपहर 12 बजे और बाइडेन के शपथ लेने के साथ ही डेड हो गये। इसके बाद बाइडन के लिए वॉशिंगटन डीसी के कैपिटल से न्यूक्लियर फुटबॉल और न्यूक्लियर लॉन्च कोड का दूसरा सेट आया, जिसे अमेरिकी सेना के कमांडर इन चीफ ने राष्ट्रपति जो बाइडेन को ट्रांसफर किया।
कहानी कमला हैरिस की
भारतीय मूल की कमला हैरिस के अमेरिका की पहली महिला और अश्वेत उप राष्ट्रपति बनने से दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को बेहतर करने को लेकर भारत में उन्हें बड़ी उम्मीद से देखा जा रहा है। बता दें डेमोक्रेट्स में कमला को ‘फीमेल ओबामा’ के नाम से भी पुकारा जाता है और हैरानी की बात यह है कि वह सीनेट की सदस्य भी पहली बार ही बनी हैं। नवम्बर के चुनाव में अपनी जीत के बाद हैरिस ने अपने सम्बोधन में भारत की अपनी पृष्ठभूमि के बारे में गर्व से बताया था। अपनी दिवंगत माँ श्यामला गोपालन, जो एक कैंसर शोधकर्ता और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता थीं; को याद करके कमला भावुक हुई थीं और कहा था कि माँ ने उनके राजनीतिक करियर में इस बड़े दिन के लिए उन्हें तैयार किया था। हैरिस 56 साल की हैं और उन्हें बेहिचक उपलब्धियों की खान कहा जा सकता है। वह सैन फ्रांसिस्को की डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी बनने वाली पहली महिला, पहली भारतवंशी और पहली अफ्रीकी अमेरिकी हैं। राष्ट्रपति बाइडन ने ही उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से उप राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में चुना था। दिलचस्प यह है कि एक ऐसा भी समय था, जब कमला हैरिस अपने प्रतिद्वंद्वी रहे बाइडन की कटु आलोचक थीं। हैरिस सीनेट के तीन एशियाई अमेरिकी सदस्यों में से एक हैं। कमला का जन्म 20 अक्टूबर, 1964 को हुआ। माँ श्यामला गोपालन सन् 1960 में भारत के तमिलनाडु से यूसी बर्कले पहुँची थीं, जबकि उनके पिता डोनाल्ड जे. हैरिस सन् 1961 में ब्रिटिश जमैका से इकोनॉमिक्स में स्नातक की पढ़ाई करने यूसी बर्कले आये थे। यहीं अध्ययन के दौरान दोनों की मुलाकात हुई और मानव अधिकार आन्दोलनों में भाग लेने के दौरान उन्होंने विवाह करने का फैसला कर लिया। हाई स्कूल के बाद हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने वाली कमला जब सात साल की थीं, तो उनके माता-पिता एक-दूसरे से अलग हो गये। कमला और उनकी छोटी बहन माया अपनी माँ के साथ रहीं और उन दोनों के जीवन पर माँ का बहुत प्रभाव रहा। हालाँकि वह दौर अश्वेत लोगों के लिए सहज नहीं था। कमला और माया की परवरिश के दौरान उनकी माँ ने दोनों को अपनी पृष्ठभूमि से जोड़े रखा और उन्हें अपनी साझा विरासत पर गर्व करना सिखाया। वह भारतीय संस्कृति से गहरे से जुड़ी रहीं। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन के बाद हैरिस ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की और सन् 2003 में वह सैन फ्रांसिस्को की शीर्ष अभियोजक बनीं। सन् 2010 में वह कैलिफोर्निया की अटॉर्नी बनने वाली पहली महिला और पहली अश्वेत व्यक्ति थीं; जबकि सन् 2017 में हैरिस कैलिफोर्निया से जूनियर अमेरिकी सीनेटर चुनी गयीं। कमला ने सन् 2014 में जब अपने साथी वकील डगलस एम्पहॉफ से विवाह किया, तो वह भारतीय-अफ्रीकी और अमेरिकी परम्परा के साथ-साथ यहूदी परम्परा से भी जुड़ गयीं। अब वह अमेरिका की उप राष्ट्रपति हैं और भारत को उन पर गर्व है।
ट्रंप बनाएँगे अपनी पार्टी!
डोनाल्ड ट्रंप जब व्हाइट हाउस छोड़कर फ्लोरिडा जा रहे थे, तब एयरपोर्ट पर अपने समर्थकों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही- ‘आप जल्दी ही हमें किसी और रूप में देखेंगे।’ इससे एक तो यह संकेत मिलता है कि राष्ट्रपति के अगले चुनाव के लिए ट्रंप हार की धूल झाड़कर जल्दी ही फिर सक्रिय होने की तैयारी में हैं। वास्तव में ट्रंप के यह कहने के क्या मायने थे? इसे लेकर अमेरिकी मीडिया में कुछ समय से छप रही रिपोट्र्स को भी देखना होगा। इन रिपोट्र्स में दावा किया गया है कि जिस तरह ट्रंप के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही हुई है और कैपिटल हिल में उनके समर्थकों ने जो किया, उससे रिपब्लिकन पार्टी में उन्हें अगली बार राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने का विरोध हो सकता है। ऐसे में दोबारा राष्ट्रपति बनने की जबरदस्त ख्वाहिश पाले ट्रंप अपनी ही पार्टी भी बना सकते हैं।
अमेरिकी मीडिया में तो इस नयी पार्टी का नाम तक बता दिया गया है। इसका नाम ‘पैट्रियाट पार्टी’ हो सकता है। ट्रंप ने अपने विदाई भाषण में समर्थकों से कहा था कि जिस आन्दोलन को हमने शुरू किया है, यह केवल शुरुआत है। ट्रंप के इस बयान के बाद अमेरिका में अटकलों का बाज़ार गरम है। उधर वॉल स्ट्रीट जनरल की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ट्रंप नयी पार्टी बनाने को लेकर समर्थकों से विचार-विमर्श कर चुके हैं। देखना होगा ट्रंप इसे लेकर कितनी गम्भीरता दिखाते हैं। ट्रंप यह तो कह ही चुके हैं कि वह राजनीति में बने रहेंगे और उनका आन्दोलन एक शुरुआत भर है। यहाँ यह बताना दिलचस्प है कि तमाम परम्पराओं को तोड़ते हुए ट्रंप बाइडन के शपथ ग्रहण के समय व्हाइट हाउस छोड़ चुके थे। रिपब्लिकन पार्टी में ट्रंप की घोषणाओं और उनके कदमों-बयानों से बेचैनी महसूस की जा रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक, रिपब्लिकन पार्टी एक बहुत बड़ा धड़ा ट्रंप के साथ है और उनके उग्र राष्ट्रवाद के एजेंडे से सहमत है। जबकि दूसरा धड़ा इसे अलगाववादी एजेंडा मानता है। कैपिटल हिल में हिंसा के बाद रिपब्लिकन पार्टी के नेता मिट मैकॉनल ने ट्रंप पर आरोप लगाया था कि उन्होंने ही अपने समर्थकों को उकसाया। भीड़ के दिमाग में झूठ भरा। यहाँ यह बताना भी बहुत ज़रूरी है कि ट्रंप के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर जब निचले सदन में मतदान हुआ था, तो ट्रंप की ही पार्टी रिपब्लिकन के 10 सांसदों ने ट्रंप के खिलाफ मतदान किया था। फिलहाल रिपब्लिकन पार्टी में मिट मैकॉनल अपनी स्थिति मज़बूत करने में जुटे हैं, जो ट्रंप के बाद पार्टी में सबसे ज़्यादा प्रभावशाली नेता हैं।