यह बहुत दिलचस्प संयोग है कि इमरजेंसी के दौरान संजय गाँधी की जिस नसबंदी योजना ने इंदिरा गाँधी की सत्ता छीन ली, आज वही नसबंदी योजना जनसंख्या नियंत्रण के रूप में उस भाजपा के एजेंडे का एक बड़ा हिस्सा बनने की तैयारी में दिखती है, जिसके नेताओं ने तब जनता पार्टी के नेताओं के रूप में इमरजेंसी की नसबंदी का मुखर विरोध कर सत्ता हासिल की थी। यह भी संयोग ही है कि इमरजेंसी के ही दौरान 1976 में देश की संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में व्यापक चर्चा के बाद 42वाँ संविधान संशोधन विधेयक पास हुआ और संविधान की सातवीं अनुसूची की तीसरी समवर्ती सूची में जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन वाक्य जोड़ा गया। इस संविधान संशोधन में केंद्र और राज्य सरकारों को जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया।
िफलहाल अब तक इस तरह के किसी प्रभावी जनसँख्या नियंत्रण कानून का इंतज़ार है। संजय गाँधी का एक अच्छा अभियान इसलिए बड़ी आलोचना का कारण बना, क्योंकि इसे मनमाने और दमनकारी तरीके से लागू किया गया। आपातकाल के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नसबंदी की आलोचना में एक कविता भी लिखी थी जो इस तरह है- ‘आओ मर्दो, नामर्द बनो।’ अब बहुत चर्चा है कि मोदी शासित एनडीए सरकार जल्द ही जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून ला सकती है।
हाँ, यह भी अवश्य एक बड़ा सत्य है कि देश में छोटे परिवार का चिन्तन वास्तव में संजय गाँधी की योजना के बाद ही पैदा हुआ और जनता ने इसका महत्त्व समझ छोटा परिवार अपनाना शुरू किया। अब करीब 45 साल बाद राजनीतिक िफज़ा में फिर जनसंख्या नियंत्रण की चिन्ता उभरी है। दो ही बच्चे का नारा फिर सुनाई देने लगा है। सच है कि देश में अब जनसंख्या पर नियंत्रण की ज़रूरत बहुत तेज़ी से महसूस की जाने लगी है।
कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघ चालक मोहन भागवत बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा कि राम मंदिर के बाद देश में दो बच्चों का कानून लाना अगला कदम होगा, ताकि जनसंख्या वृद्धि पर रोक लग सके। संघ प्रमुख ने ये भी कहा कि संघ अब देश में दो बच्चों वाले कानून के लिए जागरूकता अभियान चलायेगा और संघ इसके लिए कानून बनाये जाने के लिए प्रयास करेगा। मोहन भागवत ने जनसंख्या नियंत्रण कानून को लेकर टू चाइल्ड पॉलिसी को अपना समर्थन दे दिया है।
संघ प्रमुख के ब्यान के बाद अब सुगबुगाहट है कि मोदी सरकार आने वाले समय में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कोर्ई विधेयक ला सकती है। भाजपा नेता इस विषय पर लगातार बयानबाज़ी करते रहे हैं। खासकर, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह इस मसले पर बहुत मुखर दिखते हैं। खुद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में जनसंख्या नियंत्रण पर ज़ोर देते रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस सहित विपक्ष के नेता भी छोटे परिवार के समर्थक न रहे हों। एक से ज़्यादा बार वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी चिदंबरम प्रधानमंत्री के जनसंख्या नियंत्रण वाले बयान का स्वागत कर कह चुके हैं कि इसे जन आंदोलन बनाया जाना चाहिए।
देश में बहुत से जानकार मानते हैं कि जनसंख्या नियंत्रण का सम्भावित कानून भी सीएए, एनसीआर से जुड़ा भाजपा के एजंडे का हिस्सा है और इसे जल्दी ही लाया जा सकता है। देश के आमजन में भी कम आबादी को लेकर कोर्ई दुविधा नहीं दिखती, लेकिन भाजपा के इसे लागू करने के तरीके को लेकर आशंकाएँ हैं। बहुत से लोगों को लगता है कि मोदी सरकार का ऐसा कानून लाने का असल मकसद ईमानदारी से जनसंख्या नियंत्रण करने से ज़्यादा मुस्लिम आबादी को टारगेट करने वाला ज़्यादा होगा।
देश में दोनों, राजनीतिक और गैर-राजनीतिक, भाजपा विरोधियों में यह आम धारणा बनी है कि वर्तमान सरकार मुस्लिमों को टारगेट करने वाले कानून लेकर आ रही है। हालाँकि, भाजपा और सरकार समर्थक इस धारणा को बिल्कुल गलत मानते हैं। उनका कहना है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश में जो परिवर्तन आ रहे हैं, लोग उसके आदि नहीं, लिहाज़ा उन्हें यह हिन्दू समर्थक या मुस्लिम विरोधी कदम लगते हैं, जो सच नहीं है।
दिल्ली में अपना कारोबार करने वाले देवेंद्र भाटिया कहते हैं कि देश एक ढर्रे पर चलने का आदी हो गया था। लिहाज़ा एक प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जो कर रहे हैं, वह उन्हें (विरोधियों को) पच नहीं रहा; क्योंकि वो हर परिवर्तन को हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखना चाहते हैं। आप लिख लीजिए, जो आज हो रहा है उसके सकारात्मक नतीजे आने वाले वर्र्षों में देश देखेगा। आबादी नियंत्रण भी इनमें से एक होगा। हम चाहते हैं कि इस पर कानून लाया जाए, क्योंकि देश और जनता के भले के लिए इसकी सख्त ज़रूरत है।
लेकिन दिल्ली में ही काम करने वाले बंगाल के मोहम्मद कसूरी इसके विपरीत विचार रखते हैं। वे कहते हैं कि इसमें कोर्ई शक ही नहीं बचा है कि भाजपा ध्रुवीकरण के लिए मुस्लिमों को टारगेट कर रही है। हाल के तमाम कानून मुस्लिमों को परेशान करने के लिए लाये गये हैं। आज की तारीख में वे अपने ही मुल्क में पराया सा महसूस करने लगे हैं। कोर्ई भी कानून जब थोपा जाएगा तो उससे कोई-न-कोई प्रताडि़त होगा ही। यही यह सरकार कर रही है। जनसंख्या का कानून भी इसका अवपाद नहीं होगा।
इन सब आशंकाओं को देखते हुए बहुत से बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि कोई सख्त कानून लाने से ज़्यादा बेहतर तरीका बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाना हो सकता है। इससे किसी खास समुदाय के मन में आशंका की धारणा भी नहीं बनेगी और असल मकसद भी हल होगा, भले इसमें समय कुछ ज़्यादा लगे।
हाल के दशकों में लोगों ने जिस तरह छोटे परिवार का रास्ता अपनाया है, उससे बहुत उत्साह वाले संकेत मिलते हैं और एक सफल जागरूकता अभियान पूरी तस्वीर बिना कानून के बदल सकता है। वैसे तो स्कूली कोर्स में भी छोटे परिवार या जनसंख्या वृद्धि पर अध्याय हैं, लेकिन समाज को बदलने वाला जागरूकता अभियान ज़्यादा बेहतर विकल्प होगा।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद का कहना है कि देश के युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आबादी नियंत्रित करने की सख्त ज़रूरत है। प्रसाद के मुताबिक समय आ गया है कि देश में दो बच्चों के मानक पर व्यापक बहस होनी चाहिए। प्रसाद ने कहा कि 1998 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के पंचमढ़ी शिविर के मंथन सत्र में जनसंख्या नियंत्रण की ज़रूरत पर बाकायदा एक प्रस्ताव पारित किया गया था और इस दिशा में दो बच्चों का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में काम करने का संकल्प किया गया था। उनके मुताबिक, इस प्रस्ताव में कहा गया था कि ये वक्त भारत को संवेदनशील और जनसंख्या नियंत्रण और स्थिरीकरण को लेकर जागरूक बनाने का है।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून की माँग करने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में बाकायदा एक याचिका भी दायर की गयी है। इस याचिका पर सर्वोच्च अदालत केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर चुकी है। इस याचिका में कहा गया है कि बढ़ती आबादी के चलते लोगों को बुनियादी सुविधाएँ मुहैया नहीं हो पा रही हैं। संविधान में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनाने का अधिकार सरकार को दिया गया है, इसके बावजूद अब तक सरकारें इससे बचती रही हैं।
अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने उनसे कहा था कि उन्हें याचिका हाईकोर्ट में रखनी चाहिए। लेकिन उनका जवाब था कि उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका डाली थी और हाई कोर्ट ने यह कहकर उसे खारिज कर दिया कि कानून बनाने पर विचार करना सरकार का काम है। कोर्ट इसका आदेश नहीं देगा। उनके इस तर्क के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर याचिका पर जवाब देने को कह दिया। जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून के समर्थक कहते हैं कि ज़्यादा जनसंख्या संसाधनों पर भारी पड़ रही है। देश का मानव विकास सूचकांक, प्रति व्यक्ति आय और हैप्पीनेस सूचकांक इसके गवाह हैं। उनको यह भी भय है कि आबादी की रफ्तार आने वाले दशकों में देश में अनाज की बड़ी िकल्लत पैदा कर सकती है और भारत को अनाज के लिए दूसरे देशों पर निर्भर होने जैसी गम्भीर स्थिति झेलनी पड़ सकती है। भारतीय भूभाग और भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिहाज़ भारत पहले ही जनसंख्या विस्फोट का शिकार होने की स्थिति में पहुँच चुका है। देश की एक बड़ी आबादी में बच्चों को पालने का ज़िम्मा एक तरह से सरकारों पर आ चुका है। कुपोषण ने भी हज़ारों बच्चों की जान ली है।
वैसे हाल में मोदी सरकार की तरफ से लाये गये नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) को जनसंख्या निंयत्रण कानून उठाये गये पहले कदम के रूप में देखा जा रहा है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसे 2019 के आिखरी महीने में मंज़ूरी दे दी है। वैसे यूपीए के दूसरे कार्यकाल के दूसरे साल में ही 2010 में भी एनपीआर लाया गया था। एक साल बाद 2011 में हुई जनगणना के लिए एनपीआर का फॉर्म भारतीय नागरिकों से भरवाया गया था। हालाँकि, मोदी सरकार ने एनपीए को लेकर लोगों, खासकर मुस्लिम समुदाय, में बहुत-सी आशंकाएँ हैं। मंत्रिमंडल के एनपीआर को मंज़ूर करने के बाद जनगणना आयोग ने कहा था कि इस एनपीआर का उद्देश्य देश के प्रत्येक सामान्य निवासी का एक व्यापक पहचान डाटाबेस तैयार करना है। इस साल अप्रैल से सितंबर के बीच होने वाली इस जनगणना पर करीब 8,500 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है।
समस्यायों की जड़ आबादी
इसमें कोई दो राय नहीं कि बड़ी आबादी किसी भी देश के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं। यह एक स्थापित सत्य है कि कम आबादी वाले देशों ने ज़्यादा गति से विकास किया है और वहाँ जन समस्याएँ भी बहुत कम हैं। बड़ी आबादी से न केवल बेरोज़गारी नियंत्रण में मुश्किल आयी है, बल्कि स्वास्थ्य योजनाओं से लेकर शिक्षा पर इसका विपरीत असर पड़ा है।
यह देखा गया है कि पिछले चार दशक से, जब से परिवार नियोजन शुरू हुआ है; छोटे परिवारों का चलन धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा। आज वो परिवार ज़्यादा बेहतर आर्थिक स्थिति में हैं, जहाँ परिवार छोटा है। वे न केवल बेहतर शिक्षा हासिल कर पाये हैं, बल्कि स्वास्थ्य इंडेक्स में भी बेहतर पायदान पर हैं। देश में बहुत से ऐसे मुस्लिम परिवार हैं, जहाँ छोटे परिवार हैं। परिवार में एक बेटा ज़रूर होने की धारणा भी अब घटी है और बहुत से ऐसे परिवार हैं, जहाँ दो बेटियों के बाद और बच्चे पैदा नहीं किये गये या परिवार नियोजन अपना लिया गया। हमारे देश में साल 1950 में महिलाओं की औसत प्रजनन दर छ: के आसपास थी, जो हाल के वर्षों में 2.2 हो गयी है, जिससे ज़ाहिर होता है कि देश में लोग इस ज्वंलत समस्या के प्रति काफी जागरूक हुए हैं। हालाँकि, देश में प्रजनन दर अब भी 2.1 के औसत प्रतिस्थापन दर (एआरआर) तक नहीं पहुँच सकी है। एआरआर प्रजनन क्षमता का वो स्तर माना जाता है, जिस पर एक आबादी खुद को पूरी तरह से एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में बदल देती है। लेकिन ज़्यादा जागरूकता भारत को इस लक्ष्य तक पहुँचा सकती है।
बड़ी आबादी का सबसे नकारात्मक पहलू भुखमरी है। ज़्यादा जनसंख्या में सबसे बड़ा संकट लोगों का पेट भरना है। भारत भी इसे बड़े पैमाने पर झेल रहा है। देश में ऐसे बहुत से इलाके हैं, जो दशकों से भुखमरी से पीडि़त हैं। जानकार मानते हैं कि आबादी नियंत्रण से इस समस्या पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।
एक दिन में 67,000 जन्म
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि 2020 के पहले दिन भारत में 67,385 बच्चों का जन्म हुआ। इसके बाद पड़ोसी चीन का नम्बर है, जो खुद भारत की तरह जनसंख्या विस्फोट की चुनौतियाँ झेल रहा है। चीन में पहली जनवरी को भारत से करीब 20,000 काम यानी 46,299 बच्चे पैदा हुए। उसके बाद नाइजीरिया में 26,039, पाकिस्तान में 16,787, इंडोनेशिया में 13,020, अमेरिका में 10,247, कॉन्गो में 10,247 और इथोपिया में 8,493 बच्चे पैदा हुए। इन आँकड़ों से दुनिया, खासकर भारत में आबादी की गति का अनुमान लगाया जा सकता है। भारत में जन्म लेने वाले बच्चों का यह आँकड़ा अस्पतालों में दर्ज डाटा का है और हो सकता है असल में कुल संख्या ज़्यादा हो।(साभार : यूनिसेफ)
देश को दो बच्चों के कानून की ज़रूरत है। संघ का अगला कदम देश में दो बच्चों का कानून लाने के लिए होगा, जिस से जनसंख्या वृद्धि पर रोक लग सके। संघ देश भर में दो बच्चों वाले कानून के लिए जागरूकता अभियान चलायेगा और इसके लिए कानून बनाये जाने का प्रयास करेगा।
मोहन भागवत, आरएसएस प्रमुख
देश की बढ़ती हुई जनसंख्या एक विस्फोटक समस्या बन गयी है। अब तो सभी लोग इसे स्वीकारने भी लगे हैं। जनसंख्या नियंत्रण विकास और सामाजिक समरसता के लिए जरूरी है। इसे किसी धार्मिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए।
गिरिराज सिंह, केंद्रीय मंत्री
मुस्लिम महिलाओं में घट रही प्रजनन दर
देश की बड़ी आबादी के लिए मुस्लिम परिवारों में ज़्यादा बच्चों का होना भी माना जाता रहा है। हालाँकि, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के नये सर्वेक्षण के मुताबिक मुस्लिम महिलाओं की 1992-93 की 4.4 की प्रजनन दर 1998-99 में कम होकर 3.6 रह गयी और 2015-16 में यह और घटकर 2.6 रह गयी, जिसे बहुत अच्छा संकेत माना जाएगा। हिन्दुओं के मुकाबले मुस्लिम महिलाओं में जो प्रजनन दर हमेशा से ज़्यादा रही थी; वह अंतर अब घट रहा है। साल 1992-93 में हिन्दू और मुस्लिमों में प्रजनन दर में 1.1 बच्चे का अंतर था, अर्थात् एक मुसलमान महिला एक हिन्दू के मुकाबले 33 फीसदी ज़्यादा बच्चे पैदा करती थी। ये अन्तर 2015-16 में घटकर .5 रह गया, अर्थात् आज एक हिन्दू महिला के मुकाबले एक मुसलमान महिला 23.8 फीसदी ज़्यादा बच्चे पैदा करती है। सर्वेक्षण के अनुसार माँ बनने की उम्र बढ़ाकर और दो बच्चों के बीच अन्तर को बढ़ाकर भारत में प्रजनन दर को कम करने में मदद मिली है। साल 1992-93 में हिन्दुओं में माँ बनने की औसत आयु 19.4 साल, जबकि मुस्लिम महिला 18.7 साल की उम्र में माँ बन जाती थी। साल 2015-16 में हिन्दुओं की औसत उम्र 21 साल तक पहुँच गयी, तो मुस्लिम महिलाओं ने भी माँ बनने का 20.6 साल का स्तर हासिल किया। दो बच्चों के बीच अंतराल तो मुस्लिमों में थोड़ा बेहतर दिखा है। साल 2005-06 में में हिन्दू महिलाएँ दो बच्चों में औसतन 31.1 महीने का अन्तर रखती थीं, जबकि मुस्लिम महिलाओं में यह अन्तर 30.8 महीने का था; लेकिन साल 2015-16 में हिन्दू महिलाएँ 31.9 महीने का अन्तर रखने लगीं तो मुस्लिम महिलाओं में ये अंतराल 32 महीने हो गया। इस तरह यह अंतराल हिन्दू महिलाओं में 2.5 फीसदी तो मुस्लिम महिलाओं में 3.75 फीसदी बढ़ा है।
जनसंख्या कानून को लेकर याचिका
जनसंख्या नियंत्रण पर कानून की माँग करके सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि भारत में दुनिया की कुल कृषि भूमि का दो फीसदी और पेयजल का चार फीसदी है, जबकि आबादी पूरी दुनिया की लगभग 20 फीसदी है। ज़्यादा आबादी के चलते लोगों को आहार, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित होना पड़ रहा है। यह सीधे-सीधे सम्मान के साथ जीवन जीने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। आबादी पर नियंत्रण पाने से लोगों के कल्याण के लिए बनी तमाम सरकारी योजनाओं को लागू करना आसान हो जाएगा। इसके बावजूद सरकारें जनसंख्या नियंत्रण पर कोई कानून नहीं बनाती हैं।
याचिका में कहा गया है कि 1976 में किये गये संविधान के 42वें संशोधन में जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने का अधिकार सरकार को दिया गया था। इस अधिकार को सातवीं अनुसूची में जगह दी गयी थी। यह समवर्ती सूची में है यानी केंद्र या राज्य सरकार, दोनों इस पर कानून बना सकते हैं। लेकिन किसी ने भी ऐसा नहीं किया है। कोर्ट में दलील रखते हुए याचिकाकर्ता ने कहा कि जनसंख्या वृद्धि विस्फोटक स्तर पर जा चुकी है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, अब तक 125 करोड़ लोगों का आधार कार्ड बन चुका है। करीब 25 करोड़ लोग अभी भी आधार से वंचित हैं। इस तरह से भारत की आबादी करीब 150 करोड़ हो गयी है। इनमें से 5 करोड़ लोग बांग्लादेश या म्यांमार से आये हुए अवैध घुसपैठिये हैं। लेकिन जनसंख्या नियंत्रण देश की नीति बनाने वालों की प्राथमिकता में कहीं नज़र नहीं आता। याचिकाकर्ता भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने कोर्ट को यह भी बताया कि 2002 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश एमएम वेंकटचलैया के नेतृत्व में बने संविधान समीक्षा आयोग ने भी संविधान के नीति निदेशक सिद्धांतों में अनुच्छेद-47 (ए) को जोडऩे की सिफारिश की थी। इसमें आबादी पर नियंत्रण की कोशिश को सरकार का दायित्व बताया जाना था। उसके बाद से कई संविधान संशोधन हुए, लेकिन इस सुझाव को कहीं जगह नहीं मिली।