मुझे छपने वाले साहित्य की दुनिया में सक्रिय हुए बमुश्किल ढाई-तीन साल हुए होंगे और करना चाहें तो आप मेरी सब बातों को कम अनुभव कहकर खारिज कर सकते हैं लेकिन यह तो शायद आप मानेंगे ही कि यह बताने के लिए पूरा समुद्र पीने की जरूरत नहीं होती कि उसके पानी का स्वाद कैसा है.
मैं शुरू से शुरू न करके बीच की एक दोपहर से शुरू करता हूं. तब मैं उतना नया नहीं था, जैसा नये स्कूल में दाखिले के वक्त बच्चे होते हैं. एक-दो कहानियां छप चुकी थीं और कोई पूछता था तो मैं उनके नाम गर्व से बताता था (अब भी बताता हूं). दिल्ली के प्रेस क्लब में मैं अपने एक साथी लेखक के साथ एक वरिष्ठ कवि और अनुवादक के सामने बैठा था. हम दोनों के लिए यह थोड़े से सौभाग्य वाली मुलाकात तो थी ही. वे थोड़ा देर से आए और आकर बताने लगे कि उन्होंने जो फिल्म लिखी है, उसे आमिर खान खरीदना चाहता था पर उन्होंने बेची नहीं. ऐसी ही दो-तीन बातों के बीच अचानक उन्होंने मुझसे पूछा- तुम राजपूत हो क्या? हिंदी का एक बड़ा कवि पहली ही मुलाकात में एक नये लेखक से यह नहीं जानना चाहता था कि वह क्या लिखता है और क्यों लिखता है, बल्कि यह कि उसकी जाति क्या है. वे सब लोग, जो अपनी कहानियों-कविताओं में हर अल्पसंख्यक और शोषित के लिए दुखी होते हैं, बहुत मुमकिन है कि अपनी पत्रिकाओं में छपने के लिए आने वाली कुछ रचनाएं सिर्फ इसीलिए रद्दी में फेंक देते हों कि उन्हें लिखने वालों के उपनाम उनकी आंखों को नहीं सुहाते.
जब आप मनुष्य को बचाने की चिंता में पूरी कहानी में मरे जाते हैं, तब वे कुछ आलंकारिक शब्दों से बने वाक्य में आपको मनुष्यविरोधी बताते हैं और हंस देते हैं
हिंदी में लेखक बनने का रास्ता कुछ अलग-सा ही है, जिसकी खोज जाने किस विद्वान ने की. यहां वह रास्ता लगभग नहीं के बराबर है कि आप कुछ महीने या साल लगाकर एक अच्छी किताब लिखें और फिर किसी प्रकाशक से जाकर मिलें. वहां कोई हो, जो उसकी गुणवत्ता देखकर तय करे कि उसे छापा जाना चाहिए या नहीं. अव्वल तो कोई आपसे मिलेगा ही नहीं, जब तक कि आप कोई आईएएस अधिकारी या उसके रिश्तेदार या कोई पहुंच वाले व्यक्ति नहीं हैं या आपको हिंदी के किसी गॉडफादर ने उनके पास नहीं भेजा है.
जो शुरुआत मैंने शुरू में नहीं बताई, वह यही थी. चार-पांच साल पहले की एक जून में मैं एक किताब की पांडुलिपि लेकर इस उम्मीद में दरियागंज में घूम रहा था कि कोई इसके दो पेज भी पढ़ ले तो छापने को तैयार हो जाएगा. लेकिन किसी ने नहीं पढ़ा. मुझे सलाह दी गई कि इकलौता दरवाजा यही है कि आप पहले पत्रिकाओं में छपें. तभी आपकी किताब छपेगी. यानी पहले पत्रिकाओं के संपादक आपको पास करेंगे और सिफारिश करेंगे, तब आप इस लायक होंगे कि आप प्रकाशक का दरवाजा खटखटाएं तो वह ‘कम इन’ बोले.
लेकिन पत्रिकाओं में भी जब तक आप पहली बार नहीं छपते, तब तक भले ही आपने गोदान लिख दी हो, आपको रचना भेजकर अनंत धैर्य का कोई मंत्र पढ़ना होता है. बार-बार पत्रिका के दफ्तर में फोन करके अपनी रचना की स्थिति पूछनी होती है, हर बार अपना परिचय देना होता है और कभी-कभी अपमानित भी होना होता है. पिछले दिनों कोलकाता से छपने वाली एक नामी साहित्यिक पत्रिका के संपादक को फोन करके जब मैंने पूछा कि जो कविताएं मैंने पिछले महीने भेजी थी, क्या आपने पढ़ीं, तो उन्होंने कहा कि देखिए, आप कविताएं मत भेजा कीजिए, मेरे बहुत-से कवि दोस्त हैं, वही बहुत कविताएं भेज देते हैं. कितना अच्छा होता कि यही छोटा-सा नोट वे अपनी पत्रिका के संपादकीय के नीचे भी लगा दिया करते कि उनकी पत्रिका का कविता वाला सेक्शन उनके दोस्तों के लिए आरक्षित है!
पिछले साल ‘तहलका’ का साहित्यिक विशेषांक छपने के दौरान और बाद में हम सबने ऐसी कुछ चीजें देखीं जिनसे और ठीक से मालूम हुआ कि ज्यादातर युवा लेखक साहित्य की पूरी राजनीति से कितने खौफजदा हैं और उनमें से कुछ तो उन सिंहासनों के पाए ही बनते जा रहे हैं, ताकि बाद में उन पर बैठ सकें. विशेषांक के एक लेख में कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने युवा लेखकों को जी भर के कोसा था और बहुत नस्लवादी किस्म के बयानों में ऐसे अर्थ का कुछ कहा था कि युवा लेखक होने का मतलब है बुरा और बाजारू लेखक होना. उस लेख के लिए हमें कुछ युवा लेखकों की प्रतिक्रियाओं की भी जरूरत थी, लेकिन जब मैंने कुछ युवा साथियों से कहा कि अमुक महाशय के फलां बयान पर आपकी प्रतिक्रिया चाहिए तो वे बिल्कुल खामोश हो गए.
खेल कई परतों में चलता है. जब आप मनुष्य को बचाने की चिंता में पूरी कहानी में मरे जाते हैं, तब वे कुछ आलंकारिक शब्दों से बने वाक्य में आपको मनुष्यविरोधी बताते हैं और हंस देते हैं. और हास्यास्पद यह है कि ‘सर’ इस बात से कम दुखी दिखते हैं कि तुमने खराब लिखा, इस बात पर ज़्यादा नाराज़ दिखते हैं कि तुम उन्हें कभी फोन क्यों नहीं करते, क्यों उनके चरणों में बैठकर अच्छा लिखने के गुर नहीं सीखते. वैसे तो आप वे सब आलोचनाएं कभी पढ़ेंगे नहीं और पढ़ेंगे भी तो भी जान नहीं पाएंगे कि लेखक की अमुक किताब इसलिए बुरी है क्योंकि उसने उन आलोचक महोदय का फोन दो बार नहीं उठाया.
ऐसा भी होता है कि आपके हाथ में किसी पत्रिका का संपादन है और आपने अपनी पत्रिका में किसी महत्वाकांक्षी संपादक की कहानी नहीं छापी तो उसने अपनी पत्रिका में प्रेस में जा चुकी आपकी कहानी को भी वहीं का वहीं रोक दिया और फिर महीनों बाद किसी और मुद्दे पर कोई और विचारोत्तेजक लेख लिखते हुए वह सिद्ध करता है कि आपका पूरा रचनाकर्म असामाजिक, अनैतिक और अ-सबकुछ है.
दरअसल अपने लेखकों को देने के लिए हिंदी साहित्य के पास ज्यादा कुछ तो है नहीं. पाठकों से वह दूर हो ही रहा है और कभी-कभी लगता है कि पत्रिकाएं, संपादक और प्रकाशक चाहते भी यही हैं. या तो वे ऐसा लिखते हैं, जो किसी के समझ नहीं आए या फिर व्यक्तिगत हाथापाई में उलझे रहते हैं. यही कहा जाने लगा है कि हिंदी में बस लेखक ही एक-दूसरे के पाठक हैं और पाठकों की यही कमी साहित्य के मठों को बनाने में मदद करती है. अगर हिंदी के पास इतने पाठक होते कि वे किसी लेखक को बनाने या गिराने का माद्दा रखते, तब कोई भी महापुरुष इतना शक्तिशाली न होता कि लेखक उसके दरबार में हाजिरी लगाएं. तब उनमें से किसी के पास भी ऐसे मौके न होते कि लेखिकाओं की कहानी बाद में पढ़ें, फोन करके उन्हें चाय पर पहले बुलाएं. (स्त्री-विमर्श के बहाने पर्सनल-विमर्श का इरादा रखने वाले कई मशहूर संपादकों की पत्रिकाओं में छपने के लिए कई बार स्त्री होना ही काफी होता है और इस पूरे सिस्टम में यकीन न करने वाली नयी लेखिकाएं भी वही दोयम व्यवहार झेलती हैं, जो नये लेखक झेलते हैं).
हिंदी साहित्य जो लोकप्रियता और पैसा अपने लेखकों को नहीं दे पाता, उसकी भरपाई वह पुरस्कारों, पदों और नौकरियों से करने की कोशिश करता है और यही सत्ता के खेल को ईंधन देता है. पुरस्कार जुगाड़ से ही मिलेंगे, यह इतना आम हो गया है कि आपको अपने काम की वज़ह से भी मिले, तब भी लोग आपको उसी नज़र से देखेंगे. पिछले दिनों कविता के लिए मिलने वाला भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार आदिवासी कवि अनुज लुगुन को मिला तो सारी खुशी इसी बात पर मनाई जा रही थी कि सवर्णों के वर्चस्व वाले हिंदी साहित्य में यह कैसे मुमकिन हुआ. यही बताता है कि स्थितियां कैसी हैं. दुखद यह भी है कि बहुत सारे प्रतिभावान लेखक, जो साहित्य की राजधानियों से दूर हैं (चाहे शरीर से, चाहे मन से) और साथ ही अपना काम आगे लाने में थोड़ा सकुचाते भी हैं, किसी को फुरसत नहीं कि कुर्सियों की बहसों के बीच उनके काम को भी देखा जाए और उनके संकोच के दायरों को तोड़कर उन्हें गले से लगाया जाए. जो भी पैसा, जहाँ से भी आता है, वह आप अपने खातों में रखिए, प्रोफेसरी की नौकरियां अपनी जाति वालों को दीजिए लेकिन उन्हें कम से कम वह पहचान तो दीजिए जिसके वे हकदार हैं और आपके चहेते नहीं हैं.
सुकून यह है कि आप इन चीजों को देखते हुए भी लगातार अपना अच्छा काम दे सकें तो कोई भी ऐसी दीवार नहीं, जिसे तोड़ा ना जा सके. यह कोई वैसी झूठी आशावादी बात नहीं है, जिससे लोग लेख का अंत करना अच्छा समझते हैं. आप गीता देंगे तो मैं उस पर हाथ रखकर भी यह कहने के लिए तैयार हूं. वे दियों को अनदेखा कर सकते हैं लेकिन लपटों को नहीं. धीमे बोलने से कोई नहीं सुनता और अगर आपको यकीन है कि आपके पास कहने को कोई नयी बात है तो तब तक चिल्लाइए, जब तक पूरी सभा आपकी बात सुनने को तैयार न हो जाए.
इंटरनेट हम सबके लिए बहुत पारदर्शी माध्यम है जहां आप सीधे पाठकों से जुड़ते हैं और वही आपके पुरस्कार हैं. पिछले कुछ दशकों में हिंदी साहित्य की पाठकों और समाज से जो दूरी बनी थी, उसे इंटरनेट कम कर रहा है. वहां आप और आपकी रचना हैं-निष्कवच, और आपकी तारीफ में संस्कृतनिष्ठ शब्दों में झूठे कसीदे पढ़ने वाले आलोचक और आपको फलाना कुमार स्मृति पुरस्कार दिलवाने वाले संपादक वहां आपको नहीं बचा सकते. मैदान साफ होता जा रहा है और नियम सबके लिए बराबर. आप भी आइए, फिर देखेंगे.