गाड़ी जा रही है। हम पांच आदमी गुमसुम बैठे हुए हैं। सभी के मन में एक जैसी सोच का कोहराम मचा हुआ है मगर जैसे सभी की ज़बान काठ की बनी हुई हो। चुप्पी का प्रेत मंडरा रहा है। किसी के हिलने की आवाज़ भी नहीं आती।
इस रास्ते से हम पहले भी कई बार गुजऱे हैं। मगर पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। हम सभी पैंतीस-चालीस की उम्र वाले दो-दो, तीन-तीन बच्चों के बाप हैं। अगर कोई बंद कमरे में इक_े बैठ हमारी बातें सुने तो हमारी उम्र तथा गृहस्थी की किसी जिम्मेवारी के बोझ का एहसास तक न कर पाए। छोटी-छोटी बेमकसद सी बातें। हंसी-ठहाके। शायद हमारी खुशी का राज़ ही इस बात में हो कि हमारी महफि़लें निरूद्देश्य ही लगती हैं, फिर बातों में से बातों का सिरा आगे बढ़ता जाता है। न आदि याद रहता है न अंत की चिंता।
पिछली बार छह महीने पहले इस कार में हम भाई के गांव गए थे। स्टेयरिंग पर बैठे रमन के मुंह से अनायास ही एक फिज़ूल से गीत की भौंडी सी पंक्ति निकल गई,”गंगाराम की समझ में न आए।’’ फिर क्या था, सभी के कान खड़े हो गए। जबानें चलने लगी। इस पंक्ति को फिर अनेक सुरों में सामूहिक गायन किया गया। अंतरा किसी को आता नहीं था। बगल में बैठे चरन ने कई ऊल-ज़लूल पंक्तियां गढ़ ली। जिनमें अपनी ही मूर्खता का मज़ाक उड़ाया गया था। वह कवि-दरबार इतना कामयाब रहा कि सौ मील का रास्ता पलक झपकते ही ख़त्म हो गया।
…मगर आज जैसे हमारी ज़बान के साथ पत्थर और गाड़ी के पहियों के साथ पर्वत बंधे हुए थे। सफऱ है कि राम-राम कर, भाई के गांव शाम ढले पहुंचे। आंगन लोगों से भरा हुआ था। तिल रखने की जगह नहीं थी। इतने ग़मगीन चेहरे। एक घिसी हुई खेस लपेटे भाई दीवार से टेक लगाए बैठा है। शिथिल और निढ़ाल। क्षण भर के लिए उसकी लाल-सुर्ख आँखें हमारी और उठती हैं और बाढ़ की तरह बहने लगती है। हम चुपचाप उसके पास बैठ जाते हैं। कृपाल ने भाई के कंधे पर हाथ रखा। वह उसकी गोद में लुढ़क गया। हिचकियाँ तेज़ हो जाती हैं। सभी दहाडें़ मारने लगते हैं। हमें शायद कोई ढाढ़स बँधाने की बात करनी चाहिए। मगर अंदर से स्त्रोत ही ख़त्म हो गए लगते हैं। इतनी हिम्मत कहां से लाएं।
अंदर से रोने-धोने की आवाज़ें आ रही हैं। हृदय छलनी हुआ जा रहा है। कई आदमी आ-जा रहे हैं।
शाम हो गई है। कृपाल को कोई बात सूझी है। उसने उठकर दरी का एक किनारा मोड़ दिया है। गाँव के सयाने लोग समझ गए हैं। सूरज डूबने के बाद अफसोस करने का वक़्त ख़त्म हो जाता है। सभी लोग धीरे-धीरे जाने लगे हैं। आँगन में भाई और हम कुछ गऱीब लोग ही रह गए हैं।
थोड़ा अँधेरा होने पर मैं और रमन गाँव के पिछवाड़े में जाते हैं। कार की डिग्गी में से तीन टिफिन निकाल लाते हैं। दो टिफिन औरतों के दालान में रख आते हैं और एक अपने कमरे में लाकर खोलते हैं। कोई भी खाने की तरफ देखता नहीं हैं मिन्नत कर भाई को कुछ निवाले खाने के लिए मज़बूर करते हैं, मगर निवाला उसके गले से नीचे उतरता नहीं है।
कृपाल कोई न कोई बात करने का यत्न करता है।
”भाई जी, यह हादसा हुआ कैसे?’’
भाई को खुद भी विस्तार से कुछ भी मालूम नहीं। वह जेब से तह की हुई टेलीग्राम निकालता है। तार पर सिर्फ यह शब्द लिखे हैं,”फ़्लाइट लेफ़्िटनेंट निर्मल सिंह जम्मू कश्मीर क्षेत्र में दुश्मनों के विरूद्ध लड़ते हुए वीरगति प्राप्त कर गए हैं।’’ तार कृपाल के हाथ में ही रह जाती है।
मैं उससे टेलीग्राम लेकर पढ़ता हँू। आँखों पर यकीन नहीं आता। निर्मल का बांका चेहरा मेरी आँखों के सामने उभर आता है। लंबा-ऊँचा, छैल-छबीला नौजवान। देखते हुए आँख नहीं भरती थी। एक साल पहले मैं और भाई उसे जीता के लिए देखने गए थे और उसे देखते ही मोहित हो गए थे। क़द-काठ व रंग-रूप से एकदम जीता के लायक। वापस आते समय हम प्रसन्न थे। भाई के सिर से मानों बोझ उतर गया हो।
जीता परिवार में सबसे छोटी थी और शरारती भी थी। भाई से पूरे पंद्रह बरस छोटी थी। रिश्ते में वह बेशक़ भाई की बहन थी, मगर उसने उसे बेटी की तरह पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया था।
तब भाई को अपने पुश्तैनी गाँव से इस दूर-दराज़ इलाके में आए अभी तीन ही वर्ष हुए थे। उसने अपनी पुश्तैनी ज़मीन महँगे दाम में बेचकर यहाँ काफ़ी बड़ा फार्म हाउस खरीद लिया था। इन तीन वर्षों में वह मिट्टी संग मिट्टी होता रहा था। दिन का अधिकतर हिस्सा उसका ट्रैक्टर पर बैठे ही बीतता था। उसने अपने खेतों को समतल किया। दो टयूबवैल लगवाए। पिछले वर्ष उसके लहराते खेतों की ओर देखकर इस इलाके के किसानों ने दाँतों तले उँगली दबा ली थी। फसल अच्छी हुई थी और भाव भी अच्छा मिल गया था।
ये तीन वर्ष भाई ने अपने बाल-बच्चों के साथ कच्चे कमरों में संन्यासियों की तरह गुज़ारे थे। इस बार उसका हाथ थोड़ा खुला था। इस साल उसका इरादा सुंदर मकान बनवाने का था। इस संबंध में सलाह-मशविरे के लिए उसने मुझे बुला भेजा था और अचानक ही किसी दोस्त ने निर्मल के लिए बताया था। लड़का देखकर भाई ने मकान बनवाने की योजना फि़लहाल के लिए स्थगित कर दी थी। अच्छे लड़के वैसे भी मुश्किल से ही मिलते हैं। इसलिए उसने फ़ैसला किया कि वह पहले जीता का विवाह करेगा। मकान का क्या है, फिर बन जाएगा। जहाँ तीन वर्ष बीते वहां कुछ साल और सही।
निर्मल साधारण किसान-परिवार से था। वह अपनी मेहनत तथा लियाकत के बलबूते पर अपनी मौजूदा पदवी पर पहुंचा था। भाई का विचार था कि एक बार जीता का घर सारी ज़रूरत भरी चीज़ों से बना दिया जाए। आराम से दिन बिताने लायक तनख्वाह उसे मिल ही जाती थीं।
विवाह के पूरे तीन दिन पहले हम सभी भाई के गाँव पहँुच गए थे। शहर से दस मील दूर इस गाँव के माहौल को देखकर सचमुच में जंगल में मंगल का एहसास होता था। खुले से आँगन में शामियाना, छौलपरियाँ और दंग-बिरंगी दरियां बिछी हुई। देसी दारू पी कर हम जल्दी-जल्दी काम भी ख़त्म कर रहे थे और साथ में छेड़छाड़ भी करते रहे थे।
घर शादी के सामान से ठँुसा हुआ लग रहा था। एक ओर शामियाना लगाकर भ_ी लगाई गई थी। कमरा मीट, मुर्गे, तितर-बटेर और खाने-पीने की अनेक चीज़ों से भरा हुआ था। निर्मल की बारात में, उसके अफसर आने वाले थे, इसलिए भी उनकी ख़ातिरदारी में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते थे। विभिन्न पकवान अपनी सुगंध बिखेर रहे थे। रसद-पानी सँभालने के लिए कोई बंद कमरा नहीं था, बाहर कुत्तों की भीड़ घूम-फिर रही थी। हमारे सो जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। दारू का आलम था। नशा खिला हुआ था। मैं लाठी लेकर बाहर आया। ज़ोर से दहाड़ा। कुत्ते सारे भाग गए।
सामने खूँटी पर ढोलकी लटकी देख मेरे पैर नाचने के लिए बेताब होने लगे। सीने में गीत भी मचलने लगे। ढोलकी गले में डाल, मैंने ननिहाल वालों को ललकारा। सभी औरतें अनमने भाव से लेटी हुई थीं। पल में सभी इक_े हो गए। औरतों ने गिद्दा डाला। शहर से आई जीता की सहेलियाँ भी खूब नाची। कुछ की तो आवाज़ ही बैठ गई, मगर कोई भी नाचना नहीं छोड़ रही थी। लड़के-लड़कियों की टोली के बीच मुकाबला था। सभी ने ख़ूब गाया-बजाया। चढ़ती जवानी के समय मवेशी चराते समय और लुक-छिप कर गाँव में सुने गीत व बोलियाँ मेरे खू़ब काम आई। ननिहाल वाले हैरान थे कि गंजे सिर वाले बाबू को इतने गीत कैसे याद थे।
सुबह आठ बजे बारात आई। अपने मित्रों के साथ झूलते हुए निर्मल कार से उतरा। उसका व्यक्तित्व देखकर लड़कियों के मुँह खुले ही रह गए। … आज वही निर्मल भरी जवानी में ही सबसे बिछुड़कर, सभी को अलविदा कह, मालूम नहीं कहाँं छुप गया था।
पिछले दस-पंद्रह दिनों के दौरान छंभ-जौरियां सेक्टर से अनगिनत आदमियों की मौत की खबरें आ रही थीं। माडल टाउन में रोज़ ही किसी न किसी घर में ग़मगीन तार आ जाती थी। मगर हम और उनमें अजनबीपन था। निर्मल की मौत ने एकदम उस अजनबीपन की दूरी को ख़त्म कर दिया था। मुझे आज पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि मौत के विशेष तथा निर्विशेष होने के बीच कितना भयानक फ़र्क होता है।
कमरे में हम सिफऱ् सात-आठ आदमी ही रह गए थे। भाई भी कुछ सँभल गया था। वह बातचीत करने लगा था। लड़ाई शुरू होने से पहले निर्मल यहाँ छुट्टी बिताने आया था। अचानक उसे ड्यूटी पर हाजिऱ हाने की तार आ गई थी। हम सभी अंदर से दहल गए थे। सभी के चेहरे अनजाने भय से धुँधला गए थे। मगर निर्मल सचमुच ही प्रसन्न था। उसके अदंर जुनून था, कहने लगा, ”जंग में ही तो असली जौहर दिखाने का मौका मिलता है।’’
”जिस दिन से वह गया, मेरा किसी भी काम मे मन नहीं लग रहा था।’’ जीता मुँह से कुछ नहीं कर रही थी, मगर उसका उदास चेहरा मुझ से देखा नहीं जा रहा था। कुछ दिन पहले एक जहाज जब दहाड़ते हुए काफी नज़दीक से गुजऱा तो वह गश खाकर आँगन में गिर पड़ी थी। सारा परिवार परेशान हो गया था। परसों ही तार आ गई। क्षण भर के लिए वह आँखें खोल कर इधर-उधर देखती है, फिर बेहोश हो जाती है। यह कहते हुए भाई का गला रूँध गया । कुछ पल के बाद,सँभलने के बाद, उसने अपनी बात जारी रखी,” मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि वह साधारण ढंग से नहीं मरा होगा। ज़रूर अनहोनी मौत के मुँह आया होगा। उसे खुद पर बेहद आत्मविश्वास था। एक दिन मेथी की रोटी खा रहे थे। कहने लगा,” भाई, शहर में कई बार मेथी की रोटी खाने का बहुत मन करता है।’’ मैंने कहा,’ फिर? कहने लगा,”तुम बसीमा वाले इलाके में ऊँचे से डंडे से रोटी लटका देना। मैं जहाज़ में आकर उठा लूँगा।’’
”जिस दिन वह यहाँ से गया, मैंने कहा,”जऱा सँभल कर रहना।’’ उसने मेरी ओर विश्वास भरी नजऱों से देख कर कहा,”भाई साहब, आप कोई फि़क्र न करें। मैं दस-पंद्रह दिन में काम खत्म करके आया, समझिए मेरे कंधे पर नया तमगा होगा। वह तमगा मैं आपको भेंट करूँगा। पल-छिन में ही रायल-इन-फील्ड से नजऱों से ओझल हो गया।’’
बातें करते, गहरी रात हो गई। हमारी आँख लग गई। सुबह हुई। हम में से दो ने डयूटी पर पहँुचना था। रमन के अलावा अन्य किसी को गाड़ी चलानी नहीं आती थी। इसलिए वह तीनों ही वापस लौट गए। मैं इवनिंग कॉलेज में पढ़ाता था। ब्लैक आऊट के कारण कॉलेज बंद था। कृपाल का अपना ही काम था, इसीलिए हम दोनों ने भाई के पास ठहरना ही मुनासिब समझा।
अगले कुछ दिनों में मुझे इस बात का गहरा एहसास हुआ कि ऐसे ग़मगीन हालात में किसी जिगरी दोस्त का नज़दीक होना कितना ज़रूरी होता है।
जीता की हालत दिनोदिन बिगड़ती जा रही थी। आँखें सूजी हुई थीं। दिन में कई बार गश पडऩे लगी थी। हमारे समझाने का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था। भाई हौसला कर, उसे धीरज देने जाता, मगर उसकी हालत देखकर वह स्वंय ही रोने लगता।
ऐसी हालत में डॉक्टरों के दवा-दारू का क्या-क्या असर होता। फिर मैं एक क्षीण आस लेकर डॉक्टर की सलाह लेने शहर गया।
अख़बार पढ़े कई दिन हो गए थे। मैंने अख़बार खरीदा। पहले पेज़ पर सरसरी नजऱ मारता हूँ और एक जगह पर मेरी नजऱ अटक जाती है। हँसते हुए निर्मल की वर्दी में तस्वीर। शाीर्षक पड़ता हूँ,”फ़्लाइट लेफ़्िटनेंट निर्मल जीत सिंह मुत्यु उपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित-बेमिसाल वीरता के कारण एक भारतीय हवाबाज को पहली बार वीरता के लिए सर्वोत्तम पुरस्कार।’’ आगे उसकी बहादुरी की लंबी-चैडी दास्तान दजऱ् थी। श्रीनगर के हवाई अड्डे जहाँ हमारे पूर्वोत्तर चेतावनी देने वाले यंत्र ठीक तरह से काम नहीं कर रहे थे, ऊपर के पाकिस्तानियों द्वारा अचानक हमले की सूचना मिली और छह पाकिस्तानी सैबर जैट बहुत नीचे आकर हवाई अड्डे पर धड़ाधड बमबारी कर रहे थे। हवाई अड्डा धुआँधार धूल में लपेटा गया था । ऐसे समय में उड़ान लेने का हौसला किसी जांनिसार हवाबाज का काम ही हो सकता था। इस खतरे भरे समय में निर्मल जीत तथा भारतीय वायुसेना के एक और नेट-चालाक अपने जहाज़ लेकर आसमान में चले गए। निर्मलजीत ने दो सैबर जैट जहाज़ों को कमाल की निशानेबाजी से मार गिराया। बाद में और भी कई पाकिस्तानी जहाज़ बाज़ की तरह आसमान में मँडराने लगे। ग्राउंड कंट्रोल के भयानक खतरे को मद्देनजऱ रखते हुए अपने सैनिकों से मुकाबला छोड़कर तुरंत इधर-उधर हो जाने का आदेश दिया। साथ वाले नैट-पायलट ने एकदम फुर्ती से अपना जहाज़ पठानकोट हवाई अड्डे पर उतार लिया, मगर निर्मलजीत जी-जान से इस मुठभेड़ में जुटा रहा। ग्राउंड- कंट्रोल को उसका आखिरी संदेश यह था- ‘डोंट वरी। दा बास्टर्डज़ आर टू मैनी वट आई एम ट्राईंग टू हिट देम हार्ड।’’ इस मुठभेड़ में उसने एक और जहाज़ ज़ख्मी कर दिया। मगर बहुत सारे जहाज़ों के सामने उसकी पेश ने गई। एक गोली अचानक उसके सिर में आकर लगी और उसका जहाज़ श्रीनगर की पहाडिय़ों में टुकड़े-टुकडे होकर बिखर गया। इसके बाद मैं खबर का बाकी हिस्सा न पढ़ पाया और न ही मुझे डाक्टर से मिलने
का होश रहा। अख़बार तह कर, मैं शाम ढले गाँव पहँुचा।
भाई तथा कृपाल दोनों कमरे में बैठे थे। अख़बार खोलकर मैंने कृपाल को पकड़ाया और खुद चारपाई के एक कोने पर बैठ गया। उसने सारी खबर पढ़कर सुनाई। सभी की आँखों में बुझी सी चमक थी।
”मुझे तो पहले से ही मालूम था, यह आम मौत मरने वाला आदमी था ही नहीं। अच्छा भाई, तुमने तो अपना वचन पूरा कर दिखाया, मगर हमें सारी उम्र का दर्द दे गया।’’ भाई ने गहरी साँस ली।
”अगर कहीं वह इस ख़बर को सुनने के लिए जीवित होता-मगर ख़ैर।’’ ..बात और बढ़ा कर कृपाल, भाई का मन और खराब नहीं करना चाहता था।
इस ख़बर के छपते ही अगले दिन उच्च सरकारी अधिकारियों तथा सैनिक अफसरों के आगमन का अटूट सिलसिला शुरू हो गया। कभी डीसी साहब, दस हजार का चैक भेंट करने के लिए आ रहे हैं। कभी कोई प्रेस पार्टी ‘स्टोरी’ तैयार करने के लिए आई हुई है। कभी वायुसेना के अच्च अधिकारी और कभी कोई राजकीय नेता।
आज सुबह सात बजे हाथ -मँुह धोकर हटे ही हैं। एक सरकारी वैन आँगन में आकर रूकी। वैन में से बड़ा सा कैमरा व अन्य साजो-सामान उतारा जा रहा है। फिल्मसाजों की टोली है। यह लोग सारे देश में दिखाने के लिए निर्मलजीत की जि़ंदगी पर आधारित एक दस्तावेज़ी फि़ल्म तैयार कर रहे हैं। काफ़ी सारी सामग्री उसकी यूनिट में से मिल चुकी है, मगर जीता की मौजूदगी के बग़ैर उनकी फिल्म अधूरी रहेगी।
भाई जीता से बात करने अंदर गया है। मगर वह मायूस सी बैठी है। उसे किसी भी काम में दिलचस्पी लेना गवारा नहीं। भाई बाहर आकर फिल्मकार को यही सूचना देता है। उसका चेहरा निराश है। अचानक भाई को एक तरकीब सूझती है। वह जीता की शादी का एलबम फिल्मकारों को दे देता है। उसमें निर्मलजीत की और भी कई महत्वूपर्ण तस्वीरें भी हैं।
एलबम को देखकर डायरेक्टर की आँखें चमक उठी हैं। वह कई तस्वीरों को अपने अंदाज में पेश कर सकता है। एक-दो घंटों में उनका काफ़ी काम हो जाता है।
”अच्छा सरदार जी, बीबी जी से एक काम ज़रूर करवा दीजिए वह यह माला सरदार जी की फोटो को अवश्य डाल दे।’’
जीता इस काम के लिए मान जाती है।
कैमरामैन बिजली की फ़ुर्ती से सजग हो जाते हंै। जीता लडख़ड़ाते कदमों से निर्मलजीत की तस्वीर की ओर बढ़ती है, और माला डाल देती है। कैमरे क्लिक होते हैं।
मगर डायरेक्टर को अभी भी तसल्ली नहीं होती,”बीबीजी बस कुछ बोल दीजिए।’’ वह मिन्नत करता है।
अपना पीछा छुड़ाने के अंदाज में जीता मान जाती है। डायरेक्टर के चेहरे पर रौनक आ जाती है। वह जीता से संबोधित होकर कहता है,” बस, आप इतना कह दें, ”मेरा पति दुश्मन के खि़लाफ बड़ी बहादुरी से जूझते हुए, देश के लिए कुर्बान हुआ है। मरा नही, बल्कि अमर हुआ है। मैं विधवा नहीं, सुहागन हँूं।’’
किसी आस मेें टेपरिकार्डर का बटन दबाया जाता है। जीता का चेहरा मुरझा जाता है। बेजी उसे सहारा दिए खड़े हैं। जीता मूच्र्छित होकर बेजी के पैरों में गिर जाती है। उनके हाथ-पैर फूल जाते हैं। मैं चुपचाप कैमरामैन से कैमरा, ले सरकारी वैन में रख आता हूँ।
साभार: बीसवीं सदी की पंजाबी कहानी
कहानी: बलिदान
लेखक: साधु सिंह (कनाडा वासी पंजाबी कहानीकार)
अनुवाद: जसविंदर कौर बिंद्रा
प्रकाशक: साहित्य अकादमी, नई दिल्ली