बर्बरता के दाग

सोशल मीडिया पर जब नकाबपोश लोगों और खून से लथपथ पीडि़तों के वीडियो सामने आये, तो जेएनयू में हुई घटना पर आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया। चौंकाने वाली बात यह है कि जेएनयू परिसर में बर्बरता का यह खेल तब खेला गया, जब परिसर के बाहर दर्जनों पुलिसकर्मी पहरे पर थे। छात्रों और शिक्षकों पर हिंसा से परिसर में खौफ और गुस्सा फैल गया। महिलाओं को उन्मादियों की भीड़ से बचने के लिए खुद को कमरों में बन्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा। वीडियो और तस्वीरों में साफ दिखा कि यह उन्मादी भीड़ हथौड़ों, छड़ों, लाठियों और पत्थरों से तोडफ़ोड़ और मारपीट कर रही है। आश्चर्य यह भी कि जब छात्रावास में छात्रों और अन्य स्टाफ के साथ बर्बरता से भरा यह सारा घटनाक्रम हुआ, तो विश्वविद्यालय परिसर के बाहर पूरे खंड में स्ट्रीट लाइट्स तीन घंटे तक बन्द रहीं। क्यों और कैसे? यह बहुत बड़ा सवाल है।

यह खामोश होकर बैठने की बजाय आवाज़ उठाने का समय है। इससे पहले कि आतताइयों के हौसले और बुलंद हों, उन्हें गिरफ्तार किया जाना चाहिए। यह भी विडंबना ही है कि इस घटनाक्रम के लिए जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष आइशी घोष पर मामला दर्ज किया गया है, जो खुद नकाबपोशों के हमले में घायल हुई हैं। उनके फटे सिर और खून से लथपथ चेहरे ने नकाबपोशों की बर्बरता की कहानी बयाँ कर दी है। अब एक स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच ही तमाम संदेहों को दूर कर सकती है और इस गुण्डागर्दी में शामिल निहित स्वार्थों के चेहरे से नकाब हटा सकती है। जेएनयू देश का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक है और यह घटना स्पष्ट रूप से इस संस्थान की प्रसिद्धि में सेंध लगाने की कोशिश है। यह एक स्थापित तथ्य है कि जेएनयू के छात्र हमेशा ज़िम्मेदार, ‘विद्रोही’ रहे हैं; लेकिन नकाबपोशों को गिरफ्तार करने की जगह हिंसा के लिए छात्रों को दोषी ठहराते हुए और उनके िखलाफ पाँच एफआईआर दर्ज करने से सिर्फ पागलपन से भरे उन्मादियों को प्रोत्साहन मिलेगा। क्या हम जेएनयू परिसर में बर्बरता की जाँच करने में विफल कुलपति को दोषमुक्त मान सकते हैं?

उच्चतम न्यायालय की न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना, न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति बीआर गवई की तीन सदस्यीय पीठ का 10 जनवरी को दिया गया निर्णय भी यहाँ प्रासंगिक है। फैसला सुनाने वाले न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना ने चाल्र्स डिकेंस के ए टेल ऑफ टू सिटीज़ के हवाले से कहा- ‘वह सर्वश्रेष्‍ठ दौर था, वह सबसे खराब दौर भी था। वह बुद्धिमत्‍ता का युग था, वह मूर्खता का भी युग था।’ न्यायाधीश ने कहा- ‘इंटरनेट, बुनियादी स्वतंत्रता और  चलने-फिरने पर मनमाने तरीके से पाबंदी नहीं लगायी जा सकती।’ अदालत ने धारा-144 को बार-बार लागू करने की भी आलोचना की। जेएनयू प्रशासन और दिल्ली पुलिस को कई सवालों के जवाब देने हैं। पुलिस उपायुक्त का कार्यालय जेएनयू परिसर में ही है और फिर भी यह उस समय तत्परता दिखाने में नाकाम रहा, जबकि परिसर में कानून और व्यवस्था की स्थिति बहुत गम्भीर हो गयी थी। इस मामले में गृह मंत्रालय की भी जवाबदेही बनती है; क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी में पुलिस का ज़िम्मा उसी के तहत है। केंद्रीय मंत्रिमंडल के दो सदस्यों ने इस घटना की निन्दा की है। दोनों सदस्य जेएनयू के पूर्व छात्र हैं। लेकिन केवल निन्दा पर्याप्त नहीं होगी। यह सब तब तक खोखला ही दिखेगा, जब तक गुण्डों के चेहरों से नकाब नहीं उठ जाते, उनकी संबद्धता और उनकी पृष्ठभूमि सार्वजनिक नहीं हो जाती और उन्हें जल्द और निष्पक्ष जाँच के बाद गिरफ्तार करके सज़ा नहीं दिलायी जाती।