जो पिछले दिनों ‘बरफी’ ने किया, ऐसा शायद हिंदी सिनेमा में पहली बार हुआ है. हमारे यहां नकलें तो बहुत बनी हैं – फिल्में भी और गाने भी. लेकिन अक्सर एक या दो फिल्मों या गानों को जोड़कर ही. कुछ मौलिक है भी या नहीं, या कला रूप बदल-बदलकर सिर्फ दोहराई जाती है, इस पर बहसें होती रहती हैं, लेकिन इंटरनेट पर पिछले दो हफ़्ते से तैर रहे ‘बरफी’ के मूल स्रोत आप देखेंगे तो आप बहस बाद के लिए छोड़ देंगे. हो सकता है कि ‘बॉलीवुड में सब नकल है’ या ‘कैसे भी बनी हो, हमें तो अच्छी फिल्म देखने को मिली’ कहकर आप अपने काम में डूब जाएं, लेकिन जैसी भी हों, हिंदी फिल्मों से आपने कभी भी मोहब्बत की होगी तो उसमें ‘बरफी’ धोखे की तरह आकर चुभ जाएगी.
‘बरफी’ अच्छी फिल्म है, इससे तो लगभग सभी सहमत होंगे और अनुराग बसु हमारे लिए हिंदी सिनेमा की एक और नई उम्मीद लगभग बन ही गए थे, कि नेट पर वे सीन आने लगे, जहां से ‘बरफी’ का जादू आया था. चैप्लिन की शैली फिल्म में है, यह हर कोई जानता था, लेकिन यह हर कोई नहीं जानता था कि जब रणबीर एक स्लाइडिंग दरवाजे के पास सौरभ शुक्ला के साथ चोर-सिपाही खेल रहे हैं तब अनुराग ‘द एडवेंचरर’ से यह सीन उठाकर लाए हैं. या जब रणबीर सोफे पर बैठकर गुड्डे के साथ खेल रहे हैं और प्रियंका का मनोरंजन कर रहे हैं, या जब दीवार से टकराकर वे नाक के मुड़ने की एक्टिंग कर रहे हैं, तब वे ‘सिंगिंग इन द रेन’ के बीटर कस्टन की नकल कर रहे हैं. कि सीढ़ी से सौरभ शुक्ला को छकाने वाला सीन बस्टर की ही फिल्म ‘द कॉप्स’ से हूबहू आया है. कि जब इलियाना की मां उन्हें अपना पुराना गरीब प्रेमी दिखाने ले जाती हैं, तब यह ‘नोटबुक’ का सीन है. कहीं मिस्टर बींस आ गए हैं और कहीं कोई और. ‘पता चलने’ का यह सिलसिला हर दिन आगे बढ़ रहा है. यह लिखने से बस कुछ मिनट पहले ही मैंने दो और सीन देखे, जो ‘लवर्स कंसर्टो’ से उठाए गए हैं. उनमें से एक मेरा पसंदीदा सीन था. और अभी कोई बता रहा है, कि जूता फेंकने के जिस सीन पर मेरी सारी उम्मीद थी, वह अदूर गोपालाकृष्णन की मलयालम फिल्म ‘मथिलुकाल’ से आया है.
अनुराग बसु का कहना है कि यह इतने सारे बड़े फिल्मकारों को उनकी श्रद्धांजलि है. लेकिन तब यह फिल्म के शुरू या आखिर में कहीं लिखा क्यों नहीं ?
यह सूची शायद बढ़ती रहेगी. हो सकता है कि इसमें संयोग से आने वाले कुछ ऐसे सीन भी जुड़ें, जिन्हें अनुराग ने जान-बूझकर उठाया भी न हो (हालांकि अब तक की समानताओं को देखते हुए ‘संयोग’ की उम्मीद कम है). लेकिन जितनी बड़ी नकल किए गए दृश्यों की संख्या है, वह बरफी की मिठास में कुनैन की गोलियां घोलती जाती है. महत्वपूर्ण यह है कि इनमें से लगभग सभी दृश्यों की फ्रेमिंग तक भी नहीं बदली गई और बरफी के अभिनेता मूल अभिनेताओं की हूबहू नकल ही कर रहे हैं. यह सब सामने आने के बाद अनुराग बसु का कहना है कि यह इतने सारे बड़े फिल्मकारों को उनकी श्रद्धांजलि है. लेकिन तब यह फिल्म की शुरुआत या आखिर में कहीं लिखा क्यों नहीं दिखा? और श्रद्धांजलि की इस परिभाषा के बाद कोई क्या करेगा, जिसे हम कला में चोरी या नकल कहेंगे? और क्या कुछ ब्लॉग या फेसबुक पर उन मूल दृश्यों के लिंक इस तरह से नहीं आते, तब भी वे कभी बताते कि उनके स्रोत क्या हैं? शायद नहीं. क्योंकि बताना था तो फिल्म के ‘क्रेडिट्स’ से बेहतर जगह शायद ही हो. वैसे उन्होंने यह भी माना है कि यह उनकी कमी थी कि वे इतना अच्छा कुछ रच नहीं सके, इसलिए इन फिल्मों से उठा लिया. लेकिन माना भी पकड़े जाने के बाद.
अब भी बरफी में ऐसी अच्छी चीजें हैं, जो अब तक हमारे लिए ‘असली’ ही हैं लेकिन नहीं जानते कि कब तक रहेंगी! इसीलिए हम जैसों की मुश्किल यह है कि अब हमें नहीं पता कि हम ‘बरफी’ से प्यार करें या नहीं. अगर हम कलाकार की नैतिकता के सवाल को भूल जाएं और फिल्म को कलाकृति के बजाय उत्पाद मानकर देख सकने की नजर से देख पाएं तो हम अनुराग के इसलिए शुक्रगुजार भी हो सकते हैं कि उन्होंने दुनिया भर के सिनेमा के हिस्सों को इतनी खूबसूरती से मिक्स किया. लेकिन मेरे लिए यह भी संभव नहीं. मुझे फिल्म से पहले का उनका कहा याद आता है कि उन्होंने नकल मर्डर इसलिए बनाई थी, ताकि अपनी ओरिजिनल गैंगस्टर बना सकें. लेकिन ‘बरफी’ में ऐसी क्या मजबूरी, जिसे वे अपनी अब तक की सबसे पर्सनल फिल्म बता रहे हैं? यह उनकी फिल्मों की कतार पर नकल का पहला या दूसरा दाग नहीं है. और जब ‘बरफी’ को ऑस्कर के लिए भारतीय प्रतिनिधि बनाकर भेज ही दिया गया है, तब हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि अनुराग अगली बार अपनी कोई बात कहेंगे. अपनी भाषा चुनेंगे और अपने हथियार. तब शायद हम थोड़ा बेहतर महसूस करें. या पता नहीं.