बन्द हों नफ़रत की दुकानें

धर्म को अगर अना और प्रतिष्ठा की वस्तु मानकर उस पर अन्धे होकर अति गर्व किया जाएगा, तो दूसरे धर्म के लोगों से अनायास ही नफ़रत होने लगेगी। यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे किसी स्वार्थी माँ को सिर्फ़ अपने बच्चे अच्छे लगते हैं और दूसरों के बच्चे बहुत बुरे। ऐसी माँ भी अपने बच्चों को अना और प्रतिष्ठा का स्वरूप मानकर अन्धी होकर उस पर अतिशय गर्व करती है। ऐसे लोगों में ईश्र्या कूट-कूटकर भरी होती है। इसी ईश्र्या की वजह से किसी भी धर्म के लोग अपने से विलग दिखने वाले लोगों से अकारण ही बैर रखते हैं। लेकिन संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सभी धर्मों और उन धर्मों के लोगों की इज़्ज़त करते हैं। उनके मान-सम्मान में उतना ही प्यार रखते है, जितना कि अपने धर्म के प्रति। कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो अपने धर्म के साथ-साथ दूसरे धर्म की विरासतों को संजोकर रखते हैं।

अजमेर समेत राजस्थान के लगभग चार ज़िलों में तो ऐसे कई परिवार भी हैं, जो सनातन धर्मी भी हैं और मुस्लिम भी। ये लोग चीता मेहरात समुदाय के हैं। इन समुदायों के लिए धर्म तो मायने रखते हैं, किन्तु झगड़े की कोई गुंजाइश यहाँ नहीं है। एक ही परिवार में हर व्यक्ति दोनों धर्म के त्योहार मनाता है। एक ही घर में पिता पूजा करता है, तो पुत्र नमाज़ पढ़ता है। कहीं पुत्र पूजा करता है, तो पिता नमाज़ पढ़ता है। कई लोग तो ऐसे हैं, जो एक साथ दोनों धर्मों के अनुसार कर्मकांड भी करते हैं। बड़ी बात है कि इस चीता मेहरात समुदाय के लोगों की संख्या लगभग 10 लाख है।

इस समुदाय के लोग बताते हैं कि उनका ताल्लुक़ चौहान राजाओं से रहा है। इसके चलते पहले इस समुदाय के अधिकतर पूर्वज सनातन धर्मी ही थे, परन्तु मुस्लिम समुदाय में व्यवहार और शादी-विवाह आदि के चलते इन्होंने क़रीब 700 साल पहले इस्लाम को भी अपना लिया। आज भी इस समुदाय के लोगों के घरों से जब बारात निकलती है, तो दूल्हे को मन्दिर और मस्जिद दोनों जगहों पर आशीर्वाद लेने जाना होता है। शादी में कलश पूजन होता है, फेरे भी लिये जाते हैं। अगर कोई निकाह भी करना चाहता है, तो वह भी कर सकता है। इस पर किसी को कोई भी आपत्ति नहीं होती।

इस तरह की परम्परा आसान नहीं है और न ही हर जगह यह होता है। शायद ही पूरी दुनिया में अन्यत्र कहीं कोई ऐसा अनोखा उदाहरण देखने को मिले। क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में एक-एक परिवार में दो धर्मों का निर्वहन करना और फिर भी आपस में कोई मतभेद, कोई तनाव न होना, पूरे देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लोगों के लिए मिलजुलकर रहने की एक बड़ी सीख है। सीख यह कि सभी को एक-दूसरे के धर्म और उनकी परम्पराओं की क़द्र करनी चाहिए। हालाँकि दुनिया में लाखों लोग ऐसे हैं, जो दूसरे धर्म में शादी-व्यवहार करके एक-दूसरे के साथ बिना किसी धार्मिक विवाद के निर्वहन करते हैं। लेकिन एक जगह इतने लोग मिलजुलकर रहते हों, ऐसा देखने को नहीं मिलेगा। अनेक मामलों में एक-दूसरे को निभाना मुश्किल हो जाता है। दो धर्मों के मामले की तो बात ही अलग है। कई लोग तो अपने साथी, ख़ासतौर पर महिलाओं पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाने लगते हैं। यह भी उचित नहीं है। कुछ लोग अपनी मर्ज़ी से ही दूसरे धर्मों और उनके मानने वाले लोगों का सम्मान करते हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन आजकल यह चलन से बाहर होता जा रहा है। एक दौर ऐसा भी था, जब पहले सिख गुरु गुरुनानक मक्का चले गये थे। आज तो किसी साधु-सन्त का भी दूसरे धर्म के तीर्थ स्थल पर जाना मुश्किल है।

हालाँकि अब पहले जैसे साधु, सन्त या फ़क़ीर नहीं रहे, जो समाज बन्धनों से दूर भूखे-प्यासे रहकर भी ख़ुश रहा करते थे। लेकिन समाज के कल्याण के लिए जीते थे। वहीं आज के कथित साधु, सन्त और फ़क़ीर समाज को लूटने में लगे हैं। किसी में कोई योग्यता नहीं दिखती। करोड़ों की सम्पत्ति बटोरकर बैठे इन तथाकथित धर्माचार्यों का काम अब समाज को रास्ता दिखाना नहीं, बल्कि उसे भटकाना हो गया है। ये आपस में नहीं लड़ते; लेकिन लोगों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत फैलाकर अपने स्वार्थ के लिए उन्हें लड़वाते रहते हैं।

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अब समाज ही इन तथाकथित धर्माचार्यों को राह दिखाये? एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को दूसरे धर्म या जाति का मानने से पहले एक इंसान समझे। अगर कोई ऐसा नहीं समझता, तो उसके इंसान और बुद्धिमान होने का कोई फ़ायदा नहीं। सभी एक-दूसरे का सम्मान करें, उनकी रीतियों का सम्मान करें और उनमें शामिल होकर उन्हें प्यार बाँटें, तो नफ़रत बोने वालों की दुकान ही बन्द हो जाए। यह तभी हो सकता है, जब लोग धर्म को अपने घर में ही रखें। पूजा-पाठ, इबादत, प्रार्थना जो भी करें, घर में ही करें। बाहर निकलें, तो सिर्फ़ एक इंसान की तरह पेश आएँ। यहाँ मुझे शायर विकास वर्मा ‘बाबा’ का एक शेर याद आ रहा है :-

‘मज़हब को अपने घर में ही महदूद कीजिए,
जब-जब सडक़ पे निकला है, तौहीन ही हुई।’