केरल के पलक्कड़ ज़िलेे में मई के आखरी हफ्तेे जब एक गर्भवती हथिनी की मौत पर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और भाजपा सांसद मेनका गाँधी ने केरल सरकार से लेकर कांग्रेस नेता राहुल गाँधी को खूब निशाने पर लिया। उससे कुछ दिन पहले ही मोदी सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय ने पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश की 91 तहसीलों में निजी भूमि पर बन्दरों को मारने की खुली छूट दे दी। यह दिलचस्प है कि बन्दरों को भगवान हनुमान से जोडक़र देखा जाता है और इसी कारण हिमाचल में 2008 में भाजपा की तत्कालीन प्रेम कुमार धूमल सरकार ने बन्दरों को मारने की जगह उनकी नसबन्दी का फैसला किया था।
मोदी सरकार ने हिमाचल में बन्दरों को मारने को लेकर बाकायदा अधिसूचना जारी की है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने वन्यजीव (संरक्षण) कानून, 1972 की धारा-62 को लागू करते हुए यह अधिसूचना जारी की है। इसमें बन्दरों को इंसानी जीवन के लिए खतरा माना गया है।
यहाँ यह दिलचस्प है कि हिमाचल में भी भाजपा की ही सरकार है, और इतने बड़े इलाके में बन्दरों को मारने की इजाज़त के खिलाफ न तो मेनका गाँधी की तरफ से कोई बयान आया और न स्मृति ईरानी की तरफ से। हाँ, पशु-प्रेमियों ने ज़रूर इसे पशुओं से क्रूरता करार दिया है। हालाँकि बन्दरों के उत्पात से परेशान किसानों और आम लोगों ने इस फैसले को सही बताया है।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि हाल के वर्षों में बन्दरों ने इस पहाड़ी सूबे में फसलों की जमकर तबाही की है। यही नहीं हज़ारों लोग बन्दरों के हमले में घायल भी हुए हैं। अब किसानों की माँग को देखते हुए रीसस मकाक प्रजाति के बन्दरों को मारने की मंज़ूरी मोदी सरकार ने दे दी है। हालाँकि केवल निजी भूमि में ही नुकसान करने पर बन्दरों को मारने की मंज़ूरी दी गयी है।
प्रदेश में कुल 169 तहसीलें/उप तहसीलें हैं। इनमें से 91 में बन्दर को वॢमन (हिंसक पशु) घोषित कर दिया गया है। अर्थात् प्रदेश के कुल 12 ज़िलों में से 11 ज़िलेे इसके तहत आएँगे। ज़ाहिर है यह एक बड़ा क्षेत्र है और सरकार के इस निर्णय से बड़े पैमाने पर बन्दरों की शामत आ सकती है। वैसे प्रदेश में पहले भी बन्दरों को वॢमन घोषित किया जा चुका है और ज़्यादा असर वाले कुछ चुनिंदा इलाकों में उन्हें मारने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया था।
हिमाचल किसान सभा, जो बन्दरों को लेकर सख्त रुख दिखाती रही है; के अध्यक्ष कुलदीप सिंह तँवर कहते हैं कि बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ चुके हैं। क्योंकि नुकसान का दायरा ही इतना बड़ा है। उनके मुताबिक, पिछले वर्षों में राज्य में बन्दरों ने खेती का बहुत नुकसान किया है। यही कारण है कि सभा माँग करती रही है कि प्रदेश से बन्दरों का आयात किया जाए। क्योंकि दूसरे देशों में इनकी माँग रही है। तँवर कहते हैं कि यदि ऐसा किया जाता है, तो लोगों को बहुत राहत मिलेगी।
अब केंद्र सरकार के केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हिमाचल को लेकर जारी अधिसूचना के मुताबिक, निजी भूमि पर बन्दर को मारने के तुरन्त बाद नज़दीक के वन अधिकारी-कर्मचारी को इसकी जानकारी देनी ज़रूरी होगी। केंद्र की यह अधिसूचना हिमाचल सरकार के वनों से बाहर के क्षेत्रों में रीसस मकाक बन्दरों की अत्यधिक संख्या हो जाने और उनसे बड़े पैमाने पर खेती के नुकसान के अलावा इंसानों पर घातक हमलों को लेकर भेजी रिपोर्ट के बाद आयी है।
वन भूमि पर बन्दरों को मारने पर अभी भी सख्त पाबन्दी रहेगी। वैसे हिमाचल में बन्दरों को पहले भी वॢमन घोषित किया जाता रहा है। इसी साल फरवरी तक लागू एक अधिसूचना से पहले भी बन्दरों को शिमला नगर निगम और 38 तहसीलों में वॢमन घोषित किया गया था। इसकी मियाद 20 दिसंबर, 2018 तक रही थी।
बन्दर यूँ ही शहरी और आबादी वाले इलाकों में नहीं आ गये हैं। जंगलों को तबाह कर चुके इंसान ने कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन यह बन्दर और यहाँ तक कि तेंदुए भी आबादी के इलाकों में आकर उनका जीना हराम कर देंगे। जंगल बचे नहीं और वहाँ जो कुछ उनके खाने के लिए था, वह भी इंसानों ने तबाह कर दिया।
हिमाचल में कुल 3243 पंचायतें हैं। इनमें से 547 पंचायतें बन्दरों की समस्या का सामना कर रही हैं। फसल ही नहीं, फलों (बागबानी) का भी बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। कई जगह किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है।
‘तहलका’ का अध्ययन बताता है कि पिछले वर्षों में प्रदेश में बन्दरों को चोरी से ज़हर देकर मारने की दर्ज़नों घटनाएँ हुई हैं। नवीनतम घटना शिमला के मशहूर पर्यटक स्थल कुफरी की है। वहाँ इसी साल 17 मई को महासू पीक में मरे हुए नौ बन्दर मिले थे।
वन्य जीव विभाग के अधिकारी स्वीकार करते हैं कि शहर (शिमला) में बन्दरों की मौत ज़हरीला पदार्थ खाने से होती रही है। वॢमन घोषित होने के बाद कुछ लोग इन्हें खाने की चीज़ों में ज़हर दे रहे हैं, जो उनकी मौत का कारण बन रहा है। एक वन मण्डल अधिकारी ने नाम न छपने की शर्त पर बताया कि बन्दरों के मरने पर पहले भी उनके सैंपल मेरठ भेजे गये थे; जिनमें ज़हर की पुष्टि हुई थी।
इससे पहले 20 अक्टूबर, 2019 को भी राजधानी शिमला में बड़े पैमाने पर बन्दरों को मारने का मामला सामने आया था। तब मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने भी इस पर चिन्ता जतायी थी। राजधानी के बैनमोर, जाखू, संजौली और छोटा शिमला में दर्जनों बन्दरों की मौत हो चुकी है। कई बन्दर जंगली इलाके में मरे पड़े मिलते हैं; तो कई रिहायशी इलाकों में घरों की छतों पर और कॉलोनियों में।
बैनमोर से भाजपा की पार्षद किमी सूद ने इसकी शिकायत मुख्यमंत्री हेल्पलाइन पर की थी। पार्षद स्वीकार करती हैं कि उनके वार्ड में ही 200 से ज़्यादा बन्दर मर चुके हैं। इसी तरह जाखू की पार्षद अर्चना धवन भी स्वीकार करती हैं कि उनके वार्ड में भी कई बन्दर मरे हुए मिलते रहे हैं।
खेती बचाओ संघर्ष समिति के पदाधिकारी ओम प्रकाश भूरेटा और कुलदीप सिंह तँवर ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि प्रदेश में किसानों की आजीविका को जंगली जानवरों से गम्भीर खतरा पैदा हुआ है। कई किसानों ने फसल उगाना बन्द कर दिया है, जो उनके जीविका के लिए महत्त्वपूर्ण है। उनके मुताबिक, प्रदेश की करीब 66 लाख की इंसानी आबादी में बन्दर आबादी तीन लाख से भी ज़्यादा है। यह बन्दरों की सबसे बड़ी सघनता है और प्रति 19 लोगों के मुकाबले एक बन्दर का अनुपात है; जिसे बहुत चिन्ताजनक कहा जाएगा।
जानकार बताते हैं कि प्रदेश में बन्दर कृषि के लिए गम्भीर खतरा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में मानव-वन्यजीव संघर्ष में खतरनाक रूप से वृद्धि हुई है और एक उचित प्रबन्धन योजना के अभाव में यह समस्या भविष्य में और बढऩे वाली है। उन्हें दूसरी जगह शिफ्ट करने या बसाने का विकल्प देखना चाहिए। भूरेटा और तँवर कहते हैं कि बन्दरों और जंगली जानवरों के इस खतरे से किसानों को बचाने के लिए कोई गम्भीर ज़मीनी कोशिश नहीं होती है, तो कृषि पर कोई भी खतरा राज्य के लोगों की लम्बे समय तक खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा बन जाएगा। हिमाचल में करीब 2301 पंचायतें जंगली जानवरों से प्रभावित रही हैं। हमीरपुर, काँगड़ा, सोलन, सिरमौर, मण्डी, ऊना, कुल्लू और शिमला की अधिकांश पंचायतों में कृषि पर जंगली जानवरों का खतरा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, हिमाचल में फसलों की क्षति के 53 फीसदी नुकसान के ज़िम्मेदार अकेले बन्दर हैं; जबकि 23 फीसदी नुकसान के लिए जंगली सूअर। हाल के दशकों में प्रदेश में वन माफिया ने जंगलों का बड़े पैमाने पर नुकसान किया है। अतिक्रमण से भी जंगलों का आकार सिकुड़ा है। अवैध रूप से सैकड़ों बीघा भूमि पर आज भी लोगों का नाजायज़ कब्ज़ा है। बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई वन माफिया ने की है, जिससे पर्यावरण को ज़बरदस्त नुकसान पहुँचा है। पारिस्थितिक असंतुलन का एक और बड़ा कारण पिछले दशकों में बड़े बाँध, सीमेंट कारखाने और अन्य परियोजनाओं को भी जाता है। इन्होंने वन्यजीवों को भी बेघर किया है।
एक अध्ययन में यह पाया गया था कि बन्दर स्टरलाइजेशन के बाद ज़्यादा हिंसक हुए हैं। शिमला के बन्दर प्रदेश के अन्य बन्दरों के मुकाबले ज़्यादा हिंसक पाये गये हैं। शिमला में डस्टबिन की गन्दगी भी बन्दरों के इंसानों पर हमले का कारण मानी जाती है। बन्दर खाने के लिए डस्टबिन जुट जाते हैं। जब कोई पास से गुज़रता है, तो वो उस पर हमला कर देते हैं। इसे देखते हुए शिमला में कुछ क्षेत्रों में डस्टबिन को कम भी किया गया है।
बन्दर पकड़ो, 1,000 रुपये पाओ
हिमाचल में सरकार ने बन्दरों की बढ़ती आबादी से तंग आकर उनकी नसबन्दी का भी फैसला किया था। एक बन्दर पकडऩे के लिए अब 1,000 रुपये देने का प्रावधान है, जो पहले क्रमश: 500 और उसके बाद 700 रुपये किया गया था। बन्दर पकडऩे का यह अभियान इसलिए शुरू किया गया था, ताकि उनकी नसबन्दी की जा सके। एक सरकारी अनुमान के मुताबिक, हिमाचल भर में करीब 3.20 लाख बन्दर हैं। हिमाचल में बन्दरों की नसबन्दी के लिए आठ केंद्र हैं। प्रदेश सरकार के वन विभाग के वेबसाइट के मुताबिक, बन्दरों की नसबन्दी का अभियान चलाने के बाद प्रदेश भर में 2017-18 तक 1,40,882 (72707 बन्दर/68175 बन्दरिया) की नसबन्दी की गयी थी। हालाँकि एक अनुमान के मुताबिक, फरवरी, 2020 तक यह आँकड़ा करीब 1.59 लाख था। वैसे कुल संख्या के हिसाब से देखा जाए, तो यह संख्या कम नहीं है; लेकिन इसके बावजूद बन्दरों की संख्या लगातार बढ़ी है। कुछ जानकार आरोप लगते रहे हैं कि नसबन्दी का यह अभियान एक तमाशे से ज़्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि ज़मीन पर इसका कोई असर नहीं दिखता। राष्ट्रीय ज्ञान विज्ञान समिति के वरिष्ठ पदाधिकारी ओम प्रकाश भूरेटा कहते हैं कि सरकार के नसबन्दी के इन आँकड़ों पर कोई भरोसा नहीं करेगा। क्योंकि यह सही हैं ही नहीं; न ही इस कवायद का कोई लाभ है।
एक संगठन, जो करता है बन्दरों की सेवा
जहाँ बन्दरों को मारने के लिए केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी की है, वहीं एक सामजिक संगठन है, जो बन्दरों को मारने के तो सख्त खिलाफ तो है ही, उन्हें भोजन उपलब्ध करवाने के लिए बाकायदा टीमें भेजता है।
यह संगठन है- ध्यान फाउण्डेशन। योगी अश्विनी के मार्गदर्शन में फाउण्डेशन देश भर में गायों, कुत्तों, ऊँटों सहित बन्दरों और अन्य जानवरों को खिलाने और उनके पुनर्वास में लगा हुआ है। फाउण्डेशन के कार्यकर्ता मोहित शर्मा ने ‘तहलका’ को बताया कि बन्दरों के लिए संगठन कई स्थानों पर भोजन का इंतज़ाम करता है। इनमें वृन्दावन, दिल्ली, हैदराबाद, देहरादून, अयोध्या के अलावा हिमाचल, खासकर शिमला भी शामिल हैं।
उनके मुताबिक, हिमाचल में प्रमुख रूप से शिमला के जाखू हनुमान मंदिर क्षेत्र में सैकड़ों बन्दरों को संगठन पिछले चार साल से लगातार रोज़ाना भोजन का इंतज़ाम कर रहा है। मोहित के मुताबिक, उन्हें रोज़ मक्की और केला खिलाया जाता है। उनका दावा है कि प्रतिदिन संगठन द्वारा दिये जा रहे भोजन से अपनी भूख मिटाकर संतुष्ट होने के बाद बन्दरों द्वारा पर्यटकों या स्थानीय लोगों पर हमला करके नुकसान पहुँचाने की घटनाओं में बहुत कमी आयी है।
उन्होंने बताया कि यहाँ तक कि लॉकडाउन अवधि के दौरान भी नियमों का पालन करते हुए निर्बाध रूप से बन्दरों को भोजन दिया गया है, जो कि जारी है। उनके मुताबिक, बन्दरों को मक्का की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए फाउण्डेशन द्वारा दो से तीन महीने का स्टॉक भेजा जाता है; ताकि बर्फबारी के दौरान उनके खाने की कमी न पड़े। क्योंकि उस समय रास्ते बन्द होने से दूर से भोजन मँगाने में दिक्कत आती है। ध्यान फाउण्डेशन के मार्गदर्शक योगी अश्विनी का इस मुद्दे पर कहना है कि बन्दरों को मारने का फैसला बिलकुल गलत है। उन्होंने कहा कि हम इस फैसले का सख्त विरोध करते हैं। योगी अश्विनी के मुताबिक, आज यह निरीह जीव पूरी तरह मनुष्य पर निर्भर है। मनुष्य के लालच ने उसके लिए न तो जंगल छोड़े और न खाने के लिए फलों से लदे पेड़। भूख से परेशान यह जीव अब शहरों में नज़र आते हैं। जहाँ या तो वो दुर्घटना का शिकार होते हैं या उन्हें मार दिया जाता है।
योगी अश्विनी ने कहा कि अपने आस-पास के परिवेश में रहने वाले जीव जन्तुओं की रक्षा का दायित्व मनुष्य का है। जानवरों को खाना खिलाना वेदों में निर्धारित मनुष्य के पाँच बुनियादी कर्तव्यों में से एक है। आज मानव, मनुष्यता को भूलकर बन्दरों को हिंसक पशु करार देकर मारने के लिए बिजली के झटके, पत्थर, बन्दूक और ज़हर का उपयोग कर रहा है। एक जानवर को भोजन और आश्रय की आवश्यकता होती है। बन्दरों को मारने की इस प्रकार की घोषणा मानवता के विरुद्ध है। एक तो भू-माफिया ने सभी कानूनों का उल्लंघन करके वन भूमि को हड़प लिया है और ऊपर से वही लोग जानवरों को मारने जैसी नीतियों को बढ़ावा दे रहे हैं; ताकि और अधिक ज़मीनों को हड़पा जा सके। उनके मुताबिक, ये माफिया हिंसक हैं; न कि बन्दर। किसी भी जानवर को यदि अपने प्राकृतिक वातावरण से भोजन प्राप्त है और उसके बच्चे सुरक्षित हैं; तो वह संतुष्ट है। लेकिन मनुष्य ने उसके उस आश्रय को हड़प लिया है। इसके लिए तो उन्हें नहीं मारा जा सकता। विश्व भर में जीव-जन्तुओं की रक्षा के प्रयास किये जाते हैं और संरक्षण के कानून भी हैं और उनका पालन भी किया जाता है। उनके लिए संरक्षित वनों के साथ-साथ आरक्षित क्षेत्र को रेखांकित किया जाता है, जिसमें उनका प्राकृतिक रहन-सहन होता है। यदि वो उस क्षेत्र से बाहर आते हैं, तो ही उनको मारने के आदेश दिये जाते हैं। जानवरों की ऐसी ज़बरदस्त हत्या कहीं भी स्वीकार नहीं है। यह तो केवल आसुरिक वृत्ति है।
बन्दरों को मारने से प्रकृति की ईकोलॉजिकल कड़ी तो टूटेगी ही, साथ ही उनकी पीड़ा एक नकारात्मक कर्म की प्रतिक्रिया के रूप में उन्मुक्त होकर उस स्थान और मानव-जाति के लिए भी विनाशकारी सिद्ध होगी और ये जीव भी बदले की भावना से मनुष्य को चोट या घातक नुकसान पहुँचा सकते हैं। इस प्रकार की उथल-पुथल से पर्यटन और प्रान्त और देश की छवि पर भी दुष्प्रभाव पड़ेंगे।
50 लाख रुपये से ज़्यादा का मुआवज़ा
क्या आप विश्वास करेंगे कि हिमाचल में पिछले आठ साल में करीब 55 लाख रुपये की राशि सरकार को लोगों को उस मुआवज़े के रूप में देनी पड़ी है; जो बन्दरों के हमलों में घायल हुए या जिनकी जान ही चली गयी। अकेले 2013-14 में यह राशि 24,24,969 रुपये, जबकि 2012-13 में 15,18,560 रुपये लोगों को मुआवज़े के रूप में देने पड़े। इस तरह बन्दरों के हमलों की घटनाएँ सरकारी खजाने पर भी भारी पड़ी हैं। इन वर्षों में प्रदेश भर में इंसानों पर बन्दरों के हमलों की 4500 से ज़्यादा घटनाएँ हुई हैं। इंदिरा गाँधी मेडिकल अस्पताल कॉलेज (आईजीएमसी), शिमला में साल 2015 में बन्दरों से काटने के 430, साल 2016 में 626, साल 2017 में 649, 2018 में 742 और 2019 में 631 मामले सामने आये।