शायरी की चर्चा हो और उर्दू के जाने-माने शायर असरार उल हक मजाज़ यानी मजाज़ लखनवी की याद न आये यह सम्भव नहीं है। और जब मजाज़ लखनवी की बात हो, तो रांची के दिमागी अस्पताल (पागलखाने) यानी रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकाइट्री एंड एलाइड साइंस (रिनपास) का ध्यान आना लाज़िमी है। क्योंकि उनका इससे गहरा नाता रहा है। इसी तरह बंगाल (अब बांग्ला देश) के दिग्गज कवि काज़ी नज़र उल इस्लाम, महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे लोगों का भी इसी अस्पताल में इलाज हुआ था। लेकिन अफसोस यह ऐतिहासिक अस्पताल न तो अपने धरोहर को सँभाल सका है और न ही वर्तमान को ठीक कर पाया है। अंग्रेजों के जाने के बाद केंद्र और राज्य में एक के बाद एक सरकारें आती-जाती रहीं और यह अस्पताल अपने उद्धार की बाट जोहता रहा।
लखनवी और इस्लाम की रिनापास में हुई मुलाकात
मजाज़ लखनवी ने अपनी शायरी में सांस्कृतिक और तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक दुनिया को ज़ाहिर किया। उनकी मानवता और धर्मनिरपेक्षता उनके इस शे’र में दिखती है- ‘हिन्दू चला गया न मुसलमान चला गया, इंसान की जुस्तजू में इक इंसान चला गया।’ कहते हैं ये शायर बहुत ही संवेदनशील थे। हर बात को दिल पर ले लेते थे। इसलिए मानसिक स्थिति खराब हुई। कुछ लोगों का कहना है कि भारत-पाकिस्तान के बँटवारे और अपने सामने हुई कत्लेआम के कारण उनकी मानसिक स्थिति खराब हुई। हालाँकि कुछ लोग इससे इतर लखनवी को प्रेम में असफल होने के कारण उनकी मानसिक स्थिति खराब होने की बात करते हैं। इसके लिए वे उनके एक शे’र- ‘तेरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था’ का हवाला देते हैं। ये लोग यहाँ तक कहते हैं कि फिल्म प्यासा उनके ही जीवन पर बनी है।
मजाज़ को मानसिक रोगी होने के बाद इसी पागलखाने में रखा गया। यहीं उनकी मुलाकात बांग्ला के महान् कवि काज़ी नज़र उल इस्लाम से हुई। काज़ी इस्लाम को विद्रोही कवि कहा जाता था। जिसकी झलक उनकी एक कविता में भी है। उन्होंने लिखा है- ‘मैं हिन्दुओं और मुसलमानों को बर्दाश्त कर सकता हूँ, लेकिन चोटी वालों और दाढ़ी वालों को नहीं।’ कहते हैं कि उनकी मानसिक स्थिति भी आज़ादी के बाद हुए बँटवारे और हिंसा से ही गड़बड़ायी। इस अस्पताल में दोनों कवियों की काफी बातचीत होती थी।
नामचीनों का नहीं रहा नामोनिशान
आज हकीकत यह है कि मजाज़ लखनवी हों या नज़र उल इस्लाम इन लोगों का इस रांची रिनपास में कोई नाम-ओ-निशान नहीं है। उनकी मौज़ूदगी की रिनपास में न ही कोई निशानी है और न ही कहीं चर्चा। यहाँ तक कि रिनपास की वेबसाइट पर भी इन बातों का ज़िक्र नहीं है। रिनपास के रिकॉर्ड को खंगालने में यहाँ का प्रशासन असमर्थता जताता है। यहाँ के निदेशक, डॉक्टर या कर्मियों को भी जानकारी नहीं है कि कभी ये दो महान् कवि समेत कोई जानी-मानी हस्तियाँ रिनपास में इलाज के लिए आयी थीं। उन्हें केवल महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह के इलाजरत होने की जानकारी है।
बेहतरी के इंतज़ार में रिनपास
रिनपास का इतिहास काफी पुराना है। वर्ष 1925 इंडियन मेंटल हॉस्पिटल के नाम से रांची के कांके इलाके में इसकी स्थापना हुई थी। इसे पटना से रांची स्थानांतरित किया गया था। उस समय यहाँ 1265 मनोरोगी थे। इसके बाद सन् 1958 में इसका नाम रांची मानसिक आरोग्यशाला रखा गया और सन् 1998 में यह रिनपास बन गया। रिनपास आज भी संकट से जूझ रहा है। मौज़ूदा में अस्पताल में मरीज़ों के इलाज की क्षमता 500 है, जबकि यहाँ 600 के लगभग मरीज़ हैं।
वहीं डॉक्टर और अन्य कर्मियों की 611 पद हैं और कार्यरत लगभग केवल 150 हैं। इतना लम्बा सफर तय करने के बाद भी आज रिनपास बदहाल है और आधुनिक इलाज, सुविधाओं आदि से महरूम है। लम्बे समय से अपने उद्धार का इंतज़ार कर रहा है। समय-समय पर आर्थिक संकट से जूझता रहता है। हालत यह है कि बिहार से आर्थिक मदद नहीं मिलने के कारण अस्पताल प्रशासन ने वहाँ के मरीज़ों का भर्ती करना बन्द कर दिया है।
रिनपास प्रशासन ने झारखण्ड सरकार के पास न्यूरो साइंस से सम्बन्धित सभी तरह के इलाज की व्यवस्था के लिए प्रस्ताव भेजा है, जिससे यहाँ मानसिक सम्बन्धित हर तरह का बेहतर इलाज हो सके और भारत में इसका एक नया स्वरूप उभरकर सामने आये। यह तो आने वाले वक्त में ही पता चलेगा कि इस ऐतिहासिक धरोहर को सरकारों और प्रशासन द्वारा कितना सँभाला जाता है?
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अव्वल था यह पागलखाना
प्रथम विश्वयुद्ध के मनोरोगी अंग्रेज सैनिकों और एंग्लो-इंडियनों के लिए स्थापित इस मानसिक अस्पताल के पहले मेडिकल सुपरिटेंडेंट कर्नल ओवेन एआर बर्कले-हिल थे। इसके दूसरे सुपरिटेंडेंट जेई धनजीभाई की पहल पर सन् 1925 में भारतीय मानसिक रोगियों को भी इसमें जगह मिलनी शुरू हो गयी।
अपनी खास चिकित्सा पद्धति और अनेक कारणों से यह भारत ही नहीं वरन् दुनिया में अपने ढंग का अनोखा मानसिक अस्पताल रहा है। इसके मरीज़ नाटक करते थे; फुटबॉल, हॉकी खेलते थे; गीत-संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे।
रांची के बाज़ार में खरीदारी करते थे, पिकनिक मनाने जाया करते और सर्कस-जादू, थिएटर का आनंद लेते थे। इतना ही नहीं वे हिन्दी, अंग्रेजी, उडिय़ा, बांग्ला आदि भाषाओं में 10 से ज़्यादा पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते थे।
ब्रिटिश भारत में सिर्फ इसी पागलखाने में एक बहुत बढिय़ा लाइब्रेरी थी, जिसमें पढऩे के शौकीन मानसिक रोगी पूरे विश्व का साहित्य पढ़ते थे। सन् 1933 में जब देश में बहुत कम सिनेमाघर थे, तब इस अस्पताल के पास अपना प्रोजेक्टर, प्रशिक्षित ऑपरेटर और सिनेमा हॉल था। यहाँ पागलों का इलाज बड़े प्यार से सामान्य रोगियों की तरह किया जाता था। यहाँ तक कि उन्हें पार्क आदि में घूमने की छूट थी और उनके साथ परिजनों की तरह पेश आया जाता था तथा खुला सामाजिक माहौल दिया जाता था।
यहाँ मरीज़ों का इलाज दवाओं से ज़्यादा खेल, संगीत, कला, साहित्य, नाटक-रंगमंच जैसी अनेक रचनात्मक गतिविधियों के माध्यम से होता था। इतना ही नहीं किसी भी रोगी को कभी भी मानसिक अथवा शारीरिक प्रताडऩा नहीं दी जाती थी; न ही यहाँ दूसरे मानसिक अस्पतालों की तरह कारागार था और न ही उन्हें बाँधकर रखा जाता था। इसी अस्पताल में रोगियों के पुनर्वास की संकल्पना पहली बार की गयी।
लखनवी या इस्लाम के बारे में तो नहीं, केवल वशिष्ठ नारायण सिंह के इलाज के लिए आने की जानकारी है। अस्पताल में 15-20 साल पुराना रिकॉर्ड तलाशना सम्भव नहीं है। रिनपास के सुधार और बेहतर बनाने की ज़रूरत है। एक योजना तैयार कर प्रस्ताव झारखण्ड सरकार के पास भेजा गया है। मंज़ूरी मिली, तो आने वाले कुछ वर्षों में यह देश का सबसे बेहतर अस्पताल बनकर उभर सकता है।’’
डॉ. सुभाष सोरेन
निदेशक, रिनपास