प्रदेश की कांग्रेस सरकार क्या शिक्षा के महकमे को प्रयोगशाला बनाने पर तुली हुई है? शिक्षा पर अपने हठयोग की शुरुआत शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह ने जिस शिद्दत से करते हुए उसे पार्टी की विचारधारा से जोडऩे में कोशिश की, अगर उसका चौथाई हिस्सा भी स्कूलों की निगहबानी और गुणबत्त्ता में लगाया होता, तो उनकी इतनी फज़ीहत नहीं होती? मंत्री की लचर चाल से फायदों की तरफ टकटकी लगाये निजी क्षेत्र के स्कूलों की उम्मीदों में तो उफान आ गया। लेकिन सरकारी स्कूल हर उम्मीद से बेदखल हो गये। वरिष्ठ पत्रकार आनंद चौधरी कहते हैं- ‘बच्चों के भविष्य का निर्माण करने वाले स्कूलों में, जो खुद नींव के पत्थर हैं; में न दीवारे हैं, न छत, बैठने की व्यवस्था… कंगूरे तो दूर की बात है। बच्चे पढऩा चाहते हैं, माता-पिता पढ़ाना चाते हैं। तभी धूल-धूप और बारिश में भी बच्चे स्कूल आते हैं। पथरीली ज़मीन पर काँटो के बीच फूलों की तरह मुस्कुराते हुए ‘ककहरा’ पढ़ते हैं।’ गाँव गुबार की कंटीली झाडिय़ों में चल रहे 167 स्कूलों का तो कोई भवन ही नहीं है। जहाँ पाखंड सिर चढक़र बोलता है। वहाँ कोई विकल्प सूझता भी तो नहीं। अन्यथा इन्हीं गाँवों में पंचायत और पटवार भवन तकरीबन बन्द से पड़े हैं। क्या स्कूल वहाँ नहीं चलाये जा सकते? शैक्षिक दायित्व के मामले में प्रपंच तो पिछली सरकार ने भी कम नहीं रचा।
राजे सरकार का मगरूरियत में रचा-बसा बयान था कि उनके बदलाव और प्रयासों से राजस्थान शिक्षा के क्षेत्र में दूसरे नम्बर पर आ गया। लेकिन बेहतर होता कि पिछली सरकार के शिक्षा मंत्री देवनानी दो के आगे सिफर रखकर बोलते। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि स्कूलों की ड्रॉप आउट दर कहीं अधिक है। आधार भूत ढाँचा काफी कमज़ोर है। निजी स्कूलों की मनमानी जारी है। रहा सवाल गुणावत्ता का? तो इस फेहरिश्त में राजस्थान आिखरी पायदान पर है। वरिष्ठ पत्रकार विनोद मित्तल कहते है- ‘बच्चों और शिक्षकों के अनुपात में भारी असमानता है।’ यह सच भी है प्रदेश में 1547 स्कूल तो ऐसे हैं, जहाँ दस से भी कम बच्चे है। 40 स्कूलों में बच्चे तो हैं, लेकिन शिक्षक नहीं। सबसे खराब हालत जयपुर, जोधपुर और नागोर, बाड़मेर •िालों की हैं, जहां 25 से भी कम बच्चे हैं। जबकि 58 स्कूल तो ऐसे हैं, जहाँ एक भी बच्चा नहीं है। लेकिन वहंा तैनात दो दो शिक्षक पगार पा रहे है। पिछले दिनों उदयपुर जिले के खैरवाड़ा गाँव के स्कूल में हैरान करने वाला हादसा हुआ। जिस स्कूल को एक दिन पहले ही मज़बूत घोषित किया था। अचानक उसकी दीवार गिरी और तीन बच्चों की मौत हो गयी। ग्रामीण बस प्रदर्शन करके ही रह गये। शिक्षा शास्त्रियों ने इसे हादसा नहीं, परिजनों के सपनों की हत्या की संज्ञा दी। लेकिन सरकार तो बेखयाली के सन्निपात से नहीं उबर पायी? शिक्षा मंत्री तो वहाँ ढाढस बँधाने तक नहीं गये। राज्य में 25 से कम नामांकन वाले 8968 स्कूल हैं। इसे गज़ब ही कहा जाएगा कि, भरतपुर •िाले के नदबई के मरहमपुर स्कूल में एक कमरे में आठ कक्षाएँ चलती है। शिक्षा विभाग की ताज़ा रिपोर्ट को पढ़े तो, 29842 स्कूलों में तो बिजली ही नहीं है। इनमें 25 हज़ार 412 स्कूल तो प्राथमिक स्तर के है। खुद शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा के गृह •िाले के 738 स्कूलों में बिजली नहीं है। ऐसे घुप्प अँधेरे वाले स्कूलों में क्या तो बच्चे पढ़ते होंगे? और क्या शिक्षक उन्हें पढ़ा पाते होंगे। पड़ताल इस बात की तस्दीक करती है कि सरकारी स्कूलों में ज्ञान, विज्ञान दोनों का ही अर्जित करना मुश्किल है। वैज्ञानिक बनाने की तो पहली सीढ़ी ही टूटी हुई है। सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में विज्ञान संकाय तो हैं, लेकिन लैब बिना क्या करें? विज्ञान प्रयोगशाला किसी संदूकनुमा बक्से में भी हो सकती है? यह नज़ारा तो राजस्थान के स्कूलों में ही नज़र आएगा। राज्य सरकार की डाइस रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में 9 हज़ार स्कूल एकल शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं। शिक्षकों से वीरान पड़े स्कूलों की समस्या तो और भी विकट है। शिक्षक नहीं होंगे तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे? प्रदेश की स्कूली शिक्षा में शिक्षकों के 58 हज़ार खाली पदों की तस्दीक तो सरकारी आँकड़े भी करते हैं। पूर्ववर्ती सरकार में भर्तियों की औपचारिकता ही पूरी हुई। अन्यथा शिक्षकों की सूरत तक नज़र नहीं आयी। सरकार का ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारा बस लुभावना लगता है। अन्यथा हालत यह है कि लड़कियाँ प्राथमिक स्तर तक की तो शिक्षा ले रही है। लेकिन आगे रास्ता बन्द है। आिखर ऐसा क्यों है कि सरकार इस पुण्य काम के लिए भामाशाह वृत्ति के सेठ साहूकारों की बगलें झाँकनी पड़ती है। कम्प्यूटर तो सैलून का कारोबारी भी रखने लगा है। लेकिन अधिकांश स्कूली बच्चों ने कम्प्यूटर का नाम भर सुना है; लेकिन देखा नहीं है। स्कूल उच्च माध्यमिक स्तर तक के हो? लेकिन बच्चों के बैठने के लिए टाट पट्टी तक न हो? इससे बड़ी शर्मिन्दगी सरकार के लिए और क्या होगी। ताज़ा खबर और ताज़ा तरकारी की तासीर एक सी होती है। यह जिस्म में खून का दौरा बढ़ा देती है। राजस्थान का स्कूली सच भी इतना ही सनसनीखेज़ है कि हकीकत सुनकर ही जिस्म में सिहरन पैदा होने लगती है। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी पूरी शिक्षा व्यवस्था पर ही तंज कसते नज़र आते हैं कि शिक्षा का ढाँचा बेशक सरकार तय करती है। कॉलेज भी खोलती है; लेकिन नौकरी का वादा तो सिर्फ वादा ही रहता है। उच्च शिक्षा का मंत्रालय केन्द्र में है राज्य में भी है। लेकिन ठेका तो यूजीसी को दे रखा है। इनमें कितने लोग हैं, जो भारतीय संस्कृति से गहरा जुुुड़ाव रखते हैं। दरअसल, उच्च शिक्षा को जब तक बाज़ारवाद की तर्ज पर चलाया जाता रहेगा। यही नतीजे देखने को मिलेंगे। यह एक चौंकाने वाली हकीकत है कि ज्ञान में अँगूठाछाप पूरी रफ्तार से बढ़ रहे हैं। ये लल्लू छाप छात्र ऐसे होते हैं, जिन्हें अंग्रेजी साहित्य स्नातकोत्तर करने के बाद भी नौकरी के लिए ठीक से अर्जी लिखनी नहीं आती। शोध ग्रन्थों की हकीकत समझें तो दिल बेचैन रहता है कि कोई इन्हें पढ़ता क्यों नहीं?
असल में पीएच.डी के तो अधिकांश अभ्यार्थी तो ऐसे मिलेंगे, जिन्होंने कक्षा का मुँह तक नहीं देखा होगा। अलबत्ता अगर समझें तो किसी जुगाड़ में लगे छात्र राजनीति के दलदल में ज़रूर मुगालते में रहते हैं। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि आज उच्च शिक्षा तो हमारे ज्ञान का सबसे बड़ा अपमान बन गयी है। व्यावसायिक शिक्षा का इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं है। जानकार लोगों का कहना है कि कोई 4 साल में पीएच.डी कर लेगा तो उसका शोध ग्रन्थ कैसा होगा? डिग्री के लिए शोध लिखवाना और पास करवाना तो बड़ा कारखाना बनने की डगर पर चल पड़ा है। यकीनन इसे कड़वा सत्य ही कहा जाएगा कि न ही हम अपनी स्कूली शिक्षा से मुतमईन हैं ओर न ही उच्च शिक्षा को फंदेबाज़ी की केंचुल से मुक्त कर पाये हैं। शिक्षा शास्त्रियों का कहना है कि राजनेताओं के खैरात बांटने के गौरवपूर्ण इतिहास को देखते हुए तो शिक्षा के कायाकल्प की कहीं कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।
निजी स्कूलों के नियम भी निजी
राजस्थान के सरकारी स्कूल हर तरह बदनसीबी का अभिशाप भोग रहे हैं। इनकी बदहाली पर सरकारी हािकम घडिय़ाली आँसू तो बहा सकते हैं; लेकिन इससे बदहाली तो नहीं खत्म होती। राजनेताओं को अपने सियासी समर्थक जुटाने, बढ़ाने और पालने से ही फुरसत नहीं मिलती? यह नज़ारा उन्हें टीस नहीं देता कि एक तरफ धूप, ताप और मौसम की मार सहते बच्चे पढ़ते नज़र आते हैं, तो दूसरी तरफ भव्य अट्टालिकाओं वाले ए.सी युक्त स्कूलों में इसी प्रदेश के नौनिहाल अशर्फी लाल की तरह पढ़ रहे हैं।
सरकारी स्कूलों पर हज़ार नियम लागू होते हैं। लेकिन निजी स्कूल इन कायदे कानूनों को फूँक में उड़ा देते हैं। मनमानी फीस, स्टेशनरी, महँगी यूनिफार्म और निजी परिवहन व्यवस्था निजी स्कूलों की अपनी ही होती है। सरकार लाख चाहकर भी इन पर अंकुश नहीं लगा सकती है। हर निजी स्कूल का कर्ताधर्ता किसी न किसी राजनीतिक दल की छतनार सरीखी छत्रछाया में मस्त है। यह पूछे जाने पर कि आप सरकारी कायदों की नाफरमानी क्यों करते हैं? इस सवाल पर जवाब के बजाय वो बेशरमी से दाँत दिखा देते हैं। सरकारी स्कूलों को मेवे की तरह गटकने वाले निजी स्कूलों के मालिकों की हेकड़ी का पता तो तभी चल जाता है, जब शिक्षा विभाग के हाकिम उनके आगे पूँछ दबाये खड़े रहते हैं। निजी स्कूलों ने तो बात बात पर पैसा बटोरने के रिकॉर्ड ही तोड़ दिये हैं। इन स्कूलों में कुछ फीसदी गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का नियम है। लेकिन इन नियमों को सुनता कौन है? कांग्रेस जब विपक्ष में थी तो इन्हंी मुद्दों पर बिलखती थी। अब उसने भी ‘देखेंगे’ का आलाप शुरू कर दिया है। निजी स्कूल प्ले ग्रुप की नक्शेबाज़ी से कितनी रकम ऐंठ रहे हैं? सुनेंगे तो साँसे थम जाएँगी। निजी स्कूलों की मनमानी की हद तो देखिए कि सीबीएससी स्कूलों में आठवीं कक्षा तक उनका खुद का ही पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। यह कितना बड़ा कमाऊ धन्धा है? राज्य सरकार के मान्यता प्राप्त निजी स्कूल भी इसी कुण्ड में डुबकी लगा रहे हैं। यह सिस्टम एक तरह से स्कूल संचालकों और प्रकाशकों के बीच कुबेर बनने का स्मार्ट ब्रिज नहीं तो क्या है?