महिलाओं के िखलाफ नियमित होते अक्षम्य अपराधों ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। यह बहुत भयावह है। इसकी सज़ा भी ज़रूरी है; लेकिन हम कानून की परिधि से बाहर जाकर दी गयी सज़ा को न्यायोचित नहीं ठहरा सकते। जैसा कि एक पशु चिकित्सक से दुष्कर्म और उसकी हत्या के आरोपी चार लोगों के मामले में तेलंगाना में हुआ है। हालाँकि तेलंगाना पुलिस का दावा है कि उसने यह सब आत्मरक्षा के लिए किया; क्योंकि आरोपियों ने पुलिसकॢमयों के हथियार छीन लिये थे और हमला करके भागने की कोशिश कर रहे थे। पुलिस ने तो मुठभेड़ में आरोपियों को मार गिराया, लेकिन अब मानवाधिकार संगठन पुलिस के साथ-साथ राज्य सरकार पर भी आरोप लगा रहे हैं कि महिला सुरक्षा सुनिश्चित करने में उनकी विफलता को छिपाने के लिए मुठभेड़ का नाटक रचा गया। इस मामले में एनएचआरसी ने स्वतंत्र जाँच की सिफारिश करते हुए कहा है कि पुलिस ज़रूरत के हिसाब से सतर्क नहीं थी, जिसके परिणामस्वरूप सभी चार आरोपी मारे गये। एनएचआरसी के दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि यदि बल प्रयोग करने का औचित्य साबित नहीं होता, तो यह एक अपराध होगा और पुलिस गैर-इरादतन हत्या की दोषी होगी। न्याय के पहिये धीमे ज़रूर चलते हैं, लेकिन यह देरी न्याय परिधि से बाहर जाकर की गयी हत्याओं को सही ठहराने का आधार नहीं हो सकती। समाज को दूषित सोच से भरी मर्दानगी और प्रचलित पितृसत्ता से छुटकारा पाने की आवश्यकता है।
उप राष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने भी स्वीकार किया कि त्वरित न्याय नहीं हो सकता है, लेकिन लगातार देरी भी नहीं हो सकती है। हमें और अधिक फास्ट ट्रैक अदालतों की आवश्यकता है; क्योंकि गति और निष्पक्षता एक कुशल न्यायिक प्रणाली के प्रमुख तत्त्व हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि न्याय प्रणाली कमज़ोर है और इसमें देरी से सज़ा की दर कम होती है। उदाहरण के लिए बलात्कार के मामलों में सज़ा की दर 1971 में 62 फीसदी थी, 1983 में 37.7 फीसदी, 2009 में 26.9 फीसदी; और 2013 में घटकर 27.1 फीसदी रह गयी। लेकिन यह स्थिति पुलिस को कानून को अपने हाथ में लेने और उन्हें न्यायाधीश और जल्लाद बन जाने का लाइसेंस नहीं दे देती; क्योंकि यदि ऐसा जारी रहा तो कानून के शासन की नींव ही हिल जाएगी। अपराध की जाँच में शॉर्टकट नहीं हो सकते। कानून के समक्ष जीवन और समानता का अधिकार से लेकर भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार हैं।
प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने स्पष्ट कर दिया है कि न्याय त्वरित नहीं हो सकता है और बदला इसका विकृप नहीं है। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपराधिक मामलों को निपटाने में लगने वाले समय को लेकर आपराधिक न्याय प्रणाली को अपनी स्थिति और दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना चाहिए। जस्टिस बोबडे ने कहा कि मुझे नहीं लगता कि न्याय तुरन्त हो सकता है या होना चाहिए। न्याय कभी भी बदले की जगह नहीं ले सकता। मैं मानता हूँ कि यदि न्याय बदले में तब्दील होता है, तो यह अपना वास्तविक चरित्र को खो देता है।