सूर्यनाथ सिंह के नए कहानी संग्रह ‘धधक धुआं धुआं’ के केंद्र में गांव है. इस संग्रह में शामिल छह कहानियों को गांवों पर लिखी गई बेहद सशक्त कहानियां करार दिया जा सकता है. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि उदारीकरण के बाद के दौर में गांवों पर लिखने और बगैर अतीतजीवी हुए कटु यथार्थ लाने वाले कम ही रह गए हैं. ऐसा इसलिए हुआ है कि नए लेखकों के जीवन में ही गांव अनुपस्थित है. ये कहानियां उन गांवों की कहानियां हैं जो तेजी से परिवर्तित होते हमारे समाज में आधे बाहर और आधे भीतर हैं. ये बेहद तेज बदलावों से प्रभावित हो रहे हैं लेकिन उनसे कदमताल करने में कामयाब नहीं हैं.
संग्रह की पहली कहानी ‘जो है सो’ हर उस गांव की कहानी है जहां विकास एक्सप्रेसवे पर सवार होकर पहुंचा है. वहीं संग्रह के शीर्षक वाली कहानी ‘धधक धुआं धुआं’ फेसबुक के जरिए अरसा बाद संपर्क में आए दोस्तों में से एक के नॉस्टेल्जिक होने और यथार्थ से टकराहट के बाद उसे होने वाली निराशा की कहानी है. अरसा पहले साहित्यालोचकों के एक धड़े ने राग दरबारी में गांवों की नकारात्मक छवि पेश करने की बात कहते हुए श्रीलाल शुक्ल की आलोचना की थी. शायद उनके सपनों में गांव अब भी हिंदी फिल्मों में सत्तर के दशक में दिखाए जाने वाले सुरम्य गांव होंगे. लेकिन सूर्यनाथ सिंह की कहानियां हमें बताती हैं कि गांव अब बदल चुके हैं. वे राजनीति के अखाड़े हैं, वे कारोबारी-नेता गठजोड़ की नजर में कमाई का अच्छा जरिया हैं और वे शहरों में रह रही पीढ़ी के लिए जरूरत पडऩे पर पैसे जुटाने का एक साधन हैं. उपयोगितावाद का चरम हैं. हर चीज, हर रिश्ता इस्तेमाल के लिए है. पेशे से पत्रकार सूर्यनाथ सिंह की कहानियों के विषय जाहिर तौर पर रोजमर्रा में खबरों में प्रमुखता से आने वाले विषय हैं. इसके अलावा उनकी भाषा भी बेहद साधारण और सधी हुई है. ये कहानियां महत्वपूर्ण हैं क्योंकि निरंतर हो रहे शहरीकरण के बावजूद हमारा देश आज भी गांवों का देश है और ये गांव अब सीधे-सादे सरलहृदय लोगों के फिल्मी गांव नहीं हैं. वहां भी जीवन उतना ही जटिल और कष्टसाध्य है जितना कि कहीं और. सूर्यनाथ सिंह इससे पहले एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास तथा बच्चों के लिए बेहद विविधतापूर्ण साहित्य की रचना कर चुके हैं.