बजरी माफिया का खूनी शिकंजा

संगठित अपराध और हिंसक गतिविधियों के चलते खनन माफिया ने पूरे राज्य को निजी जागीर के रूप में बन्धक बना लिया है। माफिया की दहशतगर्दी का इससे बड़ा सुबूत और क्या होगा कि जहाँ कहीं भी उन्हें रोका गया, उन्होंने खून की नदियाँ बहाने में एक पल की भी देर नहीं की। अलवर में बार्डर होमगार्ड की नृशंस हत्या और जालोर में पिता, पुत्र, पुत्री को ट्रेक्टर-ट्राली से कुचलने की हाहाकारी घटनाएँ प्रतीकात्मक रूप से एक भयावह सच्चाई को उजागर कर रही थी कि राज्य की बागडोर अब माफिया सरदारों के हाथों में पहुँच गयी है। अलवर में खनन माफिया के दुस्साहस की पराकाष्ठा थी कि पहले तो रोके जाने पर हेामगार्डों को ट्रेक्टर-ट्राली चढ़ाकर एक गार्ड की हत्या कर दी। फिर बजरी माफिया के गुण्डे पत्थर बरसाकर भाग निकले। जालोर के खायला कस्बे में अवैध बजरी ले जा रहे ट्रेक्टर ने रोक-टोक किये जाने पर एक परिवार को ही कुचल दिया। पिछले पाँच साल में माफिया के बढ़ते शिकंजे में कितने लोग जान गँवा चुके हैं। इसके आँकड़े ही चौंका देते हैं।

जल, जंगल और पर्वतों को खोखला करने वाले गिरोहबंद बेखौफ खिलाडिय़ों की दस्तक को क्या अनसुना किया जा रहा है? सरकार इस मामले में सफाई देते हुए नहीं थकती कि पिछले तीन साल में बजरी माफिया से 100 करोड़ का ज़ुर्माना वसूला जा चुका है। लेकिन साथ ही बुझे मन से प्रशासन भी अपराधीकरण को भी स्वीकार करता है कि माफिया के हौसले बुलंद है। इस मामले में सरकार द्वारा तैयार करवाई गयी एक रिपोर्ट अवैध खनन की मोटी तस्वीर तो बयाँ करती है, लेकिन रिपोर्ट में इस खेल को रोकने की कोशिशों की स्पष्ट तस्वीर का ज़िक्र तक नहीं है। खनन मंत्री प्रमोद जैन भाया यह कहकर अपनी ज़िम्मेदारियों से भागते हुए नज़र आते हैं कि ‘यह कैंसर तो हमें पिछली भाजपा सरकार ने दिया है। हमें तो इसे जबरन भोगना पड़ रहा है।

भाया यह कहते हुए अपनी परवशता जताते हैं कि इस कैंसर का इलाज आसान नहीं है। हालाँकि उन्होंने माफिया को नेस्तोनबूद करने के लिए यह कहते हुए नयी नीति लाने का ज़िक्र भी किया कि एक सीमा तक खनन में वैधता निर्धारित कर दी जाए, ताकि यह खेल थम सके। लेकिन जानकार सूत्रों का कहना है कि इस तरह के बयान तो खनन मंत्री की लफ्फाज़ी के सिवाय कुछ नहीं है। सवाल है कि ज़मीनी स्तर पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? सूत्र तो यहाँ तक कहते हैं कि पूरा खेल राजनीतिक संरक्षण और विभागीय अफसरों की मिलीभगत पर टिका है। भाजपा नेता इसका पूरा दोष सन् 2013 के दौरान सत्ता में रही कांग्रेस सरकार पर मढ़ते हैं कि यह नौबत तो तत्कालीन गहलोत सरकार की नीतियों का नतीजा है। खनन कारोबारी कुछ और ही पीड़ा बयाँ करते हैं। उनका कथन सरकार की मंशा को ही कटघरे में खड़ा करता है कि अवैध खनन रोकने के लिए बनाये गये 80 चैक पोस्ट हटाने का क्या मतलब था? खनन महकमे के भविष्य को लेकर दो धारणाएँ हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस मंत्रालय को ही समाप्त कर देना चाहिए। इसके कलुषित इतिहास को देखते हुए इससे बड़ा कोई विकल्प नहीं हो सकता।

बजरी खनन के अवैध खेल को लेकर मंत्रीजी का तर्क है कि इस बाबत तो केंद्र सरकार ही कोई नीति बनाए, तो बेहतर होगा। लेकिन सवाल है कि बजरी खनन के लाल बाग में मज़े करने वाला माफिया क्या किसी भी नीति को सफल होने देगा? परजीवी िकस्म का माफिया क्यों नयी पाबंदियों को चलने देगा? विशेषज्ञों का कहना है कि बजरी माफिया पर शिकंजा कसने की ताकत ही जब छीज रही हो, तो कैसा भी कोई कानून क्या कर लेगा?

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने बजरी माफिया के बुलंद होसलों पर राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए जवाब तलबी की कि ‘अवैध बजरी खनन रोकने के लिए क्या किया? चार हफ्ते में बताए सरकार।’ बीती फरवरी में जारी किये गये इस आदेश को 6 महीने गुज़र चुके हैं। लेकिन सरकार ने क्या किया? 100 करोड़ का ज़ुर्माना वसूला और 30 हज़ार वाहनों को ज़ब्त किया। किन्तु बजरी खनन तो नहीं थमा। बजरी माफिया कितना ताकतवर है? इसकी तफतीश करें तो, तस्करी के तार मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश हरियाणा-दिल्ली तथा गुजरात और महाराष्ट्र तक जुड़े हैं। अरावली के खत्म होते पहाड़ों की तस्वीर पर हैरानी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ तक कह दिया कि ‘क्या इन पहाड़ों को हनुमान जी उठा ले गये?’

सूत्रों का कहना है कि बजरी माफिया को बेकाबू करने के नाम पर अब तक समितियाँ बनती रही हैं और बैठकें होती रही हैं। लेकिन समितियाँ में शामिल अफसर बजरी माफिया की आहटों को सुनने तक को तैयार नहीं है। बजरी माफिया के हौसले बुलंद हैं और वो पूरी गिरोहबन्दी के साथ सरकारी फौज पाटे से दो-दो हाथ करने को तैयार लगता है। इस मुहाने पर खान महकमा क्या कर रहा है? कोई खबर नहीं है। हैरत की बात है कि पिछली भाजपा सरकार की मुखिया वसुंधरा राजे ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाते हुए रेत खनन पर लगाये गये प्रतिबन्ध में कुछ रियायतें देने की याचिका लगायी थी। लेकिन विद्वान न्यायाधीश लाकोर ने दोहराया कि ‘पारिस्थितिकी पर खनन के प्रभाव तथा रेत की फिर से भरायी की दर के वैज्ञानिक आकलन के बाद ही खनन की अनुमति दी जाए।’ लेकिन यह आदेश खनन और निर्माण क्षेत्र में सक्रिय परिवारों को प्रभावित करने वाला साबित हुआ। नतीजतन रेत और बजरी के दाम आसमान छूने लगे। यहाँसर्वोच्च न्यायालय के 2012 में दिये गये आदेशों का ज़िक्र करना भी प्रासंगिक होगा। इसमें कहा गया था कि ‘बालू रेत के खनन से जुड़ी एक नीति बनायी जाए, जिसमें पर्यावरण की मंज़ूरी, उसकी निगरानी और लीज से जुड़े अन्य ज़रूरी प्रावधान भी शामिल किये जाए। खनन का अधिकार इसी नीति के तहत दिया जाए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी के बावजूद सरकार ढीली-ढाली ही बनी रही। अलबत्ता

सरकारी अफसर इस मामले में लीपापोती ही करते रहे कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन करने का पूरा प्रयास कर रही है। लेकिन सरकार चाहे जो नीति बना ले, फायदों की कोई-न-कोई सूरत तो बजरी माफिया अपने लिए निकाल ही लेता है। दरअसल यह पूरा खेल ज़िद और पूर्वाग्रहों में फँस गया है। जब प्रदेश में कांग्रेस सत्तारूढ़ होती है, तो पूर्ववर्ती भाजपा सरकार पर तोहमतें जड़ती है। जब भाजपा सरकार में होती है, तो पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार पर जमकर कीचड़ उछाला जाता है। विवादों और तजुर्बों को लेकर कोई मुहिम चलायी जाए, ऐसा कभी नहीं होता। लेकिन इस जंग में कोई मुनाफे के सूत्र खोजने में कामयाब होता है, तो वो है बजरी माफिया। चेजा पत्थर जैसी चीज़ की भी अचानक माँग बढ़ जाना इसकी अनूठी मिसाल है। आसलपुर पर खनन विभाग जयपुर के क्षेत्राधिकार की 40 खदानें (38.47 हेक्टेयर) स्वीकृत हैं। सभी खदानें सन् 1999 से सन् 2008 के बीच में स्वीकृत की गयी हैं। इन खदानों में करीब 12 से अधिक अवैध खनन के गड्ढे वर्तमान में मौज़ूद है। पूरी 40 खानों में कुल खनन क्षेत्रफल की गणना की जाए तो अब तक लगभग सवा करोड़ लाख टन चेजा पत्थर का खनन किया गया है। जबकि विभागीय रवन्ना रिकॉर्ड के अनुसार, उत्तर क्षेत्र से आसलपुर क्षेत्र की खदानों से केवल 70 लाख टन चेजा पत्थर ही खनन किया गया है। शेष 52 लाख करोड़ टन का अवैध खनन है। सन् 2010 तक यहाँ से 11 लाख टन चेजा पत्थर का खनन हुआ। सन् 2009 के बाद खनन की रफ्तार बढ़ी। इसका एक कारण फ्रंट कॉरिडोर और मेट्रो का काम भी प्रदेश में होना रहा। चेजा पत्थर की डिमांड बढ़ी, तो अवैध खनन में भी रफ्तार बढ़ी है। क्या यह सुराग सरकार को चौंकाते नहीं कि बनास नदी की बजरी की माँग महाराष्ट्र तक है। उदयपुर से बजरी की तस्करी गुजरात के कई ज़िलों में होती है। बनास की बजरी सबसे उच्च गुणवत्ता वाली मानी जाती है। हरियाणा में बनास की बजरी सबसे ज़्यादा जाती है। इसकी खबर जन-जन को है; लेकिन कोई बेखबर है, तो खनन मंत्री और उनके महकमे का पूरा लाव-लश्कर! खनन माफिया ने तो भारत-पाक सीमा क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा। बॉर्डर की करीब एक दर्ज़न चौकियाँ माफिया की कारगुजारी की चपेट में हैं। नतीजतन सुरक्षा बलों का इन चौकियों तक पहुँचना मुश्किल हो रहा है। इसकी वजह इस क्षेत्र में जिप्सम (हरसौंठ) का अकूत भण्डार है।

जिप्सम निकालने में जुटे माफिया ने बॉर्डर पर पहुँचने वाली सभी सडक़ों को तहस-नहस कर दिया है। सीमावर्ती क्षेत्र में सफेद सोने के नाम से विख्यात बेशकीमती जिप्सम का भण्डार है। हालात ये हैं कि बीएसएफ और सेना के वाहनों को बॉर्डर तक पहुँचने में दोगुना ज़्यादा समय लगता है। कई स्थानों पर तो सडक़ के अवशेष तक नहीं बचे हैं। खाजूवाला से बिज्जू के बीच जिप्सम का बड़े पैमाने पर खनन होता है। यहाँ पर सीमावर्ती सडक़ों से ओवरलोड दर्ज़नों ट्रक रोज़ाना गुज़रते हैं। जबकि यहाँ सडक़ का निर्माण सीमा चौकियों पर सेना के आवागमन के लिए किया गया था। ग्रामीण बताते हैं कि जिप्सम माफिया पुलिस और खनन विभाग के दस्तों की पकड़ में नहीं आये, इसलिए सडक़ को जान-बूझकर तोड़ देते हैं। इनके पास खुदाई करने वाली बड़ी मशीनें हैं। माफिया और अपराधी नहीं चाहते कि यहाँ ज़्यादा लोग आबाद हों। खेती-बाड़ी करना और आवागमन सुगम होने पर माफिया के मंसूबे पूरे नहीं होंगे। ऐसे में माफिया गाँवों तक आवागमन के रास्तों को निशाना बनाते हैं। उन्हें यह भी भ्रम या कहें कि घमण्ड है कि उनका कोई क्या कर लेगा? यह भ्रम या घमण्ड किन लोगों के दम पर है? यह बात बहुत-से लोग जानते हैं; मगर कहे कौन?