कोविड-19 वैश्विक महामारी के प्रकोप के समय दुनिया के बच्चों की ओर ध्यान दिलाना मानवीय दायित्व है। लॉकडाउन के इस दौर में अधिकांश जानकारियाँ कोविड-19 वायरस के संक्रमण को रोकने, इससे संक्रमित लोगों के आँकड़े, मरने वालों की संख्या, स्वास्थ्यकॢमयों पर होने वाले हमलों, पीपीई किट की कमी, रेपिड टेस्ट किट की गुणवत्ता पर सवाल, ज़रूरी सामान की कमी, मज़दूरों की समस्याएँ, सभी गरीब व प्रवासी लोगों को भोजन के पैकेट नहीं मिलने वाली खबरें, कहीं पुलिस पर तो कहीं स्वास्थ्यकॢमयों पर फूल बरसाने वाली खबरें सामने आ रही हैं और चर्चा भी इन्हीं पर फोकस रहती हैं। लेकिन कोविड-19 के प्रभावों वाली चर्चा में बच्चे किस कदर प्रभावित हो रहे हैं और इस महामारी का बच्चों पर क्या दूरगामी असर होगा? यह बिन्दु नदारद है। महामारियों का इतिहास गवाह है कि बच्चों की ज़िन्दगी बुरी तरह से प्रभावित होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी मुल्कों के सभी आयुवर्ग के बच्चे प्रभावित होंगे, यह बात गौर करने लायक है कि सबसे गरीब मुल्कों और अन्य मुल्कों के सबसे गरीब घरों के बच्चों पर यह महामारी भयंकर असर छोड़ेगी।
यह वैश्विक संकट ज़रूर है, लेकिन चिन्ता की बात यह है कि इसके असर सब पर एक समान नहीं होने वाले; असमानता यहाँ भी अपना असर दिखायेगी। गरीब बच्चों की संख्या बढ़ जाएगी। स्ट्रीट चिल्ड्रन की हालत और खराब होगी। भारत में ही इस समय करीब 20 लाख स्ट्रीट चिल्ड्रन हैं। इस समय उनके हालात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। दुनिया भर के संवेदनशील तबकों के बच्चों की ज़िन्दगी अब पहले की तरह नहीं रहेगी। दुनिया के कई हिस्सों में उनकी ज़िन्दगी में जो थोड़ी प्रगति हुई थी, अब उसकी रफ्तार बहुत ही धीमी होने या रुक जाने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
गरीब बच्चों पर ज़्यादा संकट
कोविड-19 महामारी बच्चों को किस कदर प्रभावित कर सकती है, इसके मद्देनज़र संयुक्त राष्ट्र की पॉलिसी ‘ब्रीफ : द इम्पेक्ट ऑफ कोविड-19 ऑन चिल्ड्रन’ में अनुमान व्यक्त किया गया है कि इस महामारी के कारण इस साल अत्यधिक गरीबी की श्रेणी में 4 करोड़ 20 लाख से 6 करोड़ 60 लाख बच्चे आ सकते हैं। यह संख्या उन बच्चों से अतिरिक्त होगी, जो कि 2019 में पहले से ही इस श्रेणी में हैं।
कोविड-19 की रोकथाम के लिए उठाये गये लॉकडाउन व शारीरिक दूरी जैसे कदम दुनिया भर में उठाये गये हैं, लेकिन इससे देशों की अर्थ-व्यवस्था भी प्रभावित हुई है। अकेले अमेरिका में ही अब तक दो करोड़ लोग बेरोज़गार हो गये हैं। एक करोड़ लोगों ने बेरोज़गारी भत्ते के लिए आवेदन किया है। दुनिया भर में घरेलू स्तर पर रोज़गार प्रभावित हुआ है; भारत भी इससे बचा नहीं है। भारत के उद्योग जगत की लॉकडाउन के चलते आॢथक सेहत को समझने के लिए फिक्की के सेक्रेटरी जनरल दिलीप चिनॉय कहते हैं- ‘सवाल सिर्फ यह नहीं है कि हम लॉकडाउन से रोज़ाना 40 हज़ार करोड़ का नुकसान उठा रहे हैं, बल्कि 4 करोड़ लोगों के रोज़गार को लेकर भी खतरा हैं।’
ऑनलाइन पढ़ाई कहाँ तक सफल
इस समय विश्व के करीब 188 मुल्कों ने अपने-अपने यहाँ स्कूल बन्द किये हुए हैं और इससे अंदाज़न एक अरब 50 करोड़ बच्चे व युवा प्रभावित हो रहे हैं। यद्यपि बहुत-से मुल्क शिक्षण संस्थानों के बन्द होने के प्रभाव को कम करने के मकसद से डिस्टेंस लॄनग यानी दूरस्थ शिक्षा का विकल्प अपना रहे हैं। बच्चों और किशोरों को ऑनलाइन पढ़ाये जाने की व्यवस्था की गयी है। भारत भी ऐसे मुल्कों की सूची में शमिल है, जहाँ सरकारी तथा गैर-सरकारी स्कूल अपने विद्याॢथयों को ऑनलाइन पढ़ा रहे हैं। ऐसे हालात में पहली से 12वीं तक के कोर्स को छोटा करने की तैयारियों पर काम शुरू हो गया है, ताकि चार-पाँच महीनों में वह कोर्स बच्चों को कराया जा सके। मौज़ूदा समय में ई-लॄनग के ज़रिये सरकार करीब 25 करोड़ बच्चों को अलग-अलग माध्यमों से घर बैठे पढ़ाये जाने की कोशिश में जुटी हुई है। पर इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। दुनिया में निम्न आय वाले मुल्कों में से केवल 30 फीसदी मुल्क ही यह सेवा अपने बच्चों को मुहैया करा पा रहे हैं। भारत में ऑनलाइन पढ़ाया जाने की सुविधा तक सभी बच्चों की पहुँच एक समान नहीं है। डिजिटल डिवाइड क्लास, लिंग, क्षेत्र, रहने की जगह आदि में साफ अन्तर झलकता है। सबसे गरीब घरों के 20 फीसदी घरों में से महज़ 2.7 फीसदी की ही कम्प्यूटर तक पहुँच है और 8.9 फीसदी है।
मुल्क के राज्यों में भी कम्प्यूटर तक पहुँच का प्रतिशत अलग-अलग है। बिहार में महज़ 4.6 फीसदी घरों की कम्प्यूटर तक पहुँच है; जबकि दिल्ली में यह आँकड़ा 35 फीसदी है। इसी तरह राज्यों में इंटरनेट तक पहुँच वाला मसला भी गम्भीर है। मिसाल के तौर पर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, केरल, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखण्ड में 40 फीसदी से अधिक घरों की इंटरनेट तक पहुँच है। जबकि आंध्र प्रदेश, ओडिशा, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में यह आँकड़ा 20 फीसदी से कम है। बीते दिनों एक गैर-सरकारी संगठन ने दिल्ली उच्च अदालत में दायर एक जनहित याचिका के ज़रिये ईडब्ल्यूएस और वंचित समूह के उन बच्चों का मुद्दा उठाया था, जो कि कोविड-19 संकट के चलते निजी स्कूलों द्वारा संचालित ऑनलाइन कक्षाओं से बाहर है। क्योंकि उन गरीब, साधनहीन बच्चों के पास लेपटॉप, स्मार्ट फोन, टैब और इंटरनेट की व्यवस्था नहीं है। बेशक दिल्ली सरकार ने अदालत में दावा किया कि निजी स्कूलों में पढऩे वाले ऐसे सभी बच्चों के पास वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा उपलब्ध है और ऐसे 80 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों की ऑनलाइन कक्षाओं में शमिल हो रहे हैं। सरकार का पक्ष सुनने के बाद उच्च अदालत पूरी तरह से संतुष्ट नडऱ नहीं आयी और टिप्पणी की कि सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि संसाधनों के अभाव में किसी भी बच्चे की पढ़ायी का नुकसान न हो। इस बात का ज़िक्र करना भी महत्त्वपूर्ण है कि लड़कियों की डिजिटल तकनीक पर लडक़ों की अपेक्षा कम पहुँच होती है। ऐसे में उनकी ऑनलाइन पढ़ाई तक पहुँच उसमें उसमें भागीदारी सीमित हो सकती है। इंटरनेट तक लड़कियों की पहुँच लडक़ों की तुलना में कम है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया रिपोर्ट के अनुसार; 2019 में 67 फीसदी पुरुषों की पहुँच इंटरनेट तक थी, जबकि 33 फीसदी महिलाओं की ही पहुँच इंटरनेट तक थी।
छात्राओं का भविष्य
स्कूल बन्द होने से छात्राओं के फिर से स्कूल जाने के अवसर भी प्रभावित होते हैं, उनका ड्रापआउट रेट बढ़ सकता है। उनकी किशोरावस्था में गर्भधारण करने की सम्भावना भी बढ़ जाती है। बाल विवाह की चपेट में आने का खतरा भी पहले से अधिक गहराने लगता है। अफ्रीकी मुल्क सिएरा लियोन 2014 में इबोला वायरस प्रकोप की चपेट में आया। इस मुल्क के इबोला प्रभवित एक ज़िले में सर्वे से पता चला कि वहाँ इस प्रकोप से पहले अति कुपोषित बच्चों की संख्या 1.5 फीसदी थी, जो कि प्रकोप के बाद 3.5 फीसदी हो गयी। सिएरा लियोन के ही उन गाँवों में जहाँ इबोला प्रकोप अधिक था, वहाँ किशोरावस्था में गर्भधारण करने वाली घटनाएँ उन गाँवों की तुलना में 11 फीसदी अधिक पायी गयीं, जहाँ इबोला का प्रकोप कम था। ये सभी किशोरियाँ अविवाहित थीं। सिएरा लियोन के ही पड़ोसी मुल्क लाइबेरिया में भी इबोला वायरस का संक्रमण फैल गया और इस प्रकोप के चलते लाइबेरिया में करीब 70,000 शिशुओं का पंजीकरण नहीं हो पाया। जनवरी-मई 2015 यानी इन पाँच महीनों में सरकार के रिकॉर्ड में महज़ 700 बच्चों के पैदा होने का रिकॉर्ड ही दर्ज है।
दूसरी बीमारियाँ और आँगनबाड़ी
गौरतलब है कि अभी तक कोविड-19 के बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव बहुत ही कम हैं। मगर यह महामारी बच्चों के स्वास्थ्य व उनके जीवित रहने की सम्भावनाओं पर अपना असर दिखायेगी। कोविड-19 से पहले 2020 में जितने बच्चों के मरने का अनुमान व्यक्त किया गया था, अब उस संख्या में कोविड-19 के कारण कई हज़ार और बच्चों के मरने की अशंका व्यक्त की जा रही है। विश्वभर में बाल टीकाकरण अभियान की गति पर भी असर देखने को मिलेगा। पोलियो, जो कि भारत के पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान व अफगानिस्तान में अभी भी बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले रहा है, वहाँ इसके खात्मे वाला अभियान भी प्रभावित हो सकता है। 23 मुल्कों में खसरा टीकाकरण अभियान को स्थगित कर दिया गया है। भारत में इस महामारी के दौर में करीब 14 लाख आँगनबाड़ी केंद्र भी बन्द कर दिये गये हैं। और हमें नहीं भूलना चाहिए कि देश भर में खुले इन केंद्रों से लाभान्वित होने वाले 6 साल से कम आयु के बच्चों की संख्या करीब 8.2 करोड़ और 1.9 करोड़ गर्भवती व स्तनपान कराने वाली माँएँ भी लाभ उठाती हैं।
मौज़ूदा हालात मे महिला व बाल विकास मंत्रालय ने आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को लाभार्थियों के घर जाकर राशन वितरित करने के आदेश तो जारी कर दिये हैं, मगर इस टेक होम राशन वाली व्यवस्था के क्रियान्वयन में काफी दिक्कतें भी आ रही हैं। राजधानी दिल्ली के दल्लूपुरा में रहने वाली एक महिला से जब मैंने पूछा कि क्या आँगनबाड़ी कार्यकर्ता उसके घर आकर उसकी चार साल की बच्ची, जो कि वहाँ के आँगनबाड़ी केंद्र्र में पंजीकृत है; उसके हिस्से का राशन देने आती है? जवाब न में मिला। यही निराशाभरी आवाज़ उसके साथ खड़ी अन्य औरतों की भी सुनायी पड़ी। दरअसल सरकार व मनोवैज्ञानिक सभी जानते हैं कि कोविड-19 के चलते मानव जगत के समक्ष जो स्वास्थ्य, आॢथक, सामाजिक, पारिवारिक व मनोवैज्ञानिक दिक्कतें खड़ी हो गयी हैं, उनका बच्चों व गर्भवती और युवा माँओं पर अलग ही असर देखने को मिल सकता है। भारत के तेलगांना सूबे की आँगनबाड़ी कार्यकर्ता सरकार के निर्देशानुसार गर्भवती महिलाओं को होम विजिट के दौरान कोविड-19 सम्बन्धी खबरें नहीं सुनने की सलाह दे रही हैं।
श्रीनगर के स्थानीय प्रशासन ने हाल ही में आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर गर्भवती महिलाओं का खास ध्यान रखने की एक योजना बनायी और उस पर अमल भी शुरू हो गया है। इसका मकसद कोविड-19 के मुश्किल हालात में गर्भवती माँ और उसके होने वाले बच्चे की सेहत के साथ-साथ उनकी ज़रूरतों को पूरा करना है। ऐसे वक्त में जब वहाँ बाज़ार बन्द हैं। डॉक्टरों और क्लीनिक या अस्पताल तक पहुँच आसान नहीं हैं और वहाँ अन्य कई तरह के प्रतिबन्ध भी लगे हुए हैं। इस राष्ट्रीय लॉकडाउन के बीच समेकित बाल विकास सेवा से सम्बद्ध आँगनबाड़ी कार्यकर्ता श्रीनगर में गर्भवती महिलाओं तक पहुँच रही हैं। कई गर्भवती महिलाएँ खुद भी केंद्र में आ रही हैं। यह कार्यकर्ता उन्हें दो पैकेट उपहार के तौर पर दे रही हैं। एक पैकेट होने वाले शिशु के लिए है, जिसमें एक नर्म बेबी कम्बल, डायपर, कपड़े, साबुन व अन्य कुछ ज़रूरी सामान होता है। दूसरा पैकेट गर्भवती माँ के लिए है, जिसमें गर्म पानी वाली बोतल, रात के समय पहनने वाली आरामदायक ड्रेस और चप्पल आदि होते हैं। कश्मीर के डिवीजनल कमिश्नर पी.के. पॉल ने ज़िला अथॉरिटी को सभी गर्भवती महिलाओं के शिशु जन्मने वाली योजना बनाने को कहा है, ताकि ऐसी महिलाओं की पहले ही कोविड-19 स्क्रीनिंग की जा सके। कोविड-19 के संकट के मद्देनज़र क्या अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तय समय सीमा 2030 तक टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल कर पायेगा? यह सवाल मौज़ूदा वक्त में इसलिए भी अधिक प्रासगिंक व महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल करने का मोटा मतलब बच्चों के सर्वांगीण विकास से है। कोविड-19 ने दुनिया के अंतिम छोर में रहने वाले, प्रगति की रफ्तार में पीछे छूट गये बच्चों को और अधिक पीछे धकेल दिया है।