पाँच साल का एक बच्चा दिल्ली के एक मॉल में अपने माता-पिता के साथ एक दुकान से दूसरी दुकान घूमता दिखायी देता है। कुछ देर बाद वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगता है और किसी चीज़ को ख़रीदने की जिद करने लगता है। माता-पिता वह ख़रीदने से मना कर देते हैं, तो वह बच्चा वीडियो गेम (ऑनलाइन खेल) खेलने के लिए उनसे मोबाइल माँगता है। माता-पिता एकाध बार उसे समझाते हैं और फिर उसे मोबाइल देकर अपने को आज़ाद महसूस करने लगते हैं।
दरअसल बच्चों का ऐसा व्यवहार इन दिनों अपवाद नहीं है। चारों ओर यही दिखायी देता है। वीडियो गेम बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं। ऐसे गेम्स से होने वाले लाभ और हानि को लेकर बहुत कम लोग चिन्तित हैं। वहीं समाज, माता-पिता, अध्यापक वर्ग और शोधार्थियों की इसे लेकर अलग-अलग राय है। अभिभावकों का एक वर्ग मानता है कि वीडियो गेम बच्चों को सीखने, मुश्किलों से बाहर निकलने के लिए तैयार करते हैं। वहीं एक वर्ग का मानना है कि $फायदे की तुलना में इनके नुक़सान अधिक हैं।
ग़ौरतलब है कि वीडियो गेम का उद्योग लगभग तीन दशक पुराना है। पहले कम्प्यूटर स्कूलों, शैक्षणिक संस्थानों व कार्यालयों में होते थे। छात्र उनका इस्तेमाल सीमित समय के लिए ही करते थे। कम्प्यूटर गेम का इस्तेमाल शैक्षाणिक कौशल को विकसित करने के लिए किया जाता था। मगर जैसे-जैसे कम्प्यूटर, इंटरनेट का विस्तार होता चला गया, बच्चों और किशोरों तक इसकी पहुँच आसान होती चली गयी। बाद में घर-घर तक इनकी पहुँच हुई ही थी कि धीरे-धीरे मोबाइल हर हाथ तक पहुँचने गया। अब साइबर कैफे के साथ-साथ मोबाइल के ज़रिये बच्चे, किशोर और यहाँ तक कि काफ़ी संख्या में युवा, प्रौढ़ और बुज़ुर्ग लोग भी वीडियो गेम मोबाइल और कम्प्यूटर पर खेलते दिखते हैं। यही कारण है कि वीडियो गेम का धंधा भी ज़ोर पकड़ता जा रहा है। वीडियो गेम डवलेपर हर महीने दर्ज़नों वीडियो गेम का निर्माण करते हैं। बच्चों की इन नये-नये गेम्स, ख़ासकर हिंसक, आक्रामक गेम खेलने में रुचि बढ़ती जा रही है। कई बच्चे तो दिन-रात वीडियो गेम खेलते हैं और अभिभावक व अध्यापक इस पर कोई ख़ास नियंत्रण नहीं रख पाते।
बच्चों में अधिक ऊर्जा होती है। लिहाजा वे लम्बे समय तक मोबाइल और कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने बैठे रहते हैं। इससे उनकी भूख भी मरती है। उनमें फास्ट फूड खाने के अलावा चिड़चिड़ापन भी बढ़ रहा है और पढ़ाई करने में अरुचि पैदा हो रही है। माता-पिता इस ओर ख़ास ध्यान नहीं देते। अगर देते हैं, तो सिर्फ़ अपने आस-पास चर्चा तक ही सीमित रखते हैं। टैबलेट, स्मार्ट फोन की उपलब्धता के चलते तकनीक के इस युग में वीडियो गेम बच्चों के लिए मज़ेदार व मनोरंजन के साधन बन चुके हैं। वीडियो गेम डेवलेपर बच्चों के लिए ऐसे गेम बनाने लगे हैं, जिनकी उन्हें बार-बार खेलने की लत पड़ जाए। वीडियो गेम खेलने के आदि अधिकतर बच्चे कई-कई घंटे उन्हें खेलने में बिताते हैं, जिससे उनकी आँखें भी ख़राब हो रही हैं। बच्चों के लिए रोमाचंक ऑनलाइन गेम की बाज़ार में बहुत माँग है। क्योंकि जो बच्चे एक बार गेम खेलने के चक्कर में पड़ जाते हैं, तो वे उसमें उलझे रहते हैं और शारीरिक श्रम वाले खेलों और पढ़ाई से कतराने लगते हैं। इसकी वजह यह है कि वे इन गेम में ही अपनी दुनिया तलाशने लगते हैं। वे इन गेम में जैसा हीरो हो, ख़ुद को वैसा ही समझने लगते हैं।
हालाँकि कुछ गेम तो ऐसे हैं, जो बच्चों के सकारात्मक बौद्धिक विकास में मददगार हो सकते हैं; लेकिन अधिकतर वीडियो गेम उनके बौद्धिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। ख़ासकर जिन शूटर वीडियो गेम्स में बच्चों पर ग़ुस्सैल और हथियार चलाने का इच्छुक बनाते हैं।
सात साल के बेटे की माँ डॉ. शुभ्रा का कहना है कि आजकल बच्चों को पालना आसान नहीं है। माता-पिता इस तकनीक के युग में पसोपेश में हैं कि बच्चों को तकनीक के इस्तेमाल करने की इजाज़त कब दें और किस तरह से उस पर निगरानी भी बनाये रखें? शिक्षा से सम्बन्धी गेम बच्चों को उनके विषय समझने में सहायक सिद्ध होती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि अच्छे वीडियो गेम खेलने से बच्चों, किशोरों में जीवन की मुश्किल को हल करने का गुर आता है। लेकिन सवाल यह है कि अच्छे गेम का फ़ीसद कितना है? यह भी देखा जाना चाहिए कि गेम कितना भी अच्छा क्यों न हो, उससे बच्चे की आँखों कमज़ोर होने, भूख कम लगने, शारीरिक विकास कम होने और देर तक बैठे रहने से बीमार होने का ख़तरा तो बढ़ेगा ही। मोटापा बढऩे के साथ-साथ उनमें मधुमेह (शुगर) का ख़तरा बढऩे लगता है। भारत में मोटे व मधुमेह से ग्रस्त लोगों की संख्या बढ़ रही है। यही नहीं बच्चे मानसिक रोगों के भी शिकार हो रहे हैं। उन्हें अकेलापन, अवसाद घेर लेता है। वे ग़ुस्सैल, हिंसक और आक्रामक बन जाते हैं। इसके साथ ही उन्हें कोल्ड ड्रिंक्स पीने, नशीली दवाएँ लेने, सिगरेट व शराब पीने, च्यूइंगम व गुटखा चबाने आदि की लत घेर लेती है। मोबाइल फोन से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें बहुत नुक़सान पहुँचाती हैं। इससे उनमें तनाव बढ़ता है, जो उन्हें एक और बुरी लत की ओर खींचता है। इनसे ब्रेन ट्यूमर व कैंसर भी हो सकता है। दिल्ली स्थित एम्स के एक अध्ययन से ख़ुलासा हुआ कि 10 साल तक के बच्चों द्वारा अधिक समय तक मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने से उनमें ब्रेन ट्यूमर का ख़तरा 33 फ़ीसदी तक बढ़ सकता है।
ग़ौरतलब है कि दो से पाँच साल के बच्चे का दिमाग़ का विकास तेज़ गति से होता है यानी उसका दिमाग़ विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहा होता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि तकनीक का असर छोटे बच्चों पर बड़ों की तुलना में अधिक तेज़ी से पड़ता है। परिणामस्वरूप उनका विकास उन बच्चों की तरह नहीं हो पाता, जो वीडियो गेम से दूरी बनाकर रखते हैं। वीडियो गेम खेलने वाले बच्चों की लत से आजकल अभिभावकों, अध्यापकों और समाज का संवेदनशील तबक़ा बहुत परेशान है। क्या इस पर सरकार कोई नियम या क़ानून बना सकती है कि बच्चों का जीवन बर्बाद करने वाले वीडियो गेम नहीं बनाये जाने चाहिए, ताकि उनका भविष्य सुरक्षित रह सके। वीडियो गेम डेवलपर विलियम स्यू का कहना है कि मैं 13 साल से वीडियो गेम्स बना रहा हूँ। मेरी कम्पनी अब तक 50 से अधिक मोबाइल गेम बना चुकी है। इन्हें 100 करोड़ से अधिक बार डाउनलोड किया जा चुका है। इससे मुझे 800 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा की कमायी हुई है। लेकिन में अपनी बेटियों को कभी वीडियो गेम नहीं खेलने दूँगा। क्योंकि वीडियो गेम की लत नशे की हद तक हो जाती है। मुझे नहीं लगता कि माँ-बाप अपने बच्चों को इससे दूर रखने के लिए पर्याप्त सावधानी बरत पा रहे हैं। मैं वीडियो गेम के नशे से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ। हम बच्चों या बड़ों में इसी नशे को प्रोत्साहित करते हैं। उन्हें नशेड़ी बना देते हैं।’
विलियम स्यू अपने इस कथन के ज़रिये क्या सन्देश देना चाहते हैं, यह साफ़ है। लेकिन सवाल यह है कि अभिभावक और समाज इससे क्या सीख लेते हैं? विलियम स्यू की सलाह है कि माता-पिता को वीडियो गेम्स से होने वाले नुक़सानों के बारे में जानें और कम-से-कम ख़राब वीडियो गेम व अधिक देर तक वीडियो गेम खेलने से अपने बच्चों को रोकें। वे बच्चों की आदतों को लेकर जागरूक रहें, उनकी मोबाइल पर रहने की आदतों व उसके समय को ट्रैक करें। गूगल का डिजिटल वेलबीइंग या एप्पल के स्क्रीन टाइम फीचर से स्क्रीन टाइम बैलेंस की आदत डालें।
बच्चों को इस बुरी लत से बचाने में अध्यापक भी एक अहम भूमिका निभा सकते हैं। क्योंकि बच्चों के दिमाग़ में अध्यापकों की अच्छी छवि होती है और वे उनकी बात आसानी से मानते हैं। साथ ही स्कूल में बच्चों को दूसरे शारीरिक श्रम वाले खेल खिलाकर, पढ़ाई में आनन्दित करने वाले तरीक़े अपनाकर बच्चों का ध्यान वीडियो गेम से हटा सकते हैं। इसके अलावा वे बच्चों के अभिभावकों से संवाद करके बच्चों के घर में समय व्यतीत करने की जानकारी लेकर उन्हें अपना समय सही तरीक़े से इस्तेमाल करने के उपाय बताकर उन्हें भविष्य के ख़तरों से सतर्क करने का काम कर सकते हैं।
सभी जानते हैं कि बच्चे चंचल होते हैं और बहुत जल्दी उनका ध्यान बँटाया जा सकता है। ऐसे में अगर अभिभावक और अध्यापक चाहें, तो उनका जीवन सुधार सकते हैं और लापरवाही करके बिगाड़ भी सकते हैं। बच्चों का सही मार्ग-दर्शन करना कोई चुनौती नहीं है, बल्कि उन्हें पहले बिगाडक़र फिर सुधारना एक बड़ी चुनौती है। इसलिए देश के भविष्य बच्चों पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी होता है।