कर्नाटक के इस चुनाव ने देश में लोकतंत्र की नई परिभाषा लिख दी। भाजपा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर जिस स्थान पर पहुँची थी वो उसने नतीजे के बाद की घटनाओं से खो दिया। येद्दियुरप्पा के इस्तीफे ने सिर्फ उनके ही कद्द को चोट नहीं पहुंचाई है, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह शामिल हैं, की छवि को भी बड़ा धक्का लगाया है। लोगों में यही सन्देश गया है कि भाजपा सरकार बनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। तय मानिये कर्नाटक के इस चुनाव ने देश में २०१९ के लोकसभा चुनाव के लिए एकजुट विपक्ष की सम्भावना के द्वार खोल दिए हैं।
इस चुनाव के नतीजों के बाद की स्थिति ने देश में राज्यपालों की भूमिका पर भी बड़ा सवाल लगा दिया है। राजनीतिक रूप से यह उन अमित शाह की क्षमता को भी बड़ा धक्का है जिनके बारे में भाजपा के आम कार्यकर्ताओं को भरोसा था कि वे ”कुछ भी” कर सकने की कूबत वाले नेता हैं। हो सकता है आने वाले दिनों में शाह के अध्यक्ष पद को पार्टी के बीच से अब चुनौती मिले। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा को कर्नाटक में बड़ा जख्म मिला है।
कांग्रेस भले कर्नाटक में अपनी सरकार नहीं बना पाई, उसने भाजपा की भी सरकार नहीं बनने दी जबकि वह १०४ सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। निश्चित ही यह भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए बड़ी रणनीतिक हार है। सरकार बनने की इस विफलता ने येद्दियुरप्पा के राजनीतिक करियर पर ग्रहण लगा दिया है, जो पहले ही ७५ साल के हो चुके हैं। पिछले चार साल में कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में पहली बार रणनीतिक मोर्चे पर बड़ी जीत हासिल की है और इसमें सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी परदे के पीछे से बड़ी भूमिका अदा की।
कर्नाटक के नतीजे से पहले ही राहुल गांधी ने वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद को बेंगलुरु भेज दिया था और ”तहलका” की जानकारी के मुतबिक उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा से बात शुरू कर दी थी। जब राज्यपाल ने भाजपा को कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की ११८ सीटों के बावजूद सरकार बनाने के लिए बुला लिया तो कांग्रेस ने उसी सुप्रीम कोर्ट का सहारा भाजपा पर मनोविज्ञानिक दवाब के लिए, जिसके प्रमुख (मुख्या न्यायाधीश ) के खिलाफ प्रस्ताव लाया था, लिया। कांग्रेस रणनीति का उसे (कांग्रेस-जेडीएस) को फायदा मिला।
भले कर्नाटक में जेडीएस के नेतृत्व की सरकार बनी है, राष्ट्रीय स्तर पर इसका राजनीतिक मनोविज्ञानिक लाभ कांग्रेस को मिला है। पिछले चार साल में भाजपा के प्रचार तंत्र ने देश में माहौल ही ऐसा बना दिया है कि भाजपा की हर जीत कांग्रेस की हार है। ऐसे में कर्नाटक में भाजपा की सरकार न बना पाने की हार कांग्रेस की जीत के रूप में ही देखी जाएगी।
येदयुरप्पा के इस्तीफे के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिल्ली में प्रेस कान्फेरेन्स में कहा कि कर्नाटक में अपनी हार मानने के तुरंत बाद विधानसभा अध्यक्ष और भाजपा के सदस्य बिना राष्ट्रीय गान के बिना ही सदन से उठकर चल दिए। उन्होंने कहा कि कर्नाटक में पिछले चार दिन की घटनाओं ने जाहिर कर दिया कि भाजपा ने दिल्ली के अपने नेतृत्व के इशारे पर विधायकों को खरीदने की कोशिश की। ”देश और कर्नाटक की जनता ने बता दिया कि उनकी ताकत भाजपा के पैसे से बड़ी है।” राहुल ने कहा भाजपा को रोकने के लिए सब (विपक्ष) मिलकर काम करेगा।
कर्नाटक के नतीजे आने के बाद जो घटनाक्रम हुआ उससे यदि राजनीतिक रूप से किसी पार्टी की फजीहत हुई तो वह भाजपा है। उसने राज्यपाल की मार्फ़त सरकार में आकर पैसे और ताकत के बूते जो करने की कोशिश की उससे लोगों में भाजपा और मोदी की छवि को बहुत धक्का लगा है। इससे विपक्ष को एकजुट होने का अवसर मिला है। कर्नाटक के नाटक में जिस तरह ममता बनर्जी, मायावती, बिहार में लालू के बेटे तेजस्वी यादव और हैदराबाद में चंद्र बाबू नायुडु ने कांग्रेस – जेडीएस का साथ दिया निश्चित ही भाजपा की चिंता बढ़ेगी। माकपा भी कांग्रेस के साथ दिखी।
इस सारे घटनाक्रम से एक और सन्देश मिला कि कांग्रेस यदि ठान ले तो भाजपा को झटका दे सकती है। गुजरात के राज्य सभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ ऐसी ही रणनीति बनाकर भाजपा को झटका दिया था।
इस सारे घटनाक्रम में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य इस सारे घटनाक्रम के दौरान सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी वाड्रा की गहरी सक्रियता रही। दिल्ली में कांग्रेस के १० जनपथ के नजदीक सूत्रों ने ”तहलका” को बताया कि राहुल गांधी ने ”आपरेशन कर्नाटक” की रणनीति का नेतृत्व किया और सोनिया और प्रियंका वाड्रा ने इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। गुलाम नबी आज़ाद, अशोक गहलोत आदि को साफ़ सन्देश दिया गया था की भाजपा की सरकार किसी सूरत में नहीं बननी चाहिए क्योंकि कांग्रेस जेडीएस के पास पर्याप्त नंबर है।